बिहार की सत्ता पर नीतीश कुमार भले ही काबिज हो गए हैं, लेकिन पहले से उनकी सियासी ताकत कमजोर हुई है. जेडीयू बिहार में तीसरे नंबर की पार्टी है. वहीं, अपनी अलग सियासी राह तलाशने के लिए निकले उपेंद्र कुशवाहा का हाथ खाली है. पिछले तीन चुनाव से अलग-अलग गठबंधन के जरिए अपनी ताकत को भांपने की कोशिश में लगे कुशवाहा कोई करिश्मा नहीं दिखा सके हैं. ऐसे में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और आरएलएसपी अध्यक्ष उपेंद्र कुशवाहा की मुलाकात से बिहार में नए राजनीतिक समीकरण को लेकर सियासी कयास लगाए जा रहे हैं. ऐसे में सवाल उठता है नीतीश-कुशवाहा साथ आते हैं तो क्या फिर लव-कुश फॉर्मूले को बिहार की जमीन पर उतार पाएंगे?
बिहार की सियासत में पिछले डेढ़ दशक से एक धुरी पर टिके नीतीश कुमार अपने विरोधियों को लगातार पटखनी देते रहे हैं. इस बीच में उनके कई साथी आए और चले गए. कई साथी ही दुश्मन बन गए और विपक्ष में चले गए. इसी फेहरिस्त में उपेंद्र कुशवाहा का नाम भी है. उपेंद्र कुशवाहा को पहली दफा नीतीश कुमार ने ही विधानसभा में विपक्ष का नेता बनाया था, लेकिन बाद में उन्होंने न सिर्फ नीतीश से नाता तोड़ा बल्कि वो सियासी तौर पर एक दूसरे के दुश्मन भी बन बैठे. हालांकि, अब वक्त और सियासत ने उन्हें ऐसी जगह खड़ा कर दिया है कि दोनों एक बार फिर नजदीक आने लगे हैं.
बिहार चुनाव के बाद से आरएलएसपी प्रमुख उपेंद्र कुशवाहा मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को लेकर नरम रुख अपनाए हुए हैं. इसके अलावा गुरुवार को दोनों नेता मिले हैं. नीतीश और कुशवाहा की मुलाकात के बड़े राजनीतिक निहितार्थ हैं. कुशवाहा जेडीयू से अपनी अलग पार्टी बनाकर कोई करिश्मा नहीं दिखा सके हैं. वहीं, पिछड़ी जातियों और अल्पसंख्यक समुदाय के बीच इस चुनाव में नीतीश कुमार की लोकप्रियता में गिरावट आई है, जिससे जेडीयू का राजनीतिक आधार खिसका है. मगध और सीमांचल क्षेत्र में जेडीयू को नुकसान उठाना पड़ा है और इस बार जेडीयू को महज 43 सीटें ही मिली है. ऐसे में नीतीश और कुशवाहा के बीच नजदीकियां बढ़ रही हैं. माना जा रहा है कि एक बार फिर से दोनों एक साथ आ सकते हैं.
बिहार में लव-कुश फॉर्मूला
बता दें कि बिहार की राजनीति में लंबे समय तक अगड़ों ने ही राज किया है. आजादी से पहले ही बिहार में अगड़ों के खिलाफ त्रिवेणी संघ बना था, जिसे कुशवाहा, कुर्मी और यदुवंशियों ने मिलकर बनाया था. बिहार में कुर्मी और यदुवंशी सत्ता में रहे हैं, लेकिन उसे कुर्सी तक पहुंचाने में कुशवाहा का अहम योगदान रहा है. लालू यादव से लेकर नीतीश कुमार तक माथे पर राजतिलक कुशवाहा समुदाय के चलते ही लगा है.
1990 में बिहार में त्रिवेणी संघ की सर्वाधिक जनसंख्या वाली बिरादरी यानी यादव को बिहार की सत्ता के नेतृत्व का अवसर मिला. इसके बाद नीतीश कुमार ने कुर्मी और कुशवाहा समीकरण के जरिए बिहार में अपनी जड़े जमाई. इसके लिए नीतीश ने पटना के गांधी मैदान में कुर्मी और कोइरी समुदाय की बड़ी रैली की थी, जिसे उन्होंने लव-कुश का नाम दिया था. यह पहली बार था जब नीतीश कुमार ने लालू यादव के सामने खुद को स्थापित किया था और चुनौती दी थी.
नीतीश ने कुशवाहा को बढ़ाया
नीतीश कुमार ने 2003 में रेल मंत्री रहते हुए बिहार के मुख्य विपक्षी पार्टी की कुर्सी पर उपेंद्र कुशवाहा को बैठाने का काम किया है. कुशवाहा को प्रतिपक्ष का नेता बनाकर नीतीश ने बिहार में लव-कुश यानी कुर्मी-कोइरी (कुशवाहा) समीकरण को मजबूत किया. इस समीकरण की बुनियाद के साथ बीजेपी से गठबंधन की राजनीतिक अहमियत को देखते हुए उनका प्रयोग सफल रहा. इसी फॉर्मूले के जरिए नीतीश ने 2005 में बिहार की सत्ता की कमान संभाली थी.
बिहार के सीएम नीतीश कुमार लव-कुश समीकरण के सहारे खुद को सत्ता के करीब रखा है. लेकिन इस समीकरण में लव को जबरदस्त फायदा मिला तो कुश में नाराजगी दिखी. कुशवाहा समाज के लोगों के बीच में आक्रोश इस बात को लेकर है कि एक तरफ 2.5 प्रतिशत संख्या वाला 11 प्रतिशत वालों पर इमोशनल शोषण कर सीएम की कुर्सी पाई है. 1994 से लेकर 2005 तक के सफर में एकतरफ कुर्मी समाज अपने चरम सीमा पर पहुंच गया वहीं कुशवाहा समाज पिछलग्गू बनकर रह गया है.
जेडीयू से अलग कुशवाहा ने बनाई पार्टी
राजनीतिक महत्वाकांक्षा के चलते उपेंद्र कुशवाहा ने 2011 में राज्यसभा और जेडीयू से इस्तीफा देकर राष्ट्रीय लोक समता पार्टी का गठन कर लिया. 2014 में बीजेपी के साथ साथ गठबंधन किया और जीतकर केंद्र में मंत्री बने. हालांकि, नीतीश की एनडीए में दोबारा से एंट्री होने के बाद उपेंद्र कुशवाहा साइड लाइन हो गए. ऐसे में 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले कुशावाहा ने एनडीए से अलग होकर महागठबंधन का हिस्सा बन गए, लेकिन 2020 में वहां भी नहीं रह सके और अलग अपना गठबंधन बनाकर चुनाव लड़े.
बता दें कि उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी को 2015 के विधानसभा चुनावों में कुशवाहा बिरादरी का भी साथ नहीं मिला. इसके अलावा 2019 के लोकसभा और 2020 के विधानसभा चुनाव में कुशवाहा की पार्टी का खाता नहीं खुल सका है. हालांकि, उपेंद्र कुशवाहा ने इस बार के चुनाव में 48 टिकट कुशवाहा समुदाय के लोगों को दिए थे, जिनमें से एक भी प्रत्याशी नहीं जीत सका. उपेंद्र कुशवाहा भले ही न जीते हों, लेकिन जेडीयू से महज एक कुशवाहा समाज का विधायक जीतकर आया है.
नीतीश कुमार ने सत्ता में कुशवाहा समीकरण को साधने के लिए अपने विधायक मेवालाल चौधरी को मंत्री बनवाया, लेकिन भ्रष्टाचार के आरोपो के चलते उन्हें इस्तीफा देना पड़ गया. ऐसे में नीतीश के पास कोई दूसरा कुशावाहा नेता फिलहाल नहीं है, जिसके जरिए कुशवाहा समाज को साधकर रख सके. उधर, उपेंद्र कुशवाहा को भी अपने सियासी वजूद को बचाए रखने की मजबूरी है. ऐसे में दोनों की मजबूरियां ने उन्हें पास आने का मौका दिया है.