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दिल्ली में 'नेता' बना JNU का कन्हैया, क्या सोचता है बेगूसराय?

बेगूसराय के सबसे बड़े गांवों में एक बीहट के मसनदपुर टोला में कन्हैया का घर है. ताजा विवाद पर गांव और जिले के लोग कन्हैया को लेकर पहले नाराज और अब असमंजस में फंसे महसूस कर रहे हैं.

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देश के नामचीन संस्थानों में एक जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी के अध्यक्ष पद पर चुने जाने के बाद कन्हैया को लेकर बिहार के बेगूसराय जिले में स्वागत और गर्वीले अपनापन का एहसास उपजा और फैला था. जिले के सबसे बड़े गांवों में एक बीहट के मसनदपुर टोला में कन्हैया का घर है. ताजा विवाद पर गांव और जिले के लोग कन्हैया को लेकर पहले नाराज और अब असमंजस में फंसे महसूस कर रहे हैं.

विवाद के बाद बढ़ी अभिभावकों की चिंता
देश का पिछड़ा राज्य माना जाने वाले बिहार से हर साल लाखों छात्रों के पलायन के लिए अभिशप्त है. पेशेवर और उच्च शिक्षा के साथ ही कैरियर के दूसरे विकल्पों के लिए नौजवानों का देश की राजधानी दिल्ली और अन्य महानगरों की ओर रुख करना नई बात नहीं है. राजनीतिक तौर पर दिल्ली की बेहद सक्रियता को लेकर इन छात्रों के घर वालों के मन की शंकाएं किसी से छुपी नहीं. जेएनयू मामले के बाद अभिभावकों का डर इस बारे में और बढ़ गया है. अपने घर से बात करने वाले स्टूडेंट इसे साफ महसूस कर पा रहे हैं.

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रोमांटिक राजनीति के हालिया उभार का फौरी असर
कन्हैया की तरह ही उससे पहले और बाद में बेगूसराय से बड़ी संख्या में नौजवान ऊंचे सपनों के साथ दिल्ली आते रहे हैं. वे सब पढ़ते, कमाते, घर को मिस करते और राजनीतिक तौर पर जाने-अनजाने अपनी मजबूत राय रखते हैं. जेएनयू में देशद्रोही नारेबाजी, कन्हैया की गिरफ्तारी, तिहाड़ में 21 दिन की कैद, पेशी के दौरान पटियाला हाउस कोर्ट कैंपस में मारपीट, सशर्त जमानत और बाद में राजनीतिक स्टंट से उन सबकी सोच पर असर पड़ा है. उनमें से कुछ हैं जो रोमांटिक राजनीति के हालिया उभार से प्रभावित हैं, और कुछ हैं जो इससे पूरे तौर पर उलट राय रखते हैं.

कन्हैया के भाषण को कोई अतिरिक्त अंक नहीं
सेडिशन को देशद्रोह या राजद्रोह कुछ भी कह लीजिए. कोर्ट में विचाराधीन केस को लेकर किसी टिप्पणी से बचते हुए भी कन्हैया को लेकर एक राय बनती नहीं दिखती. बेगूसराय में न तो केस के सामने आते ही कन्हैया को तुरंत दोषी मान लिया गया था और न ही उसे जमानत मिल जाने के बाद बेगुनाह मानने की जल्दबाजी की गई. असहमति के अधिकार की बात, केंद्र सरकार और नरेंद्र मोदी पर जुबानी हमला, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद पर निशाना जैसी बातों को लेकर बेगूसराय में कोई कन्हैया को अतिरिक्त अंक देने के पक्ष में नहीं है. जिले के लिए यह कोई नई बात नहीं.

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वामपंथियों के पाले बदलने का रहा इतिहास
बेगूसराय जिले को राजनीतिक चर्चाओं में बिहार का लेनिनग्राद, मिनी मास्को और वामपंथ की प्रयोगशाला वगैरह कई नाम दिए गए. एक दौर था जब जिले में विधानसभा की सातों सीट पर वामपंथी दलों के प्रतिनिधि चुने गए थे. इन दलों से निकले निर्दलीय उम्मीदवार भी चुनाव जीतकर आगे बढ़े. इन्हीं वामपंथी दलों से लोग कांग्रेस, बीजेपी, जेडीयू, आरजेडी, एलजेपी दलों में भी गए. बीजेपी में आकर दो वामपंथी नेता विधायक, मंत्री और सांसद भी बने. पंचायत और नगर निकाय चुनावों में भी वामपंथ की खास धमक दिखती रही.

नहीं मिला विवाद का राजनीतिक माइलेज
इन दिनों तक बेगूसराय से गुजरनेवाली गंगा, बूढ़ी गंडक, चंद्रभागा, बलान जैसी नदियों से काफी पानी बह चुका है. वामपंथ की थोड़ी-बहुत ताकत अब यहां रैलियों में दिखती है. चुनावों में गणितीय आंकड़ों के मद्देनजर इसकी चर्चा होती है. वामपंथी छात्र संगठनों से निकले कई छात्र नेताओं ने दूसरे राजनीतिक दलों में अपना समायोजन कर लिया है. जो बुजुर्गवार लोग वामपंथ की आवाज की तरह बने हुए हैं, नौजवान उनको परिवार भाव से सुन तो लेते हैं, पर उनकी सुनते नहीं. ऐसे हालात में कन्हैया को पेश करने की रणनीति को विधानसभा चुनाव में आजमाया गया था. नतीजे पर इसका कोई फर्क नहीं पड़ा. फिर से इस घटना के सहारे राजनीतिक माइलेज लेने की वामपंथी दलों की कोशिश फीकी ही रही. कन्हैया की गिरफ्तारी, उसपर हमले और जमानत के बाद वामपंथी दलों से आनेवाले लोगों में भी राय बंटी दिख रही है.

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वामपंथ में बीहट गांव का है रौब
जिस गांव में कन्हैया का घर है. वह गांव यानी बीहट जिले में वामपंथ के सबसे अधिक प्रभाव वाला गांव रहा है. राज्य के पहले ऊर्जा मंत्री और सीनियर कांग्रेसी नेता रहे रामचरित्र सिंह के बेटे चंद्रशेखर सिंह ने वामपंथ की राह पकड़ ली थी. पड़ोसी गांव मधुरापुर के सूर्यनारायण सिंह उर्फ सूरज बाबू को अभी तक कोई भूल नहीं पाया. जमानत के बाद कन्हैया के जेएनयू में भाषण की तारीफ कर रहे लोगों ने बीहट के ही कॉमरेड चंदेश्वरी प्रसाद सिंह को यकीनन नहीं सुना होगा. स्थानीय बोली में उनका भाषण वैचारिक विरोधियों को भी सहजता से जोड़ता था. गांव में अधिकतर सांस्कृतिक कार्यक्रमों के आयोजन में कथित वामपंथियों की भूमिका रहती है. उन आयोजनों को दिल्ली में इन दलों के लोग सांप्रदायिक कहकर खारिज कर सकते हैं.

राजनीति का शिकार न हो जाए कन्हैया
कन्हैया को लेकर चर्चाओं की जितनी रस्साकशी राजधानी में दिख रही है उतनी बेगूसराय जिले में या वहां से आने वाले छात्रों में नहीं है. जिले के लोग चाहे जहां भी रह रहे हों, घटना को लेकर कोई जल्दबयानी नहीं कर रहा. कन्हैया को विपक्ष की आवाज की तरह ग्लोरिफाय करने से भी बेगूसराय का नौजवान सहमत नहीं है. कन्हैया से इलाकाई सहानुभूति रखने वाले जानकारों को इस बात का डर है कि कहीं वह बड़े मगरमच्छ राजनीतिकों का शिकार न हो जाए. कन्हैया की मां ने भी मीडिया को दिए बयानों में इस डर की चर्चा की है.

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कई दलों की दिलचस्पी से बढ़ा डर
संगठन, वैचारिक प्रशिक्षण, पीएचडी की पढ़ाई और नई उम्र जैसे कई बेहतरीन संयोगों के बाद भी कन्हैया की संभावनाओं के गर्भपात का डर बना हुआ है. जिस तरह से येचुरी ने उसे पश्चिम बंगाल में सीपीएम का स्टार प्रचारक बता दिया. जेडीयू, आप, कांग्रेस सहित कई दलों ने कन्हैया में दिलचस्पी दिखाई है. सीपीआई की छात्र इकाई से आनेवाले कन्हैया के लिए गंभीरता से सोचने का वक्त है.

सहानुभूति के साथ बढ़ा कन्हैया से अलगाव
अफजल गुरु, कश्मीर , पाकिस्तान, महिषासुर, आजादी, संविधान, कानून, न्याय प्रक्रिया, सरकार जैसे शब्दों के साथ कन्हैया के हैशटैग बनने से फायदा जिसका भी हुआ हो, बेगूसराय के लिए तो संशय ही बढ़ा है. देश को साहित्यकार, राजनेता, उद्योगपति, कलाकार, विचारक, पत्रकार, शिक्षाविद जैसे जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में धुरंधर देने वाले जिले के इस महत्वाकांक्षी नौजवान को लेकर लोगों में कायम अलगाव के भाव की वजह गहरे रिसर्च का विषय है. कन्हैया ने अपनी अधिक बातों में सबको एड्रेस करने की कोशिश की है. खुद को नहीं. जेल से लौटने के बाद उसे खुद के लिए वक्त मिला भी नहीं है. उसके आसपास जकड़ती मुख्यधारा की राजनीति सोचने का वक्त देगी भी या नहीं. बेगूसराय और वहां से जुड़े लोगों की चिंता यही है. फिलहाल कन्हैया की बड़ी चिंताओं में यह शामिल नहीं दिखता.

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बरकरार है अधूरे बेटे की चिंता
बेगूसराय जिले के सिमरिया में जन्में और बाद में राष्ट्रकवि कहलाए रामधारी सिंह दिनकर ने चार अगस्त, 1955 को बनारसीदास चतुर्वेदी को लिखे पत्र में लिखा था, "मैं तीन चिंताओं का शिकार रहा हूं. अधूरी किताब की चिंता, अधूरे मकान की चिंता, अधूरे बेटे की चिंता." उनके अधूरे बेटे की चिंता बरकरार है.

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