लोकसभा चुनाव में इस बार बिहार से बेहद दिलचस्प नतीजे सामने आ सकते हैं. किसी पार्टी विशेष की बजाए अलग-अलग सीटों पर अलग-अलग फैक्टर का जोर नजर आ रहा है. पेश है 'बिहार डायरी बिफोर इलेक्शन' की 18वीं किस्त...
बिहारीगंज (मधेपुरा) में चाय की दुकान पर कुछ टैक्सी चालक और छात्र गप्प लड़ा रहे हैं. शरद यादव की इकतरफा आलोचना हो रही है. कहते हैं कि आगे जाइए, पता चल जाएगा कि शरद की सांसदी और उनके मुख्यमंत्री के सुशासन में कैसी सड़क है. यहां दूसरी सीटों की तरह जेडीयू की आलोचना का मतलब बीजेपी की तारीफ नहीं है, यहां पप्पू यादव की चर्चा है.
‘पप्पू यादव जिंदाबाद है, उसके सामने कोई नहीं.’
'क्यों भई?'
‘पप्पू ने पूर्णिया को चमका दिया, अब मधेपुरा का लाल मधेपुरा को चमकाएगा.’
एक मुसलमान बुजुर्ग से पूछता हूं, तो दार्शनिक भाव में कहते हैं ‘हार-जीत अल्लाह पहले ही तय कर चुका है, मेरे-आपके तय करने से कुछ होता है?'
'बाबा, हवा किसकी है?'
‘हवा तो पप्पू की ही है, वो मधेपुरा को चमका देगा.’
मधेपुरा बड़ा शहर नहीं है और नए परिसीमन के बाद पूरी तरह गोप का भी नहीं रह गया, जैसा कि पहले कहा जाता था. यानी एनडीए अगर कायदे का उम्मीदवार खड़ा करता, तो पप्पू को चुनौती दी जा सकती है. कायदे का उम्मीदवार? क्या विजय कुशवाहा कायदे के नहीं हैं?
'सर, पप्पू और शरद के बीच इमेज में हल्के पड़ेंगे, वैसे मोदी का नाम तो लोग खूब लेते हैं. वैसे जगह-जगह होंडिंग और पोस्टर में रेणु कुशवाहा चमक रही है, जो यहां से विधायक थीं. वोटर कन्फ्यूज्ड है. अंडर करेंट हुआ तो लड़ाई विजय कुशवाहा और पप्पू में होगी.'
‘नहीं हुआ तो?’
'नहीं हुआ तो लड़ाई शरद और पप्पू में.'
सहरसा के कई इलाके मधेपुरा लोकसभा में आ गए हैं. सहरसा में एक पानवाला मोदी का भक्त है, लेकिन पप्पू की ताकत को स्वीकारता है. 'सर, पप्पू की अपनी छवि है, फिर लालू की पार्टी से भी है. उसे टक्कर देने के लिए मजबूत केंडिडेट चाहिए’.
बिहारीगंज-मुरलीगंज से मधेपुरा की सड़क बीच-बीच में उबर-खाबड़ है. सन् 2008 में आई बाढ़ की तबाही जगह-जगह अपना निशान छोड़े हुए है. उस बाढ़ में पूर्णिया बचा रह गया था और इस इलाके के काफी लोगों ने पूर्णिया में जमीन खरीद ली. नहीं तो पूर्णिया की जमीन काफी सस्ती थी. ड्राइवर बताता है कि फलां जगह पूरा रोड गायब हो गया था, तो फलां जगह अंग्रेजों के जमाने में बने पुल का पिलर बह गया. जगह-जगह पुल-पुलिया बन रहे हैं और वो पिछले छह साल से बन रहे हैं. केंद्र के हजार करोड़ रुपये और अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं की मदद न जाने क्यों इतनी कछुए की रफ्तार से चल रही है.
मधेपुरा से थोड़ा पहले खूबसूरत डिजायन वाले ढाबे का मालिक सड़क के ठेकेदारों और मोटे-मोटे इंजीनियरों की आवभगत में लगा है और हमें काफी देर इंतजार करने पर भी खाना नहीं देता. बाहर कोई ढाबा या रेस्त्रां नहीं है. सड़क के किनारे अच्छे भोजनालय का कल्चर पूरे बिहार में नहीं है, जैसा चंडीगढ़ हाइवे पर या हरियाणा की तरफ मिल जाता है. लोगों की कमजोर आर्थिक स्थिति और सड़कों के खराब होने से ऐसा शायद ऐसा हुआ है.
सड़क से होकर कभी-कभी पटुए के गट्ठर से लदे ट्रैक्टर गुजरते हैं, जो याद दिलाते हैं कि इस इलाके में कभी जूट की अच्छी खेती होती थी. लेकिन टैक्ट्रर की ट्रॉली बांस के फट्ठे से बनी हुई है. इधर मक्के की फसल कम होती गई है और गेंहू की फसल दिखती है. शहर से ठीक पहले चमचमाता हुआ बीएड कॉलेज दिखता है. बिहार में बीएड की डिग्री सोने के भाव मिलती है. मेरा दोस्त कहता है शहर में विश्वविद्यालय है और ये कॉलेज पक्का प्राइवेट होगा और किसी प्रोफेसर के भीतीजे का होगा. रोजगार की आस में मुरझाए हुए नौजवानों के बीच एक ही सुकून है कि साइकिल पर खिलखिलाती हुई स्कूल जाती लड़किया दिख जाती है.
(यह विश्लेषण स्वतंत्र पत्रकार सुशांत झा ने लिखा है. वह इन दिनों ‘बिहार डायरी बिफोर इलेक्शन’ के नाम से ये सीरीज लिख रहे हैं.)