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किस ओर झुकेंगे ब्राह्मण: 'बिहार डायरी बिफोर इलेक्शन' पार्ट- 20

चुनाव में पार्टियां अक्‍सर जाति देखकर उम्‍मीदवार तय करती हैं. वोटरों का भी कमोबेश यही हाल है. लोग अपने क्षेत्र में अपनी जाति के उम्‍मीदवार चाहते हैं, ताकि कोई 'दुविधा' की स्थिति न आए. पेश है बिहार डायरी बिफोर इलेक्‍शन की 20वीं किस्‍त...

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बिहार (Symbolic Image)
बिहार (Symbolic Image)

चुनाव में पार्टियां अक्‍सर जाति देखकर उम्‍मीदवार तय करती हैं. वोटरों का भी कमोबेश यही हाल है. लोग अपने क्षेत्र में अपनी जाति के उम्‍मीदवार चाहते हैं, ताकि कोई 'दुविधा' की स्थिति न आए. पेश है बिहार डायरी बिफोर इलेक्‍शन की 20वीं किस्‍त...

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बीजेपी को लेकर बिहार में ब्राह्मणों की कसमसाहट अब सामने आ रही है. उन्हें लगता है कि बीजेपी ने उनके साथ अन्याय किया है. हालांकि उनका ये लगना अभी भी ‘फुसफुसाहटों’ में है. बीजेपी का कट्टर समर्थक रहा ये तबका ऐसा क्यों सोच रहा है?

दरभंगा में श्यामा मंदिर के प्रांगण में हमेशा की तरह चहल-पहल है. मिठाइयों और फलों की दुकानों से होकर मंदिर के परिसर में बुजुर्गों, नौजवानों और महिलाओं का आना-जाना लगा है. दरभंगा महाराज की पीढ़ियों की समाधि यहीं है और मां काली का भव्य मंदिर भी. यहां भक्ति के अलावा हाल तक तो सिर्फ वैवाहिक संबंध और दूल्हा-दुलहन परिचय ही होता था, अब प्रेमी जोड़ों का हैंगआउट भी बन गया है!

मिथिला विश्वविद्यालय के छात्र विवेक मिश्र कहते हैं, ‘दरभंगा-मधुबनी-झंझारपुर से सिर्फ एक ब्राह्मण को टिकट दिया गया. सीतामढ़ी और सुपौल में तो हमें पूछा ही नहीं जाता. कल्पना कीजिए अगर ये राजपूत बाहुल्य सीटें होतीं, तो क्या बीजेपी वालों की ऐसा करने की हिम्मत होती? हमें राजपूतों-भूमिहारों से दिक्कत नहीं है, लेकन हमारी जहां पर आबादी है, वहां तो हमें सीट मिले.’

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ब्राह्मण नाराज लगते हैं. वे उस पार्टी से नाराज हो रहे हैं, जिसे ब्राह्मण-बनियों की पार्टी कहा जाता है/था. पूरे राज्य में एनडीए जिन 40 सीटों पर चुनाव लड़ रहा है, उसमें ब्राह्मणों को महज 3 सीट पर टिकट मिला है. यों उसे फीसदी में देखें, तो कम नहीं है, लगभग 7.5 फीसदी बैठता है. कई कम संख्या वाली जातियों को तो एक भी टिकट नहीं मिला. लेकिन ब्राह्मणों का कहना है कि उतनी ही संख्या वाले राजपूतों को एनडीए ने 8 सीटों पर उतारा है और उससे कम संख्या वाले भूमिहारों को 5 सीट पर.

झंझारपुर से अंधराठाढ़ी होते हुए भुपट्टी चौक की तरफ बढ़िए, तो बीजेपी का झंडा दिखने लगता है. गांव वीरान दिखते हैं. बुजुर्गों-महिलाओं और कुपोषित बच्चों का झुंड दिखता है. कमला-बलान का इलाका, खेतों में गेंहू की फसल और अपूर्ण कोसी नहर और बिना बिजली की सिंचाई. किसानों की कमर झुकी हुई है. ललित नारायण मिश्र और जगन्नाथ मिश्र की कभी सीट रहा है झंझारपुर. इधर ब्राह्मणों की खासी आबादी है, लेकिन बड़ी संख्या में नौजवान दिल्ली जैसे शहरों की तरफ पलायन कर गए हैं. जगन्नाथ मिश्र के बेटे नीतीश मिश्र विधायक हैं. बीजेपी ने मधुबनी जिले में संगठन के दो जिले बनाए हैं- झंझारपुर और मधुबनी. उसमें झंझारपुर में संगठन काफी कमजोर है. पार्टी उम्मीदवार वीरेंद्र चौधरी को अपने स्वजातीय (क्योट) नौजवानों के भरोसे चुनाव लड़ना पड़ रहा है. ब्राह्मण नौजवान साइलेंट हैं.

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बक्सर से बुजुर्गवार लालमुनि चौबे का टिकट काट दिया गया और वहां दूसरे चौबे (अश्विनी) को बिठा दिया गया, जबकि उन्हें भागलपुर मिलना चाहिए था और लालमुनि को बक्सर. ब्राह्मणों का मानना है कि भागलपुर उनकी सीट है, जिस पर हमेशा कोई बाहरी डाका डाल जाता है. तो क्या बिहार में सुशील मोदी, ब्राह्मण नेताओं से असुरक्षा महसूस करते हैं?

इसका जवाब जटिल है. बिहार बीजेपी के अध्यक्ष मंगल पांडे ब्राह्मण हैं, लेकिन समाज में उनकी पैठ नहीं है और वे सुशील मोदी के प्यादे माने जाते हैं. बीजेपी में मोदी खेमे के खिलाफ बगावत का झंडा जिस अश्विनी चौबे और गिरिराज सिंह ने उठाया था, वो ब्राह्मणों की राजनीति के दावेदार हो सकते थे. मधुबनी-लौकहा रोड स्थित खोजपुर गांव के भगवान जी कहते हैं, ‘गौरतलब है कि ब्राह्मणों को भूमिहारों से दिक्कत नहीं है, वे अपना शेयर लड़कर ले लेते हैं, लेकिन राजनीतिक दल भूमिहारों को दिए सीट को भी ब्राह्मण कोटे का मानकर ब्राह्मणों का टिकट काट देता है. ब्राह्मणों में खुद भी लड़ाकू और आक्रामक नेताओं की कमी है, वे ज्यादा शोर-शराबा नहीं कर पाते. सबसे बड़ी बात ये कि जगन्नाथ मिश्रा का परिवार अभी भी ब्राह्मणों की राजनीति पर कुंडली मारकर बैठा है.’

झंझारपुर जैसी सीट से ब्राह्मण को टिकट न देने से मिथिला के ब्राह्मण बहुत खफा हैं. करीब दो दशकों से यह सीट गठबंधन में समता/जेडीयू को मिलती रही थी, जिस पर यादव या अति-पिछड़ा उम्मीदवार सामने आते थे. पहली बार बीजेपी को मौका मिला था. ऐसे में बीजेपी ने इस ब्राह्मण बहुल सीट पर ब्राह्मण को टिकट क्यों नहीं दिया? पटना में एमसीए के छात्र हिमांशु झा का कहना है, ‘झंझारपुर में बीजेपी को इसका खामयाजा भुगतना पड़ेगा. बहुत सारे ब्राह्मण ‘आप’ को या नोटा पर बटन दबाएंगे. ब्राह्मण आक्रामक वोटिंग नहीं कर पाएगा, क्योंकि सामने उसे अपना उम्मीदवार ही नहीं दिखता. मतदान के दिन जिस किसी की भी थोड़ी-सी तबीयत खराब हुई, वो वोट डालने नहीं जाएगा.’

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ब्राह्मण राजनीति का एक छोटा-सा संकेत हाल ही में हुए बिहार विधान परिषद का शिक्षक-स्नातक कोटे का चुनाव भी है. पूरे देश में कांग्रेस भले ही मुर्दाहाल हो, लेकिन हाल ही में शिक्षक और स्नातक सीट के लिए हुए विधान परिषद चुनाव में दरभंगा से कांग्रेस के दोनों ब्राह्मण उम्मीदवार जीत गए. बीजेपी तो एक जगह तीसरे नंबर पर रही. वजह? बीजेपी ने मिथिलांचल के गढ़ में भी, जहां शिक्षक और स्नातक सबसे ज्यादा ब्राह्मण हैं, वहां पर गैर-ब्राह्मणों को परिषद के लिए टिकट दे दिया. नतीजतन बीजेपी खेत रही.

मधुबनी से बेनीपट्टी होकर जो सड़क सीतामढ़ी की तरफ चली जाती है, उसी सड़क के किनारे बसा है गांव सौराठ, जहां कभी मैथिल ब्राह्मणों की प्रसिद्ध वैवाहिक सभा लगती थी. हालांकि वो अब सिर्फ यादों में है. नीतीश सरकार ने वहां एक विश्वस्तरीय पेंटिंग संस्थान बनाने की घोषणा की है. यह इलाका कभी कम्युनिस्टों का गढ़ था और सन् 1991 के चुनाव में कॉमरेड भोगेंद्र झा ने आमने-सामने की लड़ाई में यहां से जगन्नाथ मिश्र को ढेर कर दिया था. लेकिन बाद में सारे कॉमरेड अपनी जाति खोजने लगे. सौराठ चौक पर एक बुजुर्गवार कहते हैं, ‘बिहार बीजेपी में राजनाथ सिंह ने ठाकुरों को भर दिया है और सुशील मोदी को भी ब्राह्मणों से भय लगता है. सुना है यूपी के ब्राह्मण भी राजनाथ से नाराज हैं. बाबू, आप लोग तो अखबार वाले हैं, जानते होंगे. वैसे ब्राह्मण राष्ट्रहित में मोदी को पीएम बनते देखना चाहता है. ब्राह्मण हमेशा देश स्तर पर सोचता है, लेकिन पार्टी को भी सोचना चाहिए कि हिंदुत्व के नाम पर हम कितने दिन तक कुर्बान होते रहें?'

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लेकिन चारा क्या है? क्या वे लालू को वोट देंगे या नीतीश को दे पाएंगे? इस पर चुप्पी है.

(यह विश्लेषण स्वतंत्र पत्रकार सुशांत झा ने लिखा है. वह इन दिनों ‘बिहार डायरी बिफोर इलेक्शन’ के नाम से ये सीरीज लिख रहे हैं.)

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