
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के गुस्से ने विपक्षी हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा और पूर्व सीएम जीतनराम मांझी को बैठे-बिठाए एक बड़ा मुद्दा दे दिया है. मांझी के लिए विधानसभा में सीएम नीतीश ने जिस तरह की भाषा का इस्तेमाल किया, उसे लेकर भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) भी हमलावर हो गई है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तेलंगाना में चुनावी रैली को संबोधित करते हुए कहा कि बिहार विधानसभा में निर्लज्जता के साथ दलित नेता और पूर्व सीएम जीतन राम मांझी को अपमानित किया गया. पीएम मोदी ने दावा किया कि नीतीश कुमार ने इससे पहले रामविलास पासवान को भी अपमानित किया था. दलितों को इसी तरीके से अपमानित करना नीतीश और कांग्रेस के साथी दलों की आदत है.
पीएम मोदी ने नीतीश और कांग्रेस को दलित विरोधी बताते हुए मांझी का समर्थन किया तो वहीं पूर्व सीएम ने अब मौन धरने पर बैठने का ऐलान कर दिया है. जीतनराम मांझी ने कहा है कि भीमराव आंबेडकर की प्रतिमा के सामने मौन धरने पर बैठेंगे. बिहार में जारी सियासी जंग के बीच सवाल ये भी उठ रहे हैं कि क्या नीतीश सरकार के ओबीसी कार्ड की काट के लिए ये एनडीए का महादलित सम्मान कार्ड है?
वरिष्ठ पत्रकार ओमप्रकाश अश्क ने कहा कि जातीय जाल में उलझी बिहार की सियासत में नीतीश सरकार के जातिगत जनगणना और आरक्षण बढ़ाने के दांव से बीजेपी फंस गई थी. बीजेपी को ये नहीं सूझ रहा था कि इस दांव की काट कैसे करें? बीजेपी जातिगत सर्वे या आरक्षण का कोटा बढ़ाए जाने के फैसलों का विरोध नहीं कर पाई, उल्टा जातिगत जनगणना का फैसला एनडीए की सरकार के समय होने की याद दिला श्रेय भी लेती नजर आई. इसी बीच नीतीश कुमार के दो कार्यों ने बीजेपी को बड़ा मौका दे दिया- महिलाओं को लेकर बयान और मांझी को लेकर टिप्पणी. महिलाओं वाले मुद्दे से भी अधिक बीजेपी का फोकस अभी मांझी वाले बयान को बड़ा मुद्दा बनाने पर है.
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बिहार में सामान्य वर्ग की आबादी जातिगत जनगणना के ताजा आंकड़ों के मुताबिक 15 फीसदी है. सामान्य वर्ग को बीजेपी का ट्रेडिशनल वोटर माना जाता है. लेकिन बीजेपी के नेता भी ये समझ रहे हैं कि बिहार जैसे जटिल जातीय संरचना वाले राज्य में केवल सवर्ण मतदाताओं के सहारे कोई चुनाव जीतना मुश्किल हो सकता है. बहुकोणीय मुकाबले की स्थिति में चुनाव जीतने के लिए कम से कम 35 फीसदी के आसपास वोट की जरूरत होगी.
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मांझी को लेकर नीतीश की टिप्पणी बीजेपी के लिए दलितों के बीच पैठ मजबूत करने के मौके की तरह देखी जा रही है. दलित-महादलित की आबादी बिहार में 19 फीसदी है. मांझी की पार्टी हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा यानी हम, बीजेपी के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन यानी एनडीए में भी शामिल है. मांझी मुद्दे को उछालने की रणनीति के पीछे सूबे का 19 फीसदी वोट बैंक है.
दरअसल, बिहार में दलित रामविलास पासवान की पार्टी लोक जनशक्ति पार्टी के कोर वोटर माने जाते हैं. लेकिन माना ये जाता है कि महादलितों के नेता नीतीश कुमार हैं. जीतनराम मांझी जिस मुसहर जाति से आते हैं, वह जाति भी महादलित में आती है. राजनीतिक विश्लेषक अमिताभ तिवारी ने कहा कि महादलित होते हुए भी मांझी महादलितों के नेता नहीं बन पाए. अब नीतीश के बयान को जातीय अस्मिता से जोड़ने के पीछे उनकी रणनीति भी महादलितों के बीच अपनी जमीन मजबूत करने की है.
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महादलित मतदाताओं के बीच अगर मांझी की जमीन मजबूत हुई तो इसका लाभ एनडीए को हो सकता है. लोक जनशक्ति पार्टी दो धड़ों में बंट चुकी है. एक का नेतृत्व रामविलास पासवान के भाई पशुपति पारस कर रहे हैं तो दूसरे का उनके बेटे चिराग पासवान. ये दोनों ही धड़े एनडीए में बीजेपी के साथ हैं. ऐसे में दलित वोट तो है ही, पार्टी की नजर मांझी के सहारे महादलित वोट पर है. बीजेपी ने पहले ही सम्राट चौधरी को प्रदेश अध्यक्ष बना रखा है.
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सम्राट चौधरी कुशवाहा यानी कोईरी बिरादरी से आते हैं जिसकी आबादी सूबे में 4.21 फीसदी है. कुशवाहा को जेडीयू का वोटर माना जाता है लेकिन उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी पहले से ही एनडीए में है और सम्राट का प्रदेश अध्यक्ष होना, कहा तो ये भी जा रहा है कि बीजेपी की नजर सामान्य, दलित-महादलित और बनिया वोट बैंक को साथ लेकर वोटों का नया गणित गढ़ने पर है. ये गणित बीजेपी कितना सेट कर पाती है, सेट कर पाती है तो उसे कितना लाभ मिलता है, ये देखने वाली बात होगी.