मोदी सरकार के मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे चुके आरसीपी सिंह के सियासी भविष्य को लेकर तमाम तरह के कयास लगाए जा रहे हैं. मंत्री पद छोड़ने और राज्यसभा का कार्यकाल खत्म होने के बाद पटना पहुंचे आरसीपी सिंह ने अपनी मंशा साफ कर दी है कि वो शांत नहीं बैठेंगे और अपने कर्म के पथ पर आगे बढ़ते रहेंगे. उन्होंने कहा, 'मैं जमीन का आदमी हूं, संगठन का आदमी हूं और संगठन में काम करूंगा.' मतलब साफ है कि आरसीपी सिंह एक बार फिर से बिहार की पॉलिटिक्स में वापसी करने की तैयारी में हैं, लेकिन क्या नीतीश कुमार से अलग होकर जमीन पर अपना दम दिखा पाएंगे?
नौकरशाह से राजनेता बने आरसीपी सिंह कभी नीतीश कुमार के राइट हैंड माने जाते थे, लेकिन फिलहाल जेडीयू में किसी तरह की कोई सियासी अहमियत मिलती दिख नहीं रहीं. जेडीयू में उनके तमाम करीबी नेता साइड लाइन हो चुके हैं या फिर उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया गया है. वहीं, सीएम नीतीश कुमार से रिश्ते ठीक रखने के चक्कर में बीजेपी आरसीपी सिंह को लेकर उत्साहित नहीं दिख रही है. ऐसे में आरसीपी के सामने बहुत ज्यादा सियासी विकल्प नहीं बचे हैं, जिसके चलते वो अब क्या कदम उठाएंगे?
दरअसल, आरसीपी सिंह को सियासत में नीतीश कुमार ही लेकर आए थे और उन्हें फर्श से अर्श तक पहुंचने का काम किया है. इसकी वजह यह थी कि आरसीपी सिंह और नीतीश कुमार एक ही जिले नालंदा और एक ही जाति कुर्मी समुदाय से आते हैं. जातिगत समीकरण के चलते नीतीश ने आरसीपी को आगे बढ़ाया. 2010 में आरसीपी आईएएस से इस्तीफा दिया तो नीतीश कुमार ने उन्हें राज्यसभा भेजा.
कैबिनेट का हिस्सा बने और पड़ गई दरार...
साल 2016 में आरसीपी सिंह को जेडीयू ने दोबारा राज्यसभा भेजा और शरद यादव की जगह राज्यसभा में पार्टी के नेता भी मनोनीत किए गए. वहीं, नीतीश कुमार ने जेडीयू राष्ट्रीय अध्यक्ष का पद छोड़ा तो आरसीपी सिंह को ही पार्टी की कमान सौंपी गई थी. इस तरह नीतीश के बाद जेडीयू में वो नंबर दो की हैसियत वाले नेता बन गए. नीतीश की मनमर्जी पर आरसीपी का जेडीयू में पकड़ मजबूत होती गई तो साथ सियासी भविष्य भी संवरता गया, लेकिन मोदी कैबिनेट का हिस्सा बनने के बाद रिश्ते में दरार पड़ गई. आरसीपी को तीसरी बार जेडीयू से राज्यसभा पहुंचने का मौका नहीं मिला, जिसके चलते उन्हें मोदी कैबिनेट छोड़ना पड़ा.
आरसीपी भी नीतीश कुमार की तरह कुर्मी समुदाय से आते हैं. बिहार की सियासत में भले कुर्मी समाज संख्या बल पर महज चार फीसदी हो, लेकिन सियासी तौर काफी मजबूत मानी जाती है. बिहार की राजनीति में हमेशा जाति के इर्द-गिर्द सियासी बिसाती बिछाई जाती रही है. राजनीतिक दल बड़ी-बड़ी बातें करें और विकास का सपना दिखाएं, लेकिन केंद्र में जातिवाद का ही बोलबाला दिखता है. नीतीश कुमार ने जब खुद को बिहार में लॉन्च किया तो विकास के साथ जाति आधार के लिए लव-कुश (कुर्मी-कोइरी) फॉर्मूले के सहारे लालू यादव के दुर्ग को भेदने में सफल हो सके थे.
बिहार में कुर्मी समाज की आबादी करीब 4 फीसदी के करीब है. इसमें अवधिया, समसवार, जसवार जैसी कई उपाजतियों में विभाजित है. नीतीश कुमार अवधिया कुर्मी हैं जो संख्या में सबसे कम, लेकिन नीतीश सरकार में सबसे ज्यादा फायदा पाने वाली उपजाति है. बांका, भागलपुर, खगड़िया बेल्ट में जसवार कुर्मी की विधानसभा सीटों पर नतीजे प्रभावित करने की स्थिति में हैं. वहीं समसवार बिहारशरीफ, नालंदा क्षेत्र में मजबूत स्थिति में हैं. कुर्मी जाति के साथ धानुक को गिना जाता. धानुक के वंशज कुर्मी जाति के ही माने जाते हैं, लेकिन ये समुदाय अति पिछड़ा वर्ग में शामिल है. लखीसराय, शेखपुरा और बाढ़ जैसे क्षेत्रों में धानुक काफी मजबूत स्थिति में है.
वहीं, जेडीयू में साइडलाइन हो चुके आरसीपी सिंह क्या बिहार की सियासत में खुद को कुर्मी नेता के तौर पर स्थापित कर सकें. राजनीतिक विश्लेषकों की मानें तो आरसीपी भले ही जेडीयू के अध्यक्ष रहे हों या फिर केंद्र में मंत्री, लेकिन न तो कभी कुर्मी नेता के तौर पर उनकी पहचान थी औ न ही जनाधार वाले नेता नहीं की. ऐसे में नीतीश कुमार को उस तरह की चुनौती कभी नहीं देते जैसा कोई जनाधार वाला नेता दे सकता है.
17 सालों से बिहार की सत्ता पर काबिज हैं नीतीश
बता दें कि नीतीश कुमार समाजावदी आंदोलन से निकले हुए नेता हैं, जो जमीनी संघर्ष और अपनी राजनीतिक समझ बूझ के आधार पर आगे बढ़े हैं. 17 सालों से बिहार की सत्ता पर काबिज हैं. नीतीश भले ही अपने दम पर सत्ता न हासिल कर सकें, लेकिन उनके बिना भी किसी की सरकार बनने वाली स्थिति नहीं है. वहीं, आरसीपी सिंह जरूर कुर्मी समुदाय से आते हैं, लेकिन नीतीश कुमार की तरह अपनी सियासी जड़े नहीं जमा सके. ऐसे में वो जेडीयू से अलग होकर किसी तरह का कोई विकल्प खड़े करना आसान नहीं है.
बिहार की सियासत में नीतीश कुमार से अलग होकर जॉर्ज फर्नांडिस से लेकर शरद यादव, दिग्विजय सिंह, उपेंद्र कुशवाहा, अरुण कुमार, अली अनवर और जीतन राम मांझी ने अपनी सियासी किस्मत आजमाया, लेकिन सफल नहीं रहे. शरद यादव उसके बाद से सांसद नहीं बने सके और उपेंद्र कुशवाहा को बाद में घर वापसी कर गए. हालांकिं, ये सभी वो नेता हैं, जिनका अपना सियासी आधार था और एक समय नीतीश कुमार व जेडीयू को खड़ा करने में महत्वपूर्ण भूमिका थी. ऐसे में अब सभी की निगाहें आरसीपी सिंह के सियासी कदम पर है.
बीजेपी नेतृत्व आरसीपी सिंह के प्रति सहानुभूति रखने के बावजूद फिलहाल उनके साथ खड़ा नहीं दिख सकता है और न ही उन्हें पार्टी में लेने का जोखिम उठा सकता है, क्योंकि बिहार की सियासत में नीतीश के साथ की उसे जरूरत है. आरसीपी सिंह के साथ दिक्कत है कि पार्टी के विधायकों और कार्यकर्ताओं में उनकी बहुत लोकप्रियता नहीं है, जिसके दम पर नीतीश को चुनौती दे सकें. माना जाता है कि नीतीश कुमार इसीलिए आरसीपी सिंह को बताना चाहते हैं कि उनको नजरअंदाज कर आगे बढ़ने का दांव कारगर नहीं होगा.