2024 लोकसभा चुनाव से पहले नीतीश कुमार की पार्टी जदयू कर्पूरी पथ पर आ गई है. जदयू ने कर्पूरी ठाकुर की 100वीं जयंती मनाने का ऐलान किया है. जयंती समारोह की तैयारी को लेकर आज जदयू ने बैठक भी बुलाई है. बैठक में जदयू के विधायक, विधान पार्षदों, पूर्व विधायकों , पूर्व विधान पार्षदों, प्रमंडलीय अध्यक्षों और जिलाध्यक्षों के साथ प्रदेश अध्यक्ष भी शामिल होंगे. नीतीश की पार्टी 24 जनवरी को पटना के वेटनरी ग्राउंड में कर्पूरी ठाकुर की 100वीं जयंती मनाई जाएगी.
कर्पूरी ठाकुर को बिहार में सामाजिक न्याय की लड़ाई के मसीहा के तौर पर देखा जाता है. मुख्यमंत्री रहते हुए कर्पूरी ठाकुर ने बिहार के वंचितों के हक में न सिर्फ काम किया, बल्कि उनका मनोबल भी बढ़ाया, जिसकी वजह से दलित-पिछड़े राजनीति में ही नहीं बल्कि हर क्षेत्र में आगे बढ़े. उन्होंने पिछड़ों को 26 फीसदी आरक्षण भी देना का काम किया, जो कि देश में पहली बार बिहार में लागू किया गया था.
नीतीश-लालू के राजनीतिक गुरु थे कर्पूरी ठाकुर
कर्पूरी ठाकुर लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार के राजनीतिक गुरु थे. इन दोनों नेताओं ने जनता पार्टी के दौर में कर्पूरी ठाकुर की उंगली पकड़कर सियासत के गुर सीखें है. इसीलिए लालू यादव ने जब सत्ता की कमान संभाली तो कर्पूरी ठाकुर के कामों को ही आगे बढ़ाने का काम किया. 17 फरवरी 1988 को अचानक तबीयत बिगड़ने के चलते कर्पूरी ठाकुर का निधन हो गया था.
कौन थे कर्पूरी ठाकुर?
कर्पूरी ठाकुर का जन्म समस्तीपुर जिले के पितौझिया गांव में हुआ था. पटना से 1940 में उन्होंने मैट्रिक परीक्षा पास की और स्वतंत्रता आंदोलन में कूद पड़े थे. कर्पूरी ठाकुर ने आचार्य नरेंद्र देव के साथ चलना पसंद किया. इसके बाद उन्होंने समाजवाद का रास्ता चुना और 1942 में गांधी के असहयोग आंदोलन में हिस्सा लिया. इसके चलते उन्हें जेल में भी रहना पड़ा.
साल 1945 में जेल से बाहर आने के बाद कर्पूरी ठाकुर धीरे-धीरे समाजवादी आंदोलन का चेहरा बन गए, जिसका मकसद अंग्रेजों से आजादी के साथ-साथ समाज के भीतर पनपे जातीय व सामाजिक भेदभाव को दूर करने का था ताकि दलित, पिछड़े और वंचित को भी एक सम्मान की जिंदगी जीने का हक मिल सके.
1952 में पहली बार बने विधायक
कर्पूरी ठाकुर 1952 में ताजपुर विधानसभा क्षेत्र से सोशलिस्ट पार्टी के उम्मीदवार के तौर पर जीतकर विधायक बने. 1967 के बिहार विधानसभा चुनाव में कर्पूरी ठाकुर के नेतृत्व में संयुक्त सोसलिस्ट पार्टी बड़ी ताकत बन कर उभरी, जिसका नतीजा था कि बिहार में पहली बार गैर-कांग्रेस पार्टी की सरकार बनी. महामाया प्रसाद सिन्हा मुख्यमंत्री बने तो कर्पूरी ठाकुर उप मुख्यमंत्री बने और उन्हें शिक्षा मंत्रालय का कार्यभार सौंपा गया था. कर्पूरी ठाकुर ने शिक्षा मंत्री रहते हुए छात्रों की फीस खत्म कर दी थी और अंग्रेजी की अनिवार्यता भी खत्म कर दी थी.
कुछ समय बाद बिहार की राजनीति ने ऐसी करवट ली कि कर्पूरी ठाकुर मुख्यमंत्री बन गए. इस दौरान वो छह महीने तक सत्ता में रहे. उन्होंने उन खेतों पर मालगुजारी खत्म कर दी, जिनसे किसानों को कोई मुनाफा नहीं होता था, साथ ही 5 एकड़ से कम जोत पर मालगुजारी खत्म कर दी गई और साथ ही उर्दू को राज्य की भाषा का दर्जा दे दिया. इसके बाद उनकी राजनीतिक ताकत में जबरदस्त इजाफा हुआ और कर्पूरी ठाकुर बिहार की सियासत में समाजवाद का एक बड़ा चेहरा बन गए.
आपातकाल में गए जेल
कर्पूरी ठाकुर ने 1973-77 के दौरान जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में चले आंदोलन में अहम भूमिका निभाई. इंदिरा गांधी के आपातकाल के खिलाफ जेल गए और जब 1977 में लोकसभा चुनाव हुए तो वो समस्तीपुर लोकसभा क्षेत्र से सांसद चुने गए. हालांकि, ठाकुर 24 जून 1977 को दोबारा मुख्यमंत्री बने. उन्होंने 11 नवंबर 1977 को मुंगेरी लाल समिति की सिफारिशें लागू कर दीं, जिसके चलते पिछड़े वर्ग को सरकारी सेवाओं में 26 फीसदी आरक्षण का लाभ मिलने लगा. एससी-एसटी के अलावा ओबीसी के लिए आरक्षण लागू करने वाला बिहार देश का पहला राज्य बना.