बिहार के कुछ दिग्गज नेताओं की चर्चा किए बिना 'चुनावी मंथन' अधूरेपन का एहसास कराता है. ऐसे ही नेताओं में शुमार हैं लालू प्रसाद. सवाल उठता है कि आजकल लालू अखबार के पन्नों में इतने कम क्यों नजर आते हैं?
कई सियासी दिग्गज ऐसे हैं, जो कहां से चुनाव लड़ेंगे, इसको लेकर अभी भी सस्पेंस है. पेश है चुनावी हालात का जायजा लेती 'बिहार डायरी बिफोर इलेक्शन' की 10वीं किस्त...
1.
बिहार में इतने दिनों से हूं, लेकिन लालू यादव की तस्वीर अखबारों में अक्सर क्यों नहीं दिखती? बेटे भी गायब दिखते हैं. लोग-बाग कहते हैं कि 'सुशासन' ने अखबारों में 'दारोगा' बिठा रखा है. लेकिन हमेशा ऐसा होता, तो 'बड़े मोदी' और 'छोटे मोदी' क्यों छपते?
लालू परिवार का वोट बैंक तो अब भी पुख्ता है, लेकिन उनके वोटरों में उत्साह क्यों नहीं दिखता? लगता है कि आरजेडी में 'शाश्वत डिप्रेशन' छाया हुआ है और पार्टी की चमक तेजी से लौट नहीं पा रही है. हालांकि लालू के कांग्रेस से गठजोड़ ने सुशासन बाबू के तोते उड़ा दिए हैं. मोदी के खिलाफ लालू जैसा बयान दे देते हैं, वैसा सुशासन बाबू चाहकर भी नहीं दे पाते.
लगता है कि लालू की पार्टी वित्तीय संकट से भी गुजर रही है, जिस वजह से धमाकेदार रैलियां, समारोह या बड़े सम्मेलन लालू नहीं करवा पा रहे हैं. पैसे का 'राजनीतिक स्वास्थ्य' पर विशेष असर पड़ता है. कुल मिलाकर कह सकते हैं कि इस बार जैसा अनुकूल माहौल लालू को मिला है, वैसा दशकों में किसी नेता को एक बार मिलता है. लेकिन लालू की स्थिति उस किसान जैसी हो गई है, जिसके पास जमीन तो है, लेकिन वह पर्याप्त उपज नहीं ले पा रहा.
2.
रॉबिनहुड पप्पू (यादव) कहां से चुनाव लड़ेंगे, ये बिहार का सबसे बड़ा सस्पेंस है. उन्होंने संकेत तो दिया है कि वे मधेपुरा और पूर्णिया, दोनों जगहों से लड़ेंगे, लेकिन अभी वे अन्य दलों के साथ आंख-मिचौली खेल रहे हैं. दबंग अतीत वाले पप्पू अभी भी नौ लाख का मरा हुआ हाथी हैं, जिसके मैदान में उतरने की घोषणा भर से दिग्गजों की नींद हराम हो गई है. लेकिन पप्पू खुद तय नहीं कर पा रहे कि लड़ें, तो लड़े कहां से.
पूर्णिया की तुलना में पप्पू की सक्रियता मधेपुरा क्षेत्र में ज्यादा है और उन्हें भी अंदाज है कि कोसी में बहुत पानी बह गया है. हर जिले में लोगों को लगता है कि पप्पू वहीं से चुनाव लड़ेंगे. यहां तक कि खगड़िया और अररिया के लोग भी पप्पू का नाम लेते हैं. पिछले साल जेल से निकलने के बाद उन्होंने कोसी इलाके के लगभग सभी जिलों में आशीर्वाद यात्रा की थी और अभी भी होर्डिंग्स में पप्पू जगह-जगह टंगे दिखाई देते हैं. लोग-बाग कहते हैं कि पप्पू की चमक फीकी पड़ गई है और शहर का आईपीएस अब उनसे नहीं डरता. उनके आने से चुनाव 'पप्पू बनाम अन्य' हो जाता है, इसमें कोई संदेह नहीं. लेकिन पप्पू में वो पुराना आत्मविश्वास नजर नहीं आता, जैसा उनके निर्दलीय सांसद बन जाने के जमाने में दिखता था. अब तो लेखक बन चुके पप्पू शरीफाना अंदाज में बयान देने लगे हैं. क्या वक्त बदल गया है, जिसने उन्हें 'पप्पू' बना दिया है?
हां, लोग ये जरूर कहते हैं कि अगर पप्पू को आरजेडी या जेडीयू की तरफ से टिकट या समर्थन मिल जाए, तो उसके सामने सभी बौने हैं. किसी नेता के नाम पर शहर में आक्रामक हो जाने वाले लोग अभी भी सबसे ज्यादा पप्पू के पास हैं. पप्पू इंतजार कर रहे हैं कि पूर्णिया और मधेपुरा में चुनाव कायदे से त्रिकोणात्मक हो जाए, उसके बाद तो चुनाव जीतना उनके लिए बाएं हाथ का खेल है. क्या वाकई ऐसा हो पाएगा?
(यह विश्लेषण स्वतंत्र पत्रकार सुशांत झा ने लिखा है. वह इन दिनों ‘बिहार डायरी बिफोर इलेक्शन’ के नाम से ये सीरीज लिख रहे हैं.)