बाढ़ का कहर बरपाने के लिए बदनाम कोसी नदी भले ही इस साल अब तक ज्यादा कहर न ढा पाई हो, मगर नेपाल में अगले सप्ताह होने वाली जोरदार बारिश के मौसम विभाग के पूर्वानुमान ने बिहार के लोगों की जान सांसत में डाल दी है. 'बिहार का शोक' यानी कोसी को लेकर यहां के लोग डरे-सहमे हुए हैं.
पड़ोसी देश नेपाल की धरती पर पड़ीं बारिश की चार बूंदें भी यहां के लोगों को सिहरा देती हैं, क्योंकि कोसी की धारा में परिवर्तन और तटबंध टूटने की अफवाह भी यहां के लोगों को अपने घर छोड़कर भागने को विवश कर देती है. कोसी का खौफ यहां के लोगों के दिलो-दिमाग पर छाया हुआ है. इसे कुछ लोग कोसी का कोप मानते हैं तो कुछ लोग सरकार की दोषपूर्ण रणनीति का नतीजा.
सरकार हर साल इन इलाकों में बाढ़ आने के बाद राहत व पुनर्वास की घोषणा करती रही है, परंतु आज भी लोगों को उन राहत और पुनर्वास योजनाओं का लाभ सही ढंग से पहुंचने का इंतजार है.
वर्ष 2008 में 18 अगस्त की रात के मंजर को यहां के लोग अब भी नहीं भूल सके हैं. कुसहा के तटबंधों को तोड़कर निकली कोसी ने राज्य के कई जिलों में जो तबाही मचाई थी, उस घाव पर आज तक मरहम नहीं लगाया गया है. जाहिर है, घाव अब भी हरे हैं. यह दीगर है कि काफी प्रयास के बाद कोसी की प्रचंड धाराओं को फिर से उन्हीं स्थानों पर बांध दिया गया है.
सुपौल जिले के निर्मली विधानसभा क्षेत्र के विधायक अनिरुद्ध प्रसाद यादव कहते हैं कि यहां के लोग बारिश होते ही दहशत में आ जाते हैं, मगर प्राकृतिक आपदा पर किसका वश चलता है.
यादव ने कहा कि नेपाल से सटे बिहार के इलाकों में बरसात के मौसम में अफवाह फैलाने वाले तत्व भी सक्रिय हो जाते हैं. विधायक ने बताया कि प्रशासन इन इलाकों में बाढ़ से निपटने की पूरी तैयारी कर चुका है.
लोग ईश्वर से प्रार्थना करते रहते हैं कि कोसी की प्रलंयकारी धारा उनके गांव की तरफ नहीं आए. लोग मान चुके हैं कि कोसी की धारा को रोकना सरकार या किसी मानव के वश की बात नहीं है. इसे तो भगवान ही रोक सकते हैं.
सुपौल निवासी शिवनंदन साह ने बताया कि इस साल मानसूनी बारिश के बाद कोसी, जिले के सदर प्रखंड के बलवा गांव के अस्तित्व को मिटाने पर आमादा है. कोसी के तांडव के बीच लगभग 300 परिवारों के 400 घर बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो चुके हैं. हजारों हेक्टेयर में लगी लहलहाती फसल को कोसी ने बर्बाद कर दिया है. लोग जान बचाने के लिए गांव छोड़ पलायन कर रहे हैं.
एक अन्य ग्रामीण की मानें तो कोसी के कटाव के कारण दो-तीन गांव तो कोसी के गर्भ में समा भी चुके हैं. अब यहां के निवासियों के लिए स्थायी तौर पर विस्थापन की समस्या आ गई है. वे कहते हैं कि बाढ़ से निबटने के लिए प्रशासन ने दावे तो अवश्य किए हैं, लेकिन जब स्थिति खराब होती है तो उनके दावों की कलई खुल जाती है. वे कहते हैं कि प्रशासन अगर नावों की व्यवस्था रखे तो आधी परेशानी दूर हो सकती है.
इन इलाकों में ऐसे लोग भी हैं कि जिनके खेतों में आज भी तीन वर्ष से बालू (रेत) भरी है. वीरपुर के लोगों ने बताया कि अभी भी उनके खेतों में बालू का ढेर जमा है. उन्होंने कहा कि सरकार ने पीड़ितों के लिए कुछ राहत सामग्री तो अवश्य भेजी है, मगर बालू के ढेरों के कारण उन्हें अपना भविष्य 'रेत की दीवार' लगने लगा है.
कोसी त्रासदी के भले ही पांच वर्ष गुजर गए हों, लेकिन यहां के लोगों के 'जख्म' इतने गहरे हो चुके हैं कि उन पर कोई 'मरहम' भी कारगर साबित नहीं हो रहा है.