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बिहार में आरक्षण का नया दांव... क्या सर्वे की इन 5 खामियों को छिपाना चाहते हैं सीएम नीतीश?

बिहार में जाति आधारित गणना (सर्वे) के आंकड़े पेश हुए. इसके बाद विधानसभा में इसपर चर्चा हुई, यहां सीएम नीतीश ने अपने संबोधन में बड़ा ऐलान कर दिया. उन्होंने बताया कि बिहार सरकार आरक्षण के दायरे को 50 से बढ़ाकर 65 फीसदी करेगी.

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सीएम नीतीश ने आरक्षण का दायरा बढ़ाने की बात कही
सीएम नीतीश ने आरक्षण का दायरा बढ़ाने की बात कही

पिछड़ा पावै सौ में साठ... ये नारा समाजवादी नेता डॉक्टर राम मनोहर लोहिया ने दिया था. अब कहानी सौ में पैंसठ की पहुंच गई है. पिछड़ों को आरक्षण बढ़ाकर देने के लिए नीतीश कुमार ने आज जाति आधारित आरक्षण को बढ़ाकर पैंसठ फीसदी करने की सिफारिश की और फिर कैबिनेट से पास करा दिया. लेकिन सवाल उठ रहा है कि क्या नीतीश जाति आधारित सर्वे में सामने आई कमियों को छिपाने के लिए ये दांव चल रहे हैं?

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जिस बिहार में हर सौ परिवार में एक तिहाई से ज्यादा परिवार महीने के 6000 रुपए भी अब तक नहीं कमा पाते हैं. वहां इस बात की चिंता छोड़कर सौ में पैसठ वाला आरक्षण का कार्ड नीतीश कुमार ने फेंक दिया है. ऐसे में क्या रिजर्वेशन से जुड़े कार्ड की काट राम के नाम की राजनीति बनेगी? ये सवाल भी उठ रहा है.

बिहार से आई आज की खबर 2024 के चुनाव में बीजेपी के लिए एक चुनौती पेश करती है. चुनौती जो पिछड़ों-अति पिछड़ों, एससी-एसटी के लिए आरक्षण बढ़ाने का प्रस्ताव पेश कर अपनी कैबिनेट से पास कराकर नीतीश कुमार ने दी है.

एक तरफ कोइरी समाज की दुर्गा देवी, धानुक समाज की संजू देवी, तेली समाज की बबिता कुमारी, हरिजन समाज की आशादेवी, मुस्लिम पिछड़ा वर्ग की अफसरी खातून समेत सैकड़ों गरीब समाज से आने वाली आंगनवाड़ी कर्मचारी जब पटना में अपने हक का वेतन मांगने के लिए प्रदर्शन करने पहुंचीं तो विधानसभा के बाहर पुलिस ने लाठी चलाकर, पानी की बौछार करके भगा दिया गया.

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विधानसभा के बाहर महिला कर्मचारी पीटे जाते रहे. पुलिस के हाथों धकियाए जाते रहे. अपमान की बौछार झेलते रहे. वहीं विधानसभा के भीतर नीतीश कुमार जाति आधारित गणना का सर्वे जारी करने के बाद जाति आधारित आर्थिक सर्वे पेश करके प्रस्ताव ले आए कि बिहार में जाति आधारित आरक्षण अब 50 फीसदी से बढ़ाकर 65 फीसदी कर दिया जाए.

प्रस्ताव नीतीश कुमार लाए कि  जो पिछड़ा-अति पिछड़ा बिहार में पहले 30 फीसदी आरक्षण पाते रहे, उन्हें अब 43 प्रतिशत आरक्षण दिया जाए. प्रस्ताव एससी को बिहार में 16 फीसदी से बढ़ाकर 20 फीसदी देने का. एसटी को 1 प्रतिशत से बढ़ाकर 2 फीसदी देने का.

जिस बिहार में जाति आधारित सरकारी आर्थिक सर्वे के मुताबिक
- हर जाति के 34 फीसदी परिवार बिहार में महीने के 6000 रुपए कमाते हैं. यानी दिन का 
दो सौ रुपए ही कमाई है.
- यानी हर तीसरे में से एक परिवार बिहार का गरीब है. 
- 30 फीसदी परिवार अब भी बिहार के हैं, जिनकी प्रतिदिन कमाई 333 रुपए ही है.
- बिहार में नीतीश-लालू के तीन दशक के राज में अब भी 50 लाख से ज्यादा बिहारी नागरिक बेहतर पढ़ाई और रोजीरोटी के लिए राज्य के बाहर रहते हैं.
-  बिहार में नीतीश कुमार के 18 साल के शासन के बाद अब भी सबसे ज्यादा 16.73 फीसदी लोगों के लिए रोजगार का जरिया मजदूरी है.

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अब सवाल उठता है कि नीतीश कुमार इन कमियों पर पर्दा डालकर क्या पहले जाति आधारित सर्वे और अब जाति के आधार पर आरक्षण को 50 से 65 फीसदी करने का प्रस्ताव लाकर 2024 से पहले बीजेपी को अपने पत्ते खोलने के लिए मजबूर करना चाहते हैं?

बीजेपी की तरफ से नंद किशोर यादव ने कहा कि हम आरक्षण की सीमा बढ़ाने के लिए तैयार हैं, चालीस नहीं साठ कर लीजिए. बीजेपी को कोई आपत्ति नहीं, सवाल मूल है कि कैसे रोजगार मिलेगा, नौकरी मिलेगी. जब डिग्री नहीं तो नौकरी कैसे मिलेगी.

सवाल यही कि नीतीश कुमार आरक्षण बढ़ाकर जो पिछड़ों को आगे लाना चाहते हैं. क्या वो बिहार की शिक्षा व्यवस्था पहले सुधारेंगे? जहां-

पांचवीं तक की शिक्षा हासिल करने वाले ही सबसे ज्यादा 22.6 फीसदी हैं.
11वीं-12वीं तक पढ़ाई किए केवल सौ 9.1 प्रतशित लोग हैं. 
ग्रेजुएट जो लोग बिहार में हो पाए, वो केवल 7 प्रतिशत हैं.

पिछड़ों और अति पिछड़ों के वोट से जो सियासत बिहार में नीतीश और लालू की शुरू हुई, वहां आरक्षण बढ़ाने की नई लकीर खींचकर घटते वोट बंटोरने का नया दांव चला गया है. जिसमें ये नहीं भूलना होगा कि बिहार में पिछड़ा अति पिछड़ा वर्ग के 33-33 फीसदी परिवार, एससी समुदाय के 42 प्रतिशत और एसटी समुदाय के 42 फीसदी परिवार महीने के 6000 रुपए ही कमाकर गरीब है तो सामान्य वर्ग के 25 फीसदी परिवार की हालत भी यही है.

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लेकिन ये साफ है कि नीतीश कुमार ने बड़ा चुनावी दांव खेला है. बीजेपी खुलकर विरोध नहीं कर पा रही है, देखने वाली बात ये होगी कि चुनाव होंगे तो बीजेपी को कितना नुकसान पहुंचा पाते हैं.

वैसे नीतीश कुमार ने अभी वही किया है जो पहले भी कई राज्य कर चुके हैं, जहां राज्य आरक्षण की सीमा बढ़ाने का फैसला करते हैं और फिर तुरंत कोर्ट में कोई चुनौती दे देता है. दरअसल, 1992 में सुप्रीम कोर्ट ने जाति आधारित आरक्षण की सीमा 50 फीसदी तय कर दी थी.

इसी आधार पर 2021 में 50 फीसदी के पार जाकर दिए गए मराठा आरक्षण को सुप्रीम कोर्ट ने रद्द कर दिया था.

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