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चट Entry-पट Exit… जेडीयू में क्या लेकर आए थे और क्या लेकर जा रहे हैं उपेंद्र कुशवाहा?

बिहार की सियासत में एक बार फिर से राजनीतिक उठापटक होने जा रही है. जेडीयू के बागी नेता उपेंद्र कुशवाहा सोमवार को पार्टी छोड़ने का ऐलान कर सकते हैं. बिहार चुनाव के बाद कुशवाहा ने अपनी पार्टी का जेडीयू में विलय किया था, लेकिन अब दो साल के बाद एक बार फिर से अलग रास्ते पर चलने का फैसला कर सकते हैं.

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उपेंद्र कुशवाहा और नीतीश कुमार
उपेंद्र कुशवाहा और नीतीश कुमार

बिहार की राजनीति में नीतीश कुमार गठबंधन को एकजुट रखने के लिए लगातार मशक्कत करते नजर आ रहे हैं, लेकिन अब उनकी पार्टी के उपेंद्र कुशवाहा ने बगावत का बिगुल फूंक दिया है. सोमवार को कुशवाहा औपचारिक रूप से जेडीयू से अलग होने की घोषणा और नए राजनीतिक ठिकाने का ऐलान कर सकते हैं. विधानसभा चुनाव के बाद मार्च 2021 में कुशवाहा ने अपनी पार्टी का जेडीयू में विलय करके नीतीश कुमार का दामन थामा था, लेकिन पार्टी में दो साल भी नहीं रह सके. नीतीश से उनका मोहभंग हो चुका है और अब फिर से जेडीयू को अलविदा कहने जा रहे हैं. ऐसे में उपेंद्र कुशवाहा जेडीयू में क्या लेकर आए थे और अब हासिल कर जा रहे हैं? 

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कुशवाहा का उतार-चढ़ाव भरा सफर

उपेंद्र कुशवाहा अपने साढ़े तीन दशक के सियासी सफर में कई उतार-चढ़ाव भरे दौर देख चुके हैं. इस दौरान कुशवाहा दो बार जेडीयू छोड़कर नई पार्टी बना चुके हैं, लेकिन दोनों बार सियासी हिट-विकेट हो गए और अब तीसरी बार नई राजनीतिक पारी खेलने के मूड में हैं. कुशवाहा अपने पूरे राजनीतिक जीवन में विधानसभा और लोकसभा के नजरिए से सिर्फ दो ही बार चुनाव जीत सके हैं. पहली बार वे 2000 में समता पार्टी के उम्मीदवार के तौर पर वैशाली की जंदाहा विधानसभा सीट से जीतकर विधायक बने थे और दूसरी बार 2014 लोकसभा चुनाव में काराकाट सीट से सांसद चुने गए थे. इसके अलावा हमेशा विधान परिषद और राज्यसभा सदस्य ही चुने जाते रहे हैं, जिसके चलते उनको चारों सदनों का सदस्य होने का गौरव प्राप्त हुआ.

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 कुशवाहा को नहीं मिली एक भी सीट

कुशवाहा ने एनडीए का साथ छोड़ने के बाद आरजेडी से सटे, लेकिन विधानसभा सीट बंटवारे को लेकर उनकी बात नहीं बनी. इसके बाद तब उन्होंने बीएसपी, एआईएमआईएम एसजेडीपी, ओपी राजभर की पार्टी के साथ मिलकर ग्रैंड डेमोक्रिटिक सेक्युलर फ्रंट के नाम से तीसरा मोर्चा बनाकर चुनाव लड़ा और खुद गठबंधन के सीएम फेस बने. कुशवाहा की पार्टी 99 सीटों पर चुनाव लड़ी और एक भी सीट जीतने में कामयाब नहीं हुई, जबकि ओवैसी की पार्टी सिर्फ 20 सीटों पर चुनाव लड़कर 5 सीटें जीतने में सफल रही और बसपा के भी एक विधायक बने. कुशवाहा की पार्टी का वोट शेयर गिरकर दो फीसदी से भी कम रह गया.

खाली हाथ जेडीयू में आए कुशवाहा
बिहार विधानसभा चुनाव के बाद उपेंद्र कुशवाहा खाली हाथ रह गए थे और 14 मार्च 2021 को अपनी पार्टी आरएलएसपी का जेडीयू में विलय कर दिया था. नीतीश ने जिस वक्त उन्हें लिया था, उस समय उपेंद्र कुशवाहा की राजनीतिक हैसियत काफी कमजोर हो चुकी थी. उनके पास न तो लोकसभा में कोई सीट, न विधानसभा में. उनकी पार्टी के जिला स्तर के लोग भी आरजेडी में शामिल हो चुके थे. आरएलएसपी में कुशवाहा ही अकेले बचे हुए थे और वो जेडीयू में वापसी कर गए. जिस दिन यह कार्यक्रम होना था, उस दिन कुशवाहा से पहले ही नीतीश कुमार पार्टी दफ्तर पहुंच गये थे. जेडीयू के दूसरे दर्जे के नेता कुशवाहा की आगवानी करने बाहर खड़े थे. 

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उपेंद्र कुशवाहा ने अपनी पार्टी का जेडीयू में विलय करते वक्त इसे राज्य और देश हित में बताया था. तब उन्होंने कहा था, 'नीतीश कुमार मेरे बड़े भाई की तरह हैं और मैं व्यक्तिगत रूप से उनका सम्मान करता हूं.' वहीं, नीतीश कुमार ने भी कुशवाहा को गले लगाया और उन्हें राज्यपाल कोटे से एमएलसी बना दिया गया. इस तरह उपेंद्र कुशवाहा बिहार के उन नेताओं में शुमार हो गये, जिन्हें चारों सदनों का सदस्य होने का गौरव प्राप्त है. चारों सदनों का सदस्य रहने वाले वे बिहार के चौथे नेता हैं. इससे पहले नागमणि, लालू प्रसाद यादव और सुशील मोदी को भी यह गौरव मिला. 

कुशवाहा की उम्मीदों पर फिरा पानी
लेक्चरर की नौकरी छोड़ कर पॉलिटिक्स में आए उपेंद्र कुशवाहा को राजनीतिक पहचान नीतीश कुमार के सहारे मिली. पहली बार विधायक भी नीतीश की पार्टी से बने, विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष की कुर्सी से लेकर राज्यसभा सदस्य तक जेडीयू से बने. मार्च 2021 में जेडीयू में अपनी पार्टी का विलय किया तो नीतीश ने उपेंद्र कुशवाहा को जेडीयू के संसदीय बोर्ड का अध्यक्ष बना दिया और बाद में बिहार विधान परिषद का सदस्य बनाया, लेकिन उनकी एक बार फिर 'पद से जुड़ी' राजनीतिक महत्वाकांक्षा ने ही नीतीश कुमार से दूरी की वजह माना जा रहा है.

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जेडीयू में एंट्री करने के बाद उपेंद्र कुशवाहा को उम्मीद थी कि नीतीश कैबिनेट में उन्हें मंत्री के तौर पर शामिल किया जाएगा, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ. कुशवाहा ने जब विलय किया था तो नीतीश कुमार एनडीए के साथ थे, लेकिन अब महागठबंधन का हिस्सा हैं. बीजेपी का साथ छोड़ नीतीश जब महागठबंधन के साथ चले गए, तब कुशवाहा के मंत्री बनने की प्रबल संभावना थी, पर, यहां भी भाग्य ने उनका साथ नहीं दिया. ऐसे में कुशवाहा खुद को सूबे में उपमुख्यमंत्री के तौर पर देख रहे थे और इस सवाल पर उन्होंने कहा था कि वह संन्यासी तो नहीं हैं. कुशवाहा के डिप्टी सीएम बनाए जाने की चर्चा तेज हो गई थी, लेकिन नीतीश कुमार ने उससे भी इनकार कर दिया है. 

नीतीश कुमार ने बिना पूछे डिप्टी सीएम के मुद्दे पर बयान दिया था कि उनकी ऐसी कोई योजना नहीं है और बिहार में तेजस्वी यादव के अलावा दूसरा उपमुख्यमंत्री नहीं होगा. यह उपेंद्र कुशवाहा को नीतीश की तरफ से सीधा इशारा था. इसके बाद उपेंद्र कुशवाहा के लिए जेडीयू में तब तक किसी बड़े पद की उम्मीद पर पानी फिर गया जब राजीव रंजन उर्फ ललन सिंह को जेडीयू का दूसरी बार अध्यक्ष बना दिया. इस तरह से कुशवाहा को न तो मंत्री बनाया गया, न ही डिप्टी सीएम की कुर्सी मिली और न ही जेडीयू की कमान हाथ आई. ऐसे में उपेंद्र कुशवाहा एक बार फिर जेडीयू के भीतर खुद को असहज महसूस करने लगे थे. 

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कुशवाहा अब खाली हाथ जेडीयू से बाहर
जेडीयू में करीब दो साल रहने के बाद एक बार फिर से उपेंद्र कुशवाहा का नीतीश कुमार से सियासी मोहभंग हो चुका है और वो जेडीयू से बाहर जाने का फैसला कर सकते हैं, जिसकी घोषणा सोमवार को कर सकते हैं. कुशवाहा अपने समर्थकों के साथ बैठक पर मंथन कर मना बना लिए हैं. माना जा रहा है कि वह नई पार्टी बना सकते हैं. कुशवाहा अपने एग्जिट प्लान की ओर बढ़े उससे पहले जेडीयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजीव रंजन उर्फ ललन सिंह ने रविवार को उनसे यह खुलासा करने के लिए कहा कि क्या बीजेपी नेताओं से मिलने के लिए दिल्ली की उनकी हालिया यात्राएं फलदायी रही हैं. 

कुशवाहा के पास न तो नेता बचे हैं और न ही जेडीयू का कोई विधायक-सांसद आए हैं. आरएलएसपी से सांसद रहे अरुण कुमार भी अब उनके साथ नहीं है. कुशवाहा के साथ जुड़े रहे तमाम नेता भी साथ छोड़ चुके हैं. इस तरह कुशवाहा दो साल पहले जेडीयू में खाली हाथ आए थे और दो साल बाद अब पार्टी को अलविदा कह कह रहे हैं तो खाली हाथ ही वापस जा रहे हैं, क्योंकि जेडीयू से कोई बड़ा नेता उनके साथ खड़ा दिखाई नहीं दे रहा है. इतना ही नहीं कुशवाहा के साथ उनके जाति कोइरी समुदाय के भी नेता साथ नहीं दिख रहे हैं. ऐसे में कुशवाहा को 2014 की तरह बीजेपी भाव देगी, इसमें संदेह लगता है. 

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