चुनाव से पहले सिद्धांतों की बड़ी-बड़ी बातें हांकना केवल सियासी पार्टियों को ही नहीं, बल्कि पब्लिक को भी खूब भाता है. लेकिन जब वोट लेने और देने की बारी आती है, तो नतीजा वही 'ढाक के तीन पात'. बात फिर आ जाती है 'जात' पर और 'पांत' पर...पेश है 'बिहार डायरी बिफोर इलेक्शन' की 17वीं किस्त...
जेडीयू और सीपीआई की डील में बेगूसराय और बांका सीट सीपीआई के खाते में आई है और 'सुशासन बाबू' ने मोनाजिर हसन का टिकट काट दिया, शायद किशनगंज ले जाकर पटक दें. इधर मोनाजिर उफन रहे हैं, तो दूसरी तरफ कॉमरेडों में घमासान है.
जिला कमेटी ने पूर्व सांसद और शिक्षक संघ के नेता शत्रुघ्न सिंह का नाम आगे किया, तो केंद्रीय कमेटी ने पूर्व विधायक और राज्य कमेटी के सचिव राजेंद्र सिंह को थोप दिया. शत्रुघ्न बाबू शरीफ आदमी माने जाते हैं, लेख लिखनेवाले टाइप. बुद्धिजीवी एलिमेंट है, तो दूसरी तरफ राजेंद्र सिंह के बाहुबलियों में भी काफी प्रतिष्ठा है और लोग-बाग कहते हैं कि वे लोजपा नेता सूरजभान के भी करीबी हैं.
राजेंद्र सिंह को सीपीआई महासचिव एबी बर्धन का वरदहस्त मिला हुआ है, जबकि स्थानीय इकाई ने उनके विरोध में लंबे-लंबे खत लिखे हैं. कुछ ने पद से इस्तीफा दे दिया है. कैडर आधारित अनुशासन वाली पार्टी का ये हाल देखकर बड़े बुजुर्ग कहते हैं कि सच में जमाना खराब चल रहा है.
सुशासन बाबू ने दोनों सीटें सीपीआई को देकर ठीक ही किया. पिछले चुनाव में लहर के बावजूद उनका उम्मीदवार बांका में दिग्विजय सिंह की पत्नी और निर्दलीय उम्मीदवार पुतुल देवी के सामने खेत रहा था. लहर में बेगूसराय से मोनाजिर सांसद बन गए थे, लेकिन भूमिहारों के गढ़ में ऐसा होना अपवाद ही था. आजाद भारत के इतिहास में बेगूसराय से शायद पहली बार कोई गैर-भूमिहार सांसद बना हो. कह सकते हैं कि बेगूसराय कॉमरेडों के लिए मास्को था और भूमिहारों के लिए मक्का.
झारखंड अलग होने के बाद बचे हुए बिहार में एकमात्र औद्योगिक इलाका बेगूसराय का बरौनी था, जहां रिफाइनरी, फर्टिलाइजर और बिजली बनाने के कारखाने बच गए थे. बरौनी बिहार का बेहद महत्वपूर्ण रेल जंक्शन भी है, जहां से उत्तर-पूर्व की अधिकतर ट्रेनें जाती हैं. उत्तर और दक्षिण बिहार को जोड़नेवाला पहला पुल पटना के आसपास न बनकर यहीं बना, जब श्री बाबू (श्रीकृष्ण सिंह) मुख्यमंत्री थे. कालांतर में बेगूसराय, बिहार की सांस्कृतिक राजधानी बन गई. इसकी शायद वजह ये थी कि यहां होने वाले विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रम के लिए सरकारी औद्योगिक इकाइयों ने स्पॉन्सरशिप देना शुरू कर दिया, जो बिहार के अन्य क्षेत्रों को नसीब नहीं हुआ.
लेकिन लालू युग के बाद से जिस तरह से बिहार में कम्युनिस्ट पार्टियों का पतन हुआ, वह वह देखने लायक है. रातोंरात बहुत सारे कॉमरेड ब्राह्मण और यादव में तब्दील हो गए और कम्यूनिस्ट पार्टियां ढेर होती गईं. एक समय था, जब पूरे बिहार से कम्युनिस्ट समूह छह-छह लोकसभा सीटें जीतता था. मधुबनी में कॉमरेड भोगेंद्र झा थे, जिन्होंने जगन्नाथ मिश्रा का चुनावी करियर खत्म कर दिया था, तो भागलपुर में सीपीएम के सुबोध राय थे. ऐसे में बेगूसराय में कॉमरेडों की आपसी लड़ाई उसे कहां ले जाएगी, समझ पाना बहुत मुश्किल नहीं है. दिनकरजी की जमीन हाल में जिस तरह 'लाल' से 'भगवा' हुई है, उसका एक नमूना यह भी है कि अब यहां सिमरिया में 'कुंभ' लगने लगा है और धर्मशास्त्रों से उसके लिए तर्क खोजकर जुटाए जाने लगे हैं.
(यह विश्लेषण स्वतंत्र पत्रकार सुशांत झा ने लिखा है. वह इन दिनों ‘बिहार डायरी बिफोर इलेक्शन’ के नाम से ये सीरीज लिख रहे हैं.)