लालू प्रसाद यादव अपने चुटीली बातों और अपने मनमोहक भाषा शैली के लिए चर्चित हैं. उनकी अपनी पार्टी राष्ट्रीय जनता दल की कांग्रेस से दोस्ती है. लालू को भाजपा के धुर विरोधी नेता के रूप भी पहचाना जाता है. समाजवादी आंदोलन से राजनीति की शुरूआत करने वाले लालू के बारे में खास किस्सा ये भी है कि छात्र राजनीति में उन्हें बड़ी जीत 1973 में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) के समर्थन से मिली थी. ठीक इसी तरह सूबे की राजनीति में उन्हें बड़ा ब्रेक भी 1990 में भाजपा के समर्थन से मिला था, जब जनता दल के नेतृत्व वाले संयुक्त विधायक दल के नेता के रूप में उन्हें बिहार का मुख्यमंत्री बनने का मौका मिला.
आम आदमी की जिंदगी के देखने लगे थे ख्वाब
लालू के राजनीति जीवन के कई अनछुए पहलुओं पर प्रकाश डालने वाली पुस्तक रूल्ड ऑर मिसरूल्ड का प्रकाशन ब्लूम्सबेरी पब्लिकेशन ने किया है. इसके लेखक संतोष सिंह है. इस पुस्तक के अनुसार लालू प्रसाद यादव 1971 में पटना यूनिवर्सिटी स्टूडेंट यूनियन का इलेक्शन हार कर निराश हो चुके थे. उन्होंने पटना के ही एक कॉलेज में क्लर्क की नौकरी पकड़ ली. उनका इरादा था सरकारी नौकरी में सफलता हासिल करते हुए शादी करना और एक आम आदमी की जिंदगी बिताना.
गठबंधन से जीता छात्रसंघ अध्यक्ष का चुनाव
लालू भले ही क्लर्क की नौकरी से जुड़ गए थे लेकिन छात्र राजनीति से उनका जुड़ाव तस का तस था. 1973 के स्टूडेंट यूनियन इलेक्शन में उनकी रूचि फिर से जगी. उस वक्त पिछड़े वर्ग का कोई भी दमदार नेता नहीं था. लालू ने आखिरी बार समाजवादी युवजन सभा के बैनर तले अध्यक्ष पद पर भाग्य आजमाने का फैसला लिया. उस दौर में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद भी छात्र संगठन के रूप में तेजी से उभर रहा था. एबीवीपी ने अपना प्रत्याशी उतारने की बजाय समाजवादी छात्र सभा के पैनल को समर्थन देने का फैसला किया. इस गठबंधन के प्रत्याशियों ने स्टूडेंट यूनियन इलेक्शन में जबरदस्त जीत हासिल की.
लालू यादव अध्यक्ष, सुशील कुमार मोदी महासचिव और रवि शंकर प्रसाद संयुक्त सचिव के रूप में विजयी हुए.
दूसरी बार भाजपा के साथ से बनी बात
छात्र राजनीति के बाद लालू मुख्य धारा की राजनीति में उतरे. उनको पॉलिटिकल करियर का बड़ा ब्रेक 1990 में मिला. इस बार भाजपा के समर्थन ने उन्हें बिहार का मुख्यमंत्री बना दिया. हुआ यूं कि 1990 के विधानसभा चुनाव में पहली बार जनता दल ने हिस्सा लिया. 324 सीटों की विधानसभा में जनता दल सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी. उसे 122 सीटें मिलीं. कांग्रेस को 71 और भाजपा को 39 सीटें प्राप्त हुई. हालांकि किसी भी पार्टी को स्पष्ट बहुमत नहीं था. बहुमत के लिए 163 विधायकों को समर्थन चाहिए था. यहां भाजपा ने लालू का साथ दिया और भाजपा के समर्थन से बिहार में जनता दल की सरकार बनी. लालू पहली बार मुख्यमंत्री बने.
कुछ ही महीनों के बाद टूटी यारी
जनता दल और भाजपा की ये यारी ज्यादा दिन नहीं चली. सितंबर 1990 में जब लाल कृष्ण आडवाणी की रथयात्रा पूरे देश में चर्चा का विषय थी, उसके बिहार पहुंचते ही मामला बिगड़ गया. लालू ने समस्तीपुर में आडवाणी की यात्रा का रोकते हुए उन्हें गिरफ्तार करा लिया. जनता दल के मुखिया वीपी सिंह उन दिनों प्रधानमंत्री थे. वो भी इस गिरफ्तारी को नहीं रोक सके. नतीजा, केंद्र और बिहार में भाजपा ने जनता दल से समर्थन वापस ले लिया. केंद्र में सरकार गिर गई लेकिन लालू भाजपा के एक धड़े को तोड़ने में सफल रहे और अपनी सरकार बचा ली.