महागठबंधन से नाता तोड़ नीतीश कुमार अब बीजेपी संग हाथ मिलाकर बिहार के सिंहासन पर काबिज हैं. नीतीश का बीजेपी से हाथ मिलाना शरद यादव को नागवार गुजरा, जिसके चलते उन्होंने सूबे की सड़क पर उतरकर बगावत का बिगुल फूंक दिया है. ऐसे में नीतीश ने भी दो टूट कह दिया कि शरद अपना फैसला लेने के लिए आजाद हैं. इससे साफ है कि अब नीतीश और शरद की सियासी दोस्ती पर पूर्णविराम लगने वाला है. शरद अपनी आगे की सियासी जिंदगी जॉर्ज की तरह नहीं जीना चाहते, यही वजह है वह बिहार की सड़कों पर उतर कर सूबे का सियासी नव्ज़ को टटोल रहे हैं, जिससे वह भविष्य की राजनीति की दशा और दिशा तय कर सकें.
सियासी नव्ज़ टटोलने सड़क पर उतरे
नीतीश के खिलाफ बगावती बिगुल फूंककर शरद यादव अब अपनी सियासी जमीन टटोलने बिहार की सड़कों पर निकले हैं. शरद यादव का आधार हमेशा से ओबीसी और अल्पसंख्यक मतदाता रहा है. नीतीश का बीजेपी के साथ यूं हाथ मिलाने से खासकर अल्पसंख्यक समुदाय में नाराजगी बढ़ी है. इतना ही नहीं लालू के साथ छोड़ने से यादव समाज में भी कहीं न कहीं ये कसक है. शरद की राजनीति हमेशा से सामाजिक न्याय के इर्द-गिर्द रही है. मंडल की सिफारिशों को लागू कराने में भी अहम भूमिका अदा की है. ऐसे में ओबीसी मतदाताओं पर उनकी नजर है.
नया सियासी फॉर्मूला बनाने की जुगत में शरद
शरद यादव बिहार के सियासी सफर के जरिये जहां अपने लोगों का रुख नापने के साथ-साथ नए सियासी फॉर्मूला बनाने पर भी काम कर रहे हैं. सूत्रों की मानें तो शरद यादव के सामने तीन सियासी फार्मूले हैं- जेपी मॉडल, कांशीराम मॉडल और वीपी सिंह मॉडल. इन्हीं तीनों को मिलाकर शरद एक नया मॉडल बनाने की कोशिश कर रहे हैं. दरअसल मौजूदा दौर में कोई भी राजनीतिक पार्टी दलित, ओबीसी और अल्पसंख्यकों के मुद्दे पर न काम कर रही हैं और न ही उनके हक में कोई आवाज उठा रही हैं. ऐसे में शरद इस खाली जगह को भरने की कोशिश करेंगे.
सड़क से लेकर संसद तक गूंजती शरद की आवाज़
शरद यादव की आवाज सड़क से लेकर संसद तक गूंजती है. शरद उन चुनिंदा नेताओं में एक हैं, जो संसद में जब भी बोलने के लिए खड़े होते है, तो सभी उन्हें बड़े ध्यान से सुनते हैं. आरक्षण से जहां पक्षधर बनते तो वहीं नीजिकरण के खिलाफ बेबाक ढंग से आवाज उठाते रहे हैं. यही वजह रही कि शरद हमेशा राष्ट्रीय राजनीति के पोस्टर ब्वॉय बनकर सजते रहे हैं. मौजूदा सांसदों में शरद उन वरिष्ठ नेताओं में हैं, जो विचाराधारा के तहत अपनी बात रखते हैं.
लोहिया के विचार और जेपी का रहा साथ
दरअसल शरद यादव ने सियासत की पहली सीढ़ी कही जाने वाली छात्र राजनीति से शुरू कर राष्ट्रीय राजनीति में अपना मुकाम बनाया है. शरद यादव का जन्म 1 जुलाई 1947 को मध्य प्रदेश में होशंगाबाद जिले स्थित एक गांव के किसान परिवार में हुआ. लोहिया के विचारों से प्रेरित होकर छात्र राजनीति में जुड़े और जेपी के पहले सिपाही बने. जेपी मूवमेंट में बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया. युवा नेता के तौर पर कई आंदोलनों में हिस्सा लिया और MISA (Maintenance of Internal Security Act) के तहत 1969-70, 1972 और 1975 में हिरासत में लिए गए. 1974 में जेपी ने सबसे पहले जिस शख्स को लोकसभा चुनाव लड़ने का टिकट दिया, वह शरद यादव ही थे. पहली बार 1974 में मध्य प्रदेश की जबलपुर लोकसभा सीट से सांसद चुने गए. यह जेपी आंदोलन का समय था और वह हलधर किसान के रूप में जेपी द्वारा चुने गए पहले उम्मीदवार थे. इसके बाद से लगातार वह सांसद बनते रहे हैं और अभी बतौर सांसद यह उनका आठवां कार्यकाल चल रहा है. शरद यादव ऐसे नेता हैं, जो तीन अलग-अलग राज्यों मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और बिहार से लोकसभा चुनाव जीतकर संसद पहुंचे.
सामाजिक न्याय का मसीहा
शरद यादव सामाजिक न्याय की लड़ाई को हमेशा लड़ते रहे हैं. संसद से लेकर सड़क तक पर उन्होंने संघर्ष किया. मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू कराने में शरद यादव का बड़ा योगदान रहा है. शरद तत्कालीन प्रधानमंत्री वीपी सिंह के जरिये मंडल की सिफारिशों को लागू करवाया. इतना ही नहीं शरद यादव सड़क से संसद तक हमेशा दलित, ओबीसी और अल्पसंख्यकों के हक की लड़ाई लड़ते रहे हैं. ऐसे में यह कहना कि शरद की सियासी जमीन कमजोर है, गलत होगा.
शरद के सहारे अपनी जुगत में लालू
शरद यादव के सहारे लालू भी अपनी सियासी जमीन को मजबूत करना चाहते हैं. शरद बिहार की सड़कों पर भले ही अपनी सियासी ताकत नापने के लिए उतरे हैं, लेकिन इसका सीधा फायदा लालू की पार्टी को मिलेगा. इसीलिए शरद जब बिहार पहुंचे तो उनकी अगवानी करने के लिए बड़ी संख्या में आरजेडी नेता व कार्यकर्ता एयरपोर्ट पहुंचे थे. इतना ही नहीं नीतीश के खिलाफ बगावती तेवर अपनाने के लिए शरद से लालू ने बात भी की थी. दरअसल बिहार में शरद और लालू दोनों का ही वोट आधार एक ही है. इसलिए लालू ने उनके लिए पलके बिछा रखा है. शरद के अभियान के जरिये खासकर यादव और मुस्लिम फिर एकजुट हो सकता है और लालू की उसी पर नजर है. दरअसल इसी वोटबैंक के सहारे लालू काफी अरसे तक सत्ता के सिंहासन पर काबिज रहे हैं.