बिहार के राजनीतिक गलियारे में ठाकुर बनाम ब्राह्मण विवाद गरमाया हुआ है. राज्यसभा में आरजेडी नेता मनोज झा का 'ठाकुर का कुआं' कविता पाठ करने से खुद उनकी ही पार्टी के नेता नाराज हैं और चुनौती दे रहे हैं. पूर्व सांसद आनंद मोहन, उनके विधायक बेटे RJD नेता चेतन आनंद और बेटी सुरभि आनंद ने मनोज झा पर भड़ास निकाली है. हालांकि, आरजेडी अब मनोज झा के समर्थन में आ गई और कविता को जाति से ना जोड़ने की नसीहत दे दी है. इतना ही नहीं, इस कविता का विरोध करने वाले आनंद मोहन फैमिली को भी सीधे तौर पर एहसान भी गिना दिए हैं.
ऐसे में बिहार में आनंद मोहन परिवार फिर चर्चा में हैं. राज्य में आनंद मोहन और चेतन आनंद फैमिली की सियासी ताकत क्या है? जिन्होंने ठाकुर विवाद पर सीधे अपनी ही पार्टी आरजेडी से पंगा ले लिया है. जानिए...
15 साल बाद जेल से रिहा हुए आनंद मोहन
बिहार में आनंद मोहन बाहुबली नेता के तौर पर पहचाने जाते हैं. वे इसी साल मई में करीब 15 साल बाद जेल की सलाखों से बाहर निकले हैं. आनंद मोहन पर 1994 में गोपालगंज के तत्कालीन जिलाधिकारी जी कृष्णैया की हत्या का आरोप लगा था. जी कृष्णैया जब मुजफ्फरपुर जिले से गुजर रहे थे, तभी भीड़ ने हमला बोल दिया. पिटाई की गई और गोली भी मारी गई थी. आरोप था कि उस भीड़ को बाहुबली आनंद मोहन ने उकसाया था. पुलिस ने आनंद मोहन और उनकी पत्नी लवली समेत 6 लोगों को नामजद किया था. मामले में आनंद मोहन को पहले फांसी और फिर सजा बदलकर उम्रकैद हुई थी. हाल ही में बिहार सरकार ने कानून में संशोधन कर आनंद मोहन को रिहा कर दिया. इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई और मामले में सुनवाई चल रही है.
'बाहुबली और राजपूत नेता के तौर पर पहचान'
आनंद मोहन (67 साल) खुद शिवहर इलाके से सांसद रहे हैं. उन्हें कोसी का बाहुबली और राजपूत समाजवादी नेता भी माना जाता है. आनंद की पत्नी लवली आनंद भी सांसद चुनी गईं. इस समय उनके बेटे चेतन आनंद आरजेडी कोटे से शिवहर सीट से विधायक हैं. आनंद की एक बेटी सुरभि आनंद भी हैं. दो दशक बाद एक बार फिर आनंद सक्रिय राजनीति में उतरने की तैयारी में हैं.
90 के दशक में खूब था आनंद मोहन का रसूख...
आनंद मोहन मूलत: बिहार के सहरसा जिले के नवगछिया गांव के रहने वाले हैं. उनका परिवार स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सा ले चुका है. दादा राम बहादुर सिंह स्वतंत्रता सेनानी थे. जेपी आंदोलन के प्रभाव से आनंद मोहन भी अछूते नहीं रहे. इमरजेंसी के दौरान दो साल तक जेल में भी रहे. उसके बाद अस्सी के दशक में उन्होंने अपनी दबंगई शुरू कर दी. आनंद मोहन पहली बार 1990 में महिषी सीट से जनता दल से चुनाव जीते और विधायक बने थे. इससे पहले उन्होंने समाजवादी क्रांतिकारी सेना नाम से एक संगठन बनाया था. ये संगठन आनंद की प्राइवेट आर्मी की तरह काम करता था. संगठन में कोसी इलाके के ज्यादातर राजपूत नवयुवक शामिल थे. कहा जाता है कि 1990 के दशक में आनंद मोहन बिहार में सबसे ज्यादा लोकप्रिय नेताओं में गिने गए.
ऐसे लगा पॉलिटिकल करियर पर लगा ग्रहण?
कहा जाता है कि तब आनंद मोहन के एक भाषण से भूमिहार और राजपूतों वोटरों के वोट तय होते थे. बाद में 1996 में वो शिवहर सीट से सांसद चुने गए. लेकिन, उससे पहले यानी 1994 में गोपालगंज डीएम की हत्या ने उनके राजनीतिक करियर पर ग्रहण लगा दिया. आनंद मोहन पर पहले केस हुआ. फिर जेल भेजा गया. बाद में आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई. अब तीन दशक बाद एक बार फिर आनंद मोहन के उसी राजनीतिक रसूख के सियासी लाभ उठाए जाने की तैयारी है. हालांकि, बिहार की राजनीतिक दशा और दिशा दोनों ही बदल गई है.
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कैसे राजनीतिक करियर को मिली उड़ान?
90 के दशक में जब मंडल कमीशन बनाम मंदिर की राजनीति अपने चरम पर थी, तब लालू प्रसाद यादव ने इस कमीशन का समर्थन किया था. जबकि आनंद मोहन ने खुलकर इसका विरोध जताया था. जब जनता दल ने सरकारी नौकरियों में मंडल कमीशन की 27 फीसदी आरक्षण वाली बात का समर्थन किया तो आनंद मोहन ने अपनी राह अलग कर ली और सवर्णों के हक में आवाज उठानी शुरू कर दी. आनंद मोहन ने अपनी सियासी ताकत को आजमाने के लिए खुद की पार्टी बनाई, लेकिन कुछ सालों में ही खुमार उतर गया और फिर दूसरे दलों का दामन थामकर अपनी राजनीति को आगे बढ़ाने लगे. आनंद मोहन बिहार के हर एक दल में रह चुके हैं. जनता दल से लेकर समता पार्टी, आरजेडी, बीजेपी, कांग्रेस और सपा तक के साथ उनका नाता रहा है.
ससुराल से संसद तक
1991 में लवली आनंद से शादी करने के दो साल बाद आनंद मोहन ने बिहार पीपुल्स पार्टी नाम के नए दल का गठन किया. इस पार्टी ने आरक्षण का विरोध किया. यहां आनंद मोहन ने भूमिहार और राजपूत जाति को एक मंच पर लाने का काम किया. उसके बाद 1994 में हुए लोकसभा चुनाव में आनंद मोहन ने समता पार्टी के उम्मीदवार के रूप में पत्नी लवली आनंद को वैशाली सीट से उम्मीदवार बना दिया. उनके जीवन का सबसे महत्वपूर्ण पड़ाव तब आया, जब वैशाली लोकसभा उपचुनाव में उनकी पत्नी लवली आनंद आरजेडी उम्मीदवार को हराकर संसद पहुंचीं.
तीन जगह से मिली हार
1995 में जब आनंद मोहन की चर्चा हर तरफ हो रही थी और उनकी लोकप्रियता चरम पर थी तो उन्होंने तीन जगहों से विधानसभा का चुनाव लड़ा और हर जगह से शिकस्त का सामना करना पड़ा. इसके बाद 1996 में आनंद मोहन समता पार्टी में शामिल हो गए और चुनाव भी लड़ा लेकिन हार गए. जिसके बाद उनका पार्टी से मोहभंग हो गया. दो साल बाद यानि 1998 में आनंद मोहन ने लालू प्रसाद यादव की आरजेडी का दामन थाम लिया और शिवहर सीट से लोकसभा का टिकट भी मिल गया और जीत हासिल कर संसद पहुंच गए. बाद में 1999 में बीजेपी में शामिल हुए औरे शिवहर से लोकसभा चुनाव लड़ा, लेकिन हार मिली. साल 2000 में कांग्रेस में शामिल हो गए. फिर 2004 का लोकसभा चुनाव लड़ा, लेकिन हार का सामना करना पड़ा.
पत्नी ने संभाली सियासी विरासत
आनंद मोहन के जेल जाने के बाद पत्नी लवली ने राजनीतिक विरासत संभाली और पति की तरह लगातार दल बदलती रहीं. लेकिन हर बार, हार का सामना करना पड़ा. जेल में बंद रहने के दौरान 2010 में पत्नी लवली आनंद ने कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ा लेकिन हार गईं. उसके बाद 2014 का लोकसभा चुनाव लवली आनंद ने समाजवादी पार्टी के टिकट पर लड़ा और यहां भी जीत नसीब नहीं हो पाई. बेटे चेतन आनंद इस समय आरजेडी से विधायक हैं और डिप्टी सीएम तेजस्वी यादव के करीबी माने जाते हैं.
जेल में भी जलवा रहा कायम
सजा के बाद भी जेल में आनंद मोहन के लिए किसी चीज की कमी नहीं रही, इसका खुलासा खुद आईपीएस अफसर अमिताभ दास ने किया है. पूर्व आईपीएस अमिताभ दास बताते हैं कि अक्टूबर 2021 में डीएम और एसपी सहरसा ने जब सहरसा जेल में छापेमारी की थी तो आनंद मोहन के पास से कई आपत्तिजनक चीजें बरामद हुई थीं और एक मोबाइल भी उनके पास से बरामद हुआ था. उन्होंने बड़ा आरोप लगाते हुए कहा कि नीतीश सरकार ने एफआईआर दबा ली.
रसूख में आज भी कोई कमी नहीं
आनंद मोहन का राजनीतिक रसूख आज भी वैसा ही है, जो जेल जाते समय था. हर दल ने उनकी रिहाई का समर्थन किया. उनके तेवर में भी नरमी नहीं है. जिस पार्टी आरजेडी ने सरकार में आने पर सबसे पहले कानून में बदलाव कर आनंद मोहन को जेल से बाहर निकलवाने में मदद की, आज उसी पार्टी के नेता पर तल्ख बयानबाजी देखने को मिल रही है. हालांकि, पार्टी प्रवक्ता शक्ति यादव ने विवाद बढ़ने पर आनंद मोहन फैमिली को एहसान गिना दिए हैं.
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खुले में सांस कैसे ले रहे... पता नहीं है क्या?
आज राजद की वजह से खुले में सांस ले रहे हैं. किस गर्त में थे, कोई पूछता था क्या? हमने (राजद) सम्मान दिया. पहचान दिया है. नई राह दी है. उन्होंने कहा कि मनोज झा ने कुछ गलत नहीं कहा है. समाज में जो लोग अत्याचार कर रहे हैं, उसे बताया है. कुछ लोग कहां हैं, क्या कर रहे हैं- पता नहीं है? और जो क्षत्रिय समाज (राजपूत) है, उसे पता नहीं है कि आदमी खुले में सांस कैसे ले रहे हैं? शक्ति ने कहा, हमने चेतन से, चेतन आनंद बनाया. किस गर्त में लोग थे और हवा में सांस लेने के मोहताज थे- यह सब बताने की जरूरत है. लेकिन अगर कोई शब्दों के मर्म को समझे बिना अपनी अभिव्यक्ति देता है तो यह दुर्भाग्यपूर्ण है. समाजवाद कभी दबंगई प्रवृत्ति को स्वीकार नहीं करता है.
विवाद क्यों? किसने क्या कहा....
- दरअसल, 21 सितंबर को राज्यसभा में आरजेडी के सांसद मनोज झा ने ओमप्रकाश वाल्मीकि की एक कविता पढ़ी, इस कविता का नाम था- ठाकुर का कुआं. मनोज झा ने भाषण में कहा था कि हमें अंदर बैठे हुए ठाकुर को मारने की जरूरत है. मनोज के कविता पढ़ने के हफ्तेभर बाद अब इसे मुद्दा बना लिया गया है. आरजेडी के ही ठाकुर नेता कह रहे हैं कि मनोज झा ब्राह्मण हैं और उन्होंने ठाकुरों का अपमान किया है. जेडीयू के नेता भी मनोज झा पर हमला कर रहे हैं.
- आरजेडी विधायक चेतन आनंद ने कहा, समाजवाद के नाम पर किसी एक जाति को टारगेट करना दोगलापन है. ठाकुर समाज सभी को साथ लेकर चलता है. हम सदन में होते तो मनोज झा को ऐसा बोलने नहीं देते, हम ये सब बर्दाश्त नहीं करेंगे. मनोज झा के बयान से तेजस्वी यादव के राजद को A to Z की पार्टी बनाने के कदम को झटका लगा है. मनोज झा ब्राह्मण हैं इसीलिए उन्होंने ब्राह्मणों के खिलाफ किसी कविता का इस्तेमाल नहीं किया.
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- पूर्व सांसद आनंद मोहन ने कहा, अगर वे मनोज झा के भाषण के दौरान राज्यसभा में होते तो वे जीभ खींचकर आसन की ओर उछाल देते. वे ऐसे शख्स हैं जो अपनी ही सरकार के खिलाफ बंदूक उठाकर लड़े हैं ताकि आपकी अस्मिता की रक्षा की जा सके. अगर मैं होता राज्यसभा में तो जीभ खींचकर आसन की ओर उछालकर फेंक देता... सभापति के पास. ये अपमान नहीं चलेगा. ये बर्दाश्त नहीं होगा. हम जिंदा कौम के लोग हैं. अगर आप इतने बड़े समाजवादी हैं तो झा क्यों लगाते हैं. जिस सरनेम की आप आलोचना करते हैं उसको तो आप छोड़कर आइए.
- बीजेपी के ठाकुर विधायक भी नाराज हैं. विधायक नीरज कुमार बब्लू बोले कि अगर वह विधायक की जगह राज्यसभा सांसद होते और राज्यसभा में मौजूद होते तो वहीं मनोज झा का मुंह तोड़ देते. जेडीयू के MLC संजय सिंह ने तो यहां तक कह दिया कि क्षत्रिय गर्दन कटवा भी सकता है और काट भी सकता है इसलिए सोच समझकर बयानबाजी की जाए.
मनोज झा ने कवि ओम प्रकाश वाल्मीकि की क्या कविता पढ़ी थी?
'चूल्हा मिट्टी का, मिट्टी तालाब की, तालाब ठाकुर का
भूख रोटी की, रोटी बाजरे की, बाजरा खेत का, खेत ठाकुर का
बैल ठाकुर का, हल ठाकुर का,
हल की मूठ पर हथेली अपनी, फसल ठाकुर की
कुआं ठाकुर का, पानी ठाकुर का, खेत-खलिहान ठाकुर के,
गली-मोहल्ले ठाकुर के फिर अपना क्या?
वो ठाकुर मैं भी हूं, वो ठाकुर संसद में है
वो ठाकुर विश्वविद्यालयों में है
वो ठाकुर विधायिका को कंट्रोल करता है
इस ठाकुर को मारो, जो हमारे अंदर है.'
चेतन आनंद की बेटी सुरभि आनंद ने भी मनोज झा पर हमला बोला है. उन्होंने भी कविता के जरिए बात रखी है...
ठाकुर होना आसान नहीं होता!
"कभी कासिम तो कभी गजनी से भिड़ा ठाकुर!
हार तो तय थी... पर लड़ा ठाकुर!
हारना ही था उसे, वो अकेला लड़ा था,
क्या जन्मभूमि ये तुम्हारी नहीं थी?
फिर क्यों अकेला लड़ा ठाकुर?
बीवी सती हुई, बच्चे अनाथ!!
हिन्दू तो बचा पर, भरी जवानी में मरा ठाकुर!
सदियों से रक्त दे माटी को सींचा,
जन जन्मभूमि और धर्म की वेदी पर मिटा ठाकुर!
जिनके लिए सब कुछ खोया,
क्यों उनकी ही नजरों में बुरा? फिल्मों का ठाकुर!
कहानियों-किस्सों का ठाकुर!
कविताओं का ठाकुर!
जब दुबक बैठे थे घरों में सब तमाशबीन,
तब पीढियां युद्धभूमि में बलिदान कर रहा था ठाकुर,
आज बुद्धिजीवी पानी पी पीकर बरगलाते और कोसते कि आखिर कौन है ये ठाकुर..?
कौन बताए उन्हें कि कफन केशरिया करके,
मूंछों पर ताव देकर मौत को गले लगाने वाला जांबाज ही था ठाकुर."
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बिहार में राजपूत सियासत
बिहार में राजपूत एक प्रभावशाली जाति है, जिसके चलते सभी राजनीतिक दल इस समुदाय पर अपनी पकड़ मजबूत बनाए रखने की कवायद में है. राजपूतों की आबादी बिहार में करीब 6 से 8 फीसदी है. राज्य की करीब 30 से 35 विधानसभा सीटों और 7 से 8 लोकसभा सीटों पर राजपूत जाति जीत या हार में निर्णायक भूमिका निभाती रही है. यही वजह है कि सत्तापक्ष हो या विपक्ष दोनों इस जाति को समय-समय पर अपने फैसलों के जरिए अपने साथ लाने की कोशिश करती रहीं हैं. 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने 5 राजपूतों को टिकट दिया था और ये सभी जीतकर संसद पहुंचे थे. पूर्व चंपारण से राधामोहन सिंह , आरा से आरके सिंह, छपरा से राजीव प्रताप रूडी, औरंगाबाद से सुशील सिंह और महाराजगंज से जनार्दन सिग्रीवाल सांसद हैं. वहीं, 2020 के विधानसभा चुनाव में कुल 28 राजपूत विधायक जीते थे, जिनमें बीजेपी से 15, जेडीयू से 2, आरजेडी से 7, कांग्रेस से एक, वीआईपी से दो और एक निर्दलीय है.
बिहार में किस ओर है ठाकुर-ब्राह्मण वोट
बिहार की कुल जनसंख्या में से पांच फीसदी राजपूत और पांच फीसदी ही ब्राह्मण हैं. आरा, सारण, महाराजगंज, औरंगाबाद, वैशाली और बक्सर जिले में राजपूतों की पकड़ है. वहीं गोपालगंज, बक्सर, आरा, कैमूर, दरभंगा और मधुबनी जिले ब्राह्मण बहुल हैं. Lokniti-CSDS के सर्वे के मुताबिक, 2020 के विधानसभा चुनाव में 55 फीसदी राजपूत और 52 फीसदी ब्राह्मणों ने NDA को वोट किया है. वहीं, 9 फीसदी राजपूत और 15 फीसदी ब्राह्मणों ने महागठबंधन को वोट किया था. बिहार में दोनों जातियों के बीच बहस के बीच ये समझना भी जरूरी है कि लोकसभा चुनाव और विधानसभा चुनाव में इस विवाद का क्या असर हो सकता है. आंकड़ों की मानें तो दोनों ही जाति मुख्य तौर पर बीजेपी गठबंधन NDA का वोटबैंक रही हैं. लेकिन ठाकुरों का जो थोड़ा बहुत वोट RJD-JDU को मिलता रहा है, वह और कम हो सकता है.