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राजपूत वोटों की मजबूरी... बिहार में आनंद मोहन की रिहाई पर महागठबंधन के दांव के आगे बीजेपी क्यों साइलेंट?

बिहार के गोपालगंज के डीएम रहे जी कृष्णैया की हत्या के मामले में उम्रकैद की सजा काट रहे बाहुबली आनंद मोहन सिंह अभी परोल पर बाहर हैं. नीतीश सरकार के जिस फैसले से आनंद मोहन जल्द ही जेल से बाहर आने वाले हैं, उस पर बीजेपी खामोश है. इस पूरे सियासी गेम के पीछे राजपूत वोटों का समीकरण माना जा रहा है.

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आनंद मोहन सिंह और जेडीयू अध्यक्ष ललन सिंह
आनंद मोहन सिंह और जेडीयू अध्यक्ष ललन सिंह

बिहार के पूर्व सांसद व बाहुबली नेता आनंद मोहन जेल से रिहा होकर बाहर आ गए हैं. गोपालगंज के डीएम रहे जी कृष्णैया की हत्या में आजीवन सजा काट रहे बाहुबली आनंद मोहन की रिहाई का रास्ता नीतीश कुमार सरकार के द्वारा लिए गए एक फैसले से संभव हो सका है. आनंद मोहन की रिहाई पर नीतीश की सियासी मंशा साफ है, लेकिन बीजेपी चाहकर भी विरोध नहीं कर पा रही है. बाहुबली आनंद मोहन को रिहा करने और बीजेपी की चुप्पी के पीछे क्या सियासी मायने हैं? 

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बिहार की सियासत में आनंद मोहन नब्बे के दशक में राजपूत और सवर्णों की राजनीति कर आगे बढ़े थे. कोसी इलाके में वो एक बड़े राजपूत दबंग नेता के रूप में पहचाने जाने लगे, लेकिन अब 15 साल के बाद आनंद मोहन की जेल से रिहाई कराई गई है तो उनके जरिए महागठबंधन अगड़ों खासकर राजपूत वोटों का समर्थन हासिल करने की रणनीति है. राजपूत वोटों की मजबूरी ही बीजेपी की चुप्पी का कारण बनी हुई है, जिसके चलते चाहकर भी विरोध नहीं कर पा रही है. 

कौन हैं आनंद मोहन सिंह?

आनंद मोहन का जन्म 26 जनवरी, 1956 को बिहार के सहरसा जिले के पचगछिया गांव में हुआ. जेपी आंदोलन के प्रभाव से आनंद मोहन भी अछूते नहीं थे. इमरजेंसी के दौरान दो साल तक जेल में भी रहे और जेल से बाहर आते ही अस्सी के दशक में उन्होंने अपनी दबंगई शुरू कर दी थी. कोसी इलाके में उनकी सियासी तूती बोलने लगी थी. मारपीट हो या फिर हत्या, हर तरफ आनंद मोहन की दबंगई की कहानी बयां होने लगी. साथ ही बिहार में 'पिछड़ी जातियों की बढ़ती ताकत' के खिलाफ अगड़ी जाति के प्रतिरोध में सबसे आगे थे.

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हालांकि, उन्होंने अपना सियासी सफर जेपी आंदोलन से शुरू किया था. 1990 में पहली बार जनता दल के टिकट पर महिषी सीट से विधायक बने. उसी साल पप्पू यादव ने लालू प्रसाद यादव के प्रति निष्ठा की शपथ लेते हुए सिंहेश्वर विधानसभा सीट से निर्दलीय जीतकर विधानसभा पहुंचे. देश में मंडल कमीशन लागू हुआ तो आनंद मोहन उसके विरोध में उतरे और राजपूतों के बीच मजबूत पकड़ बनाई. 1993 में आनंद मोहन ने बिहार पीपल्स पार्टी बनाई, जिसे स्थापित करने के लिए आक्रमक रुख अपनाया. उनके जीवन का सबसे महत्वपूर्ण पड़ाव तब आया जब वैशाली लोकसभा उपचुनाव में उनकी पत्नी लवली आनंद ने आरजेडी उम्मीदवार को हरा दिया.

साल 1994 को गोपालगंज के डीएम जी कृष्णैय्या की हत्या में आनंद मोहन का नाम आया. इस मामले में 2007 में कोर्ट ने उन्हें सजाए मौत की सजा सुनाई थी. हालांकि, बाद में यह सजा आजीवन कारावास में बदल गई थी. आनंद मोहन को न तो हाईकोर्ट से राहत मिली और न ही सुप्रीम कोर्ट से. 15 सालों तक सजा काटने के बाद आनंद मोहन अब नीतीश सरकार के एक फैसले से रिहा हो गए हैं, जिसके बाद सियासत तेज हो गई है. 

आनंद मोहन की रिहाई 

आनंद मोहन की रिहाई के राजनीतिक पहलू पर अगर गौर करें तो सत्ताधारी नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली महागठबंधन की सरकार है, उसे लगता है कि बिहार के राजपूत समाज का समर्थन उसे लोकसभा चुनाव में मिल सकता है. आनंद मोहन के जरिए आरजेडी राजपूत वोटों को अपने पाले में लाना चाहती है तो बीजेपी भी इस वोटबैंक को अपने साथ जोड़े रखना चाहती है.  

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बिहार में राजपूत वोटों के समीकरण को देखते हुए आनंद मोहन की रिहाई पर बीजेपी खामोशी अख्तियार कर रखी है या फिर उनके पक्ष में खड़ी है. केंद्रीय मंत्री गिरीराज सिंह ने आनंद मोहन बेचारे बताते हुए कहा कि आनंद मोहन बलि के बकरे बन गए थे. उनकी रिहाई हुई है तो कई बड़ी बात नहीं है, लेकिन आनंद मोहन की आड़ में जिन्हें सरकार ने छोड़ा है, वो सही नहीं है. गिरिराज के बयान से साफ जाहिर होता है कि बीजेपी काफी एहतियात बरत रही है. कहीं ऐसा न हो जाए कि राजपूत समाज ये मान ले कि बीजेपी इसी समाज के खिलाफ है. इसीलिए बच बचाके ही बीजेपी कदम उठा रही है. 

बिहार में राजपूत सियासत 

बिहार में राजपूत एक प्रभावशाली जाति हैं, जिसके चलते सभी राजनीतिक दल इस समुदाय पर अपनी पकड़ मजबूत बनाए रखने की कवायद में है. राजपूतों की आबादी बिहार में करीब 6 से 8 फीसदी है. राज्य की करीब 30 से 35 विधानसभा सीटों और 7 से 8 लोकसभा सीटों पर राजपूत जाति जीत या हार में निर्णायक भूमिका निभाती रही है. यही वजह है कि सत्तापक्ष हो या विपक्ष दोनों इस जाति को समय-समय पर अपने फैसलों के जरिए अपने साथ लाने की कोशिश करती रहीं हैं.

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2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने 5 राजपूतों को टिकट दिया था और ये सभी जीतकर संसद पहुंचे थे. पूर्व चंपारण से राधामोहन सिंह , आरा से आरके सिंह, छपरा से राजीव प्रताप रूडी, औरंगाबाद से सुशील सिंह और महाराजगंज से जनार्दन सिग्रीवाल सांसद हैं. वहीं, 2020 के विधानसभा चुनाव में कुल 28 राजपूत विधायक जीते थे, जिनमें बीजेपी से 15, जेडीयू से 2, आरजेडी से 7, कांग्रेस से एक, वीआईपी से दो और एक निर्दलीय है. 

राजपूत कभी आरजेडी के साथ था

बिहार में दो प्रमुख सवर्ण जातियां है, जिसमें भूमिहार और राजपूत है. भूमिहार समुदाय पारंपरिक बीजेपी मतदाता है जबकि राजपूत समुदाय 2014 से पहले आरजेडी के साथ रहा है. फिलहाल बिहार में राजपूत समुदाय बीजेपी के कोर वोटर बन गए है. महागठबंधन में कोई बड़ा राजपूत चेहरा नहीं है. जगदानंद सिंह भले ही आरजेडी के प्रदेश अध्यक्ष है, लेकिन वो नेता कम आरजेडी मैनेजर ज्यादा हैं. उनके बेटे सुधाकर सिंह का कद इतना बड़ा नहीं है कि वह राजपूत वोटर को अपने पाले में कर सकें. साथ ही नीतीश कुमार पर हमलावर रहने की वजह से आरजेडी उनसे असहज महसूस कर रही है. 

जेडीयू के एमएलसी संजय सिंह हो या सीवान सांसद कविता सिंह के पति अजय सिंह इनकी पहचान एक क्षेत्र तक सीमित है. जेडीयू के राज्यसभा सदस्य हरिवंश सिंह की पहचान राजपूत नेता के तौर पर कभी नहीं रही है. ऐसे में महागठबंधन को एक बड़े राजपूत नेता की तलाश है. 

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आनंद मोहन के जरिए बड़ा दांव

आनंद मोहन सिंह सवर्ण नेता हैं खासकर राजपूत जाति से आते हैं. यही वजह है कि नीतीश सरकार आनंद मोहन की रिहाई कर चुनाव से पहले अपने तरकश में आनंद मोहन नाम की तीर शामिल करना चाह रही है ताकि राजपूत वोटों का साधा जा सके. हालांकि, आरजेडी रामा सिंह जैसे नेता को पहले ही पार्टी में ले चुकी है और आनंद मोहन के बेटे आरजेडी से विधायक हैं. 

वहीं, अब आरजेडी आनंद मोहन की लोकसभा चुनाव से पहले रिहाई कर बड़ा ब्रह्मास्त्र चला है. राजपूत समुदाय और उनके समर्थक एक समय में आनंद मोहन को रॉबिनहुड कहते थे. महागठबंधन अब आनंद मोहन के राजपूत नेता की छवि का पूरा फायदा उठाने की कवायद है. देखना है कि नीतीश का यह दांव सफल रहता है या नहीं ये 2024 में ही पता चल सकेगा? 

 

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