बिहार की राजनीति में जेडीयू के अंदर सियासी घमासान छिड़ गया है. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और जेडीयू में अपनी पार्टी को विलय करने वाले उपेंद्र कुशवाहा के बीच शह-मात का खेल चल रहा है. कुशवाहा एक बार फिर से उसी दिशा में कदम बढ़ा रहे हैं, जिस रास्ते पर जॉर्ज फर्नांडिस से लेकर शरद यादव और आरसीपी सिंह जैसे नेता चल चुके हैं. ये सभी नेता कभी नीतीश कुमार के खासम-खास हुआ करते थे और पार्टी में नंबर दो-तीन की हैसियत रखते थे, लेकिन जेडीयू का साथ छोड़ते ही सियासी तौर पर गुमनाम हो गए. ऐसे में देखना होगा कि उपेंद्र कुशवाहा क्या सियासी कदम उठाते हैं?
नीतीश कुमार की आदत रही है कि वह अपने दल के साथ जिन लोगों को जोड़ते हैं, उन्हें बाहर का रास्ता दिखाने में भी देर नहीं करते हैं. उनका राजनीतिक स्वभाव रहा है कि वो जिससे नाराज़ होते हैं, उससे बदला लेने में वह किसी भी हद तक चले जाते हैं. भले ही वह पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष जैसे पद पर ही क्यों न हो. नीतीश कुमार ने जेडीयू के संस्थापक जार्ज फर्नांडिस और शरद यादव को भी किनारे लगाने में देर नहीं लगाई थी.
शरद-जॉर्ज ही नहीं आरसीपी सिंह से लेकर उपेंद्र कुशवाहा, अली अनवर, जीतनराम मांझी, प्रशांत किशोर तक दस नेता हैं, जिन्हें आप देखें तो नीतीश कुमार तभी तक उन्हें पालते-बढ़ाते हैं, जब तक उनके मर्जी से वो चलते रहे, लेकिन जैसे ही किसी ने पार्टी में खुद के सियासी कद को मजबूत करने की कोशिश की है, उसे 'बाहर का रास्ता' ही नहीं दिखाया बल्कि राजनीतिक तौर पर भी निपटा दिया गया.
जॉर्ज फर्नांडिस की जेडीयू फजीहत
समाजवादी आंदोलन से निकले जॉर्ज फर्नांडिस के साथ मिलकर नीतीश कुमार ने समता पार्टी का गठन किया था. 2003 में समता पार्टी का जेडीयू में विलय हुआ तो जॉर्ज फर्नांडिस को पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया गया. जॉर्ज उस समय सर्वमान्य नेता थे, लेकिन चलती नीतीश कुमार की ही थी. 2004 में फर्नांडिस ने अपने नजदीकी जया जेटली को राज्यसभा भेजने की बात कही तो मुख्यमंत्री ने इसे नकार दिया और तब तक 2005 में वे बिहार के मुख्यमंत्री बन चुके थे. सत्ता के सिंहासन पर काबिज होते ही उन्होंने 2006 में जॉर्ज फर्नांडिस की जगह शरद यादव को पार्टी की कमान सौंपी. 2009 के लोकसभा चुनाव में जॉर्ज फर्नांडिस को टिकट नहीं दिया, जिसके बाद उन्होंने निर्दलीय चुनाव लड़े, लेकिन जीत नहीं सके. इस तरह जॉर्ज की सियासत दोबारा से उभर नहीं पाई.
शरद यादव को दिखाया बाहर का रास्ता
जेपी के समाजवादी आंदोलन से निकलने वाले शरद यादव ने ही बिहार की सियासत में नीतीश कुमार को स्थापित करने में अहम भूमिका अदा की थी. 2006 में शरद यादव को राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाकर फर्नांडिस को साइडलाइन किया गया. शरद लगातार मधेपुरा से सांसद बनते रहे थे, राजनीतिक रूप से वे भले मजबूत रहे हों, लेकिन मुख्यमंत्री ने उन्हें भी बेआबरू करके जेडीयू से बाहर का रास्ता दिखाया. 2016 में नीतीश खुद राष्ट्रीय अध्यक्ष बन गए और शरद यादव 2014 में लोकसभा का चुनाव हार गए थे तो बाद में कुमार ने उन्हें राज्यसभा भेज दिया था.
नीतीश कुमार ने साल 2017 में महागठबंधन से नाता तोड़कर एनडीए में वापसी की तो शरद यादव बागी हो गए. 2018 में शरद यादव ने जेडीयू से अलग होकर अपनी पार्टी बनाई, लेकिन कोई असर नहीं दिखा सके. शरद ने अपनी पार्टी का भी 2019 में आरजेडी में विलय कर दिया. आरजेडी के टिकट पर चुनाव भी लड़े, लेकिन हार गए. इसके बाद उन्होंने अपने ही मधेपुरा जिले की विधानसभा सीट से अपनी बेटी को कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ाया, पर उसे भी नहीं जिता सके. पिछले दिनों शरद यादव का निधन हो गया.
बिहार में भटक रहे प्रशांत किशोर
भारतीय राजनीति में 2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी को जिताकर चर्चा में आए प्रशांत किशोर (पीके) ने 2015 के बिहार चुनाव में नीतीश कुमार की सरकार बनवाने में अहम भूमिका अदा की. ऐसे में नीतीश कुमार ने पीके को मंत्री का दर्जा दिया और जेडीयू का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बनाकर पार्टी में नंबर दो की हैसियत दी. जेडीयू में उनकी सियासी तूती बोलने लगी. नीतीश ने उनकी मर्जी से पार्टी और सरकार में कई अहम काम किए, लेकिन कुछ दिनों के बाद दोस्ती में दरार पड़ी. पीके को जेडीयू छोड़ना पड़ा और उन्होंने बिहार में नई राजनीतिक विकल्प तैयार करने का बीड़ा उठाया. इन दिनों प्रशांत किशोर बिहार की यात्रा कर रहे हैं और नीतीश सरकार के खिलाफ माहौल बना रहे हैं. लेकिन, पीके की यात्रा से नीतीश कुमार पर सियासी प्रभाव नहीं पड़ता नजर आ रहा है?
जेडीयू में नंबर-2, पर आज गुमनाम
आरसीपी सिंह ने नौकरशाही के रास्ते से नीतीश कुमार के भरोसे सियासत में एंट्री की थी. आरसीपी और नीतीश कुमार एक ही जिले नालंदा और एक ही जाती कुर्मी समुदाय से आते हैं. ऐसे में आरसीपी देखते ही देखते नीतीश कुमार के आंख-कान बन गए. 2010 में नीतीश ने उन्हें राज्यसभा भेजा. 2016 में वे पार्टी की ओर से दोबारा राज्यसभा पहुंचे और शरद यादव की जगह राज्यसभा में पार्टी के नेता भी मनोनीत किए गए. इसके बाद जेडीयू की कमान भी आरसीपी को भी सौंप दी, लेकिन वह दिल्ली की सियासत में खुद को मजबूत करने में जुट गए.
नीतीश के न चाहते हुए आरसीपी सिंह मोदी सरकार में केंद्र मंत्री बने, लेकिन इसी के बाद उनसे जेडीयू की कमान लेकर ललन सिंह को सौंप दी गई. राज्यसभा में भी तीसरी बार नहीं भेजा तो आरसीपी बागी हो गई. इसके बाद जेडीयू से बाहर होने के बाद आरसीपी ने नीतीश पर जमकर निशाना साधा, पर आज सियासी तौर पर बियाबान में है. आरसीपी सिंह को न बीजेपी ने लिया और न ही वह जेडीयू के नेताओं को तोड़कर साथ लेकर आए. इस तरह से वह बिहार की सियासत में गुमनाम हैं.
दिग्विजय सिंह से लेकर अली अनवर तक
बिहार की सियासत में दिग्विजय सिंह का अपना सियासी कद रहा है. समाजवादी राजनीति के बड़े चेहरे माने जाते थे. अटल सरकार में विदेश राज्यमंत्री रह चुके हैं और नीतीश कुमार के करीबी नेता माने जाते थे. 2009 के लोकसभा चुनाव में नीतीश ने दिग्विजय सिंह को बांका से टिकट नहीं दिया, जिसके बाद निर्दलीय चुनाव लड़कर जीतने में सफल रहे. हालांकि, इसके बाद खुद को स्थापित नहीं कर सके. ऐसे ही अली अनवर जेडीयू में कभी पसमांदा सियासत के मुस्लिम चेहरे थे, जो नीतीश के करीबी नेताओं में गिने जाते थे. नीतीश कुमार ने उन्हें राज्यसभा भेजा, लेकिन शरद यादव के साथ नजदीकियां बढ़ाई तो उन्हें भी बाहर का रास्ता दिखा दिया. अली अनवर बिहार की सियासत में पूरी तरह से गुमनाम जिंदगी जी रहे हैं.
कुशवाहा से मांझी तक को बाहर का दिखाया रास्ता
उपेंद्र कुशवाहा एक समय नीतीश कुमार के सबसे करीबी नेताओं में रहे हैं. नीतीश-कुशवाहा ने मिलकर बिहार की सियासत में लवकुश का फॉर्मूला तैयार किया था. उपेंद्र कुशवाहा ने जैसे ही तेवर दिखाए तो 2007 में उन्हें नीतीश ने पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया. 2009 में जेडीयू में फिर से लौटे, लेकिन 2013 में अलग होकर अपनी पार्टी बना ली. कुशवाहा ने ऐसे में अपनी पार्टी बनाकर बीजेपी से चुनाव लड़ा और केंद्र में मंत्री बने, लेकिन 2019 के चुनाव में दो सीट से लड़े और दोनों पर हार गए. 2020 के चुनाव में कुशवाहा की पार्टी का खाता भी नहीं खुल सका, जिसके बाद नीतीश के साथ फिर आ गए. ऐसे में एक बार बागी हो गए हैं.
जीतनराम मांझी ने अपनी राजनीति कांग्रेस से शुरू की, लेकिन सियासी पहचान जेडीयू में मिली. नीतीश कुमार ने उन्हें अपनी जगह बिहार की सत्ता सौंपी, लेकिन जब मांझी ने खुद को मजबूत किया तो उन्हें हटाने में भी देर नहीं की. मांझी ने 2015 के चुनाव में अपनी पार्टी बनाकर एनडीए के साथ चुनाव लड़े पर जीत नहीं सके. इसके बाद 2020 में नीतीश कुमार के साथ गठबंधन कर लिया. ऐसे ही अरुण कुमार सिंह जेडीयू में कभी ताकतवर नेता हुआ करते थे. लोकसभा सदस्य रहे, पर कुशवाहा के साथ जाकर आरएलएसपी का गठन किया. इन दिनों कुशवाहा के साथ उनके छत्तीस के आंकड़े हैं. इस तरह से नीतीश से बागवत कर ये नेता अपनी राजनीति नहीं खड़ी कर सके.