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उप चुनाव के नतीजों ने दी नसीहत

उपचुनावों के परिणामों के माध्यम से जनता ने सत्तासीनों को जागरूक रहने की साफ चेतावनी दी है. यदि शासन व्यवस्था अच्छी नहीं है, तो जनता आपको नकार देगी.

अपडेटेड 25 मार्च , 2012

शासन करने वालो होशियार. लगाम वोटर के हाथ में है और वह अच्छी सरकार चाहता है. लोकसभा की एक और विधानसभा की आठ सीटों के लिए देश के विभिन्न हिस्सों में हुए उपचुनावों का संदेश यही है. इन उपचुनावों में भी उसी लहर की गूंज सुनाई दी है, जिस लहर ने अखिलेश यादव के पेश किए गए विकास के एजेंडा को सत्ता सौंप दी है.

कर्नाटक और गुजरात में, सत्तारूढ़ भाजपा के खिलाफ चल रही तेज सत्ता विरोधी लहर का फायदा कांग्रेस को मिला. दोनों ही राज्‍यों में भाजपा अंदरूनी असंतोष का सामना भी कर रही है. भाजपा के गढ़ उडुपी-चिकमंगलूर में 18 मार्च को हुए लोकसभा उपचुनाव पर पूर्व मुख्यमंत्री बी.एस. येद्दियुरप्पा के अपने उत्तराधिकारी डी.वी. सदानंद गौड़ा को हटाने की कोशिश का काफी खराब असर हुआ. केंद्रीय मंत्री एस.एम. कृष्णा, एम. वीरप्पा मोइली, मल्लिकार्जुन एम. खड़गे और के. एच. मुनियप्पा के एकजुट होकर लगातार प्रचार करने के बाद भाजपा प्रत्याशी वी. सुनील कुमार कांग्रेस के प्रत्याशी के. जयप्रकाश हेगड़े से 50,000 से ज्‍यादा वोटों से चुनाव हार गए.

इस क्षेत्र के भाजपा के एक विधायक ने स्वीकार किया, ‘इस इलाके में आपसी फूट, येद्दियुरप्पा के भ्रष्टाचार के मामलों से हमारी छवि को पहुंचे नुकसान और हमारे साथियों के ब्लू फिल्में देखने की हास्यास्पद हरकत ने कांग्रेस की जीत पक्की कर दी.’

उत्तरी गुजरात की मनसा विधानसभा सीट पर भाजपा की हार ने दिसंबर, 2012 में होने वाले विधानसभा चुनाव के पहले गुजरात ने नरेंद्र मोदी को समय रहते चेतावनी दे दी है. भाजपा यह सीट 1995 से जीतती आ रही थी.

गुजरात कांग्रेस के अध्यक्ष अर्जुन मोधवाडिया ने कहा, ‘यह जनता की उस ताकत की जीत है, जिसे मोदी सरकार तानाशाही तरीके से दबाने की कोशिश कर रही थी.’ कांग्रेस के उम्मीदवार बाबूजी ठाकोर ने भाजपा के डी.डी. पटेल को 8,000 वोटों से हरा दिया. मोदी की कॉर्पोरेट हितैषी छवि और हिंदुत्व पर जोर कम देना कांग्रेस के पक्ष में गया प्रतीत होता है.

कव्रल में अभूतपूर्व एकता ने सत्तारूढ़ यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट (यूडीएफ) को पिरअवम विधानसभा सीट पर शानदार जीत दिला दी और सत्तारूढ़ गठबंधन को जीवनदान मिल गया. यहां से कव्रल कांग्रेस (जे) की ओर से पहली बार चुनाव मैदान में उतरे 34 वर्षीय अनूप जैकब 12,070 वोटों के अंतर से जीते. इसके विपरीत, विरोधी एलडीएफ में फूट पड़ी हुई थी. इस जीत से यूडीएफ को फिर 72 सीटें बरकरार रखने का मौका मिल गया है. 2011 में हुए विधानसभा चुनाव में यूडीएफ को 72 सीटें ही मिली थीं और 140 सीटों वाली विधानसभा में उसके पास आधे से दो ज्‍यादा सदस्य हैं.

आंध्र प्रदेश के तेलंगाना क्षेत्र में 18 मार्च को हुए विधानसभा की छह में से पांच सीटों पर अलग राज्‍य के समर्थक सफल रहे. इससे तेलंगाना को आंध्र प्रदेश से पृथक करने की मांग को व्यापक समर्थन का संकेत मिलता है. तेलंगाना मसले पर ढुलमुल रवैया अपनाने के कारण कांग्रेस को दंड भुगतना पड़ा. यहां पृथक तेलंगाना समर्थक उन विधायकों के इस्तीफा देने से उपचुनाव हुए थे, जो 2009 में कांग्रेस और तेलुगु देशम पार्टी के टिकटों पर जीते थे. वे खासे अंतर से फिर जीत गए हैं.

सबसे महत्वपूर्ण थी महबूबनगर सीट, जो कांग्रेस समर्थक निर्दलीय विधायक के निधन से खाली हुई थी. यहां से टीआरएस के सैयद इब्राहिम भाजपा के वाई. श्रीनिवास रेड्डी से 1,897 वोटों के मामूली अंतर से हार गए. हालांकि यह टीआरएस प्रमुख के. चंद्रशेखर राव के लिए एक झटका है, क्योंकि वे महबूबनगर लोकसभा सीट से सांसद हैं. टीडीपी छोड़कर वाईएसआर कांग्रेस में शामिल होने वाले एन. प्रसन्न कुमार रेड्डी के इस्तीफ के कारण कोवुर सीट के लिए हुए सातवें उपचुनाव में, एन. प्रसन्न कुमार ने टीडीपी के एस. चंद्रमोहन रेड्डी को 23,496 वोटों से पराजित किया. यह भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि खबरें थीं कि नेल्लूर जिले में पड़ने वाली इस सीट में वोट खरीदने के लिए कांग्रेस और टीडीपी ने भारी मात्रा में पैसा झेंका था.

भ्रष्टाचार का मुद्दा और सत्ता विरोधी दोहरी लहर कांग्रेस के खिलाफ गए.  कांग्रेस के अलावा प्रदेश की मुख्य विपक्षी पार्टी टीडीपी भी नए राज्‍य के प्रति अपने दोहरे रवैए के कारण असफल रही. निजामाबाद से कांग्रेस के सांसद मधु गौड़ का कहना है, ‘हम लोग दिल्ली में अपने नेताओं को बताते रहे हैं कि तेलंगाना के लोग महसूस करते हैं कि कांग्रेस ने उन्हें धोखा दिया है. जब तक हम अपना वादा पूरा नहीं करते, तब तक लोगों का विश्वास पुनः हासिल करने का सवाल ही नहीं है.’

-साथ में उदय माहूरकर, अमरनाथ के. मेनन और एम.जी. राधाकृष्णन