राज्यसभा चुनाव में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने जेडीयू की अपनी एकलौती सीट के लिए केंद्रीय मंत्री आरसीपी सिंह के बजाय खीरू महतो को प्रत्याशी बनाया है. आरसीपी सिंह एक समय नतीश के बाद जेडीयू में नंबर दो की हैसियत रखते थे. जेडीयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष रह चुके हैं, लेकिन फिर भी तीसरी बार उन्हें राज्यसभा का मौका नहीं मिल सका. हालांकि, जेडीयू में पहली बार नहीं है जब किसी बड़े नेता के पर कतरे दिए गए हों बल्कि दिल्ली की सियासत में पार्टी के जिस नेता ने भी खुद को मजबूत करने की कोशिश की है, उसे नीतीश कुमार ने 'रास्ता' दिखा दिया.
आरसीपी सिंह ने नौकरशाही के रास्ते से नीतीश कुमार के भरोसे सियासत में एंट्री की थी. आरसीपी और नीतीश कुमार एक ही जिले नालंदा और एक ही जाती कुर्मी समुदाय से आते हैं. ऐसे में दोनों ही नेताओं की दोस्ती गहरी होती गई और आरसीपी देखते ही देखते नीतीश कुमार के आंख और कान बन गए. 2010 में उन्होंने आईएएस से इस्तीफा दिया और नीतीश कुमार ने उन्हें राज्य सभा भेजा. 2016 में वे पार्टी की ओर से दोबारा राज्यसभा पहुंचे और शरद यादव की जगह राज्यसभा में पार्टी के नेता भी मनोनीत किए गए.
नीतीश कुमार की मनमर्जी पर आरसीपी का सियासी भविष्य संवरता गया. नीतीश ने जेडीयू की कमान छोड़ी तो आरसपी ने थामा, लेकिन जैसे ही मोदी कैबिनेट में शामिल होकर दिल्ली की सियासत में खुद को आरसीपी ने स्थापित करने की कोशिश की, वैसे ही नीतीश कुमार ने सबक सिखाने का ठान लिया. हालांकि, नीतीश ये बात समझ रहे थे कि आरसीपी कभी जनाधार वाले नेता नहीं हो सकते, जो नीतीश कुमार को उस तरह की चुनौती कभी नहीं देते जैसा कोई जनाधार वाला नेता दे सकता था.
दो दशक की दोस्ती में कैसे आई खटास
नीतीश-आरसीपी की दो दशक की दोस्ती में खटास उस समय आया जब जेडीयू ने केंद्रीय मंत्रिपरिषद में दो सीटों की मांग रखी थी, लेकिन आरसीपी कैबिनेट शामिल होने की जल्दबाजी में एक ही मंत्री पद से मान गए. दिल्ली की राजनीति में आरसीपी ने अपनी अलग छवि बनाने की कवायद की, जिसके लिए जातीय जनगणना के मुद्द पर पार्टी के स्टैंड से दूरी रखी जबकि नीतीश कुमार दशकों से इसके प्रबल समर्थक रहे. इसके बाद से ही कयास लगाए जा रहे थे कि नीतीश कुमार आरसीपी सिंह को तीसरी बार राज्यसभा न भेजकर अंकुश लगाएंगे.
वहीं, रविवार को जब जेडीयू की ओर से उम्मीदवार के नाम का ऐलान किया गया तो आरसीपी सिंह के बदले खीरू महतो का नाम सामने आया. खीरू महतो समता पार्टी के काल से ही नीतीश कुमार से जुड़े हुए हैं. इसके पहले भी पार्टी ने कर्नाटक के अनिल हेगड़े को राज्यसभा के लिए नामित किया था. नीतीश कुमार ने अपने इस फैसले के बाद कोई औपचारिक प्रतिक्रिया तो नहीं दी, लेकिन असल मकसद आरसीपी सिंह को सियासी अहमियत दिखाना था.
पहले भी कई नेताओं को साइडलाइन कर चुके हैं नीतीश
माना जाता है कि नीतीश इस तरह से आरसीपी सिंह को बताना चाहते हैं कि उनको नजरअंदाज कर दिल्ली की सियासत में घुलना मिलना कितना सियासी रूप से आत्मघाती साबित हो सकता है. नीतीश कुमार इससे पहले जॉर्ज फर्नांडिस से लेकर शरद यादव, दिग्विजय सिंह, उपेंद्र कुशवाहा, अरुण कुमार, अली अनवर, जीतन राम मांझी जैसे बड़े नेताओं को सियासी ठिकाने लगा चुके हैं जबकि इन सभी ने एक समय नीतीश कुमार और जेडीयू को खड़ा करने में पूरी ताकत लगाई थी.
नीतीश कुमार 1977 में साधारण स्तर के नेता थे, उन्हें तब लोकसभा का टिकट भी नहीं मिला था. उस समय जॉर्ज फर्नांडीज जेल में रहते हुए मुजफ्फरपुर से भारी मतों से चुनाव जीते थे. बिहार की सियासत में जब नीतीश कुमार का समय आया, तो जॉर्ज, शरद और दिग्विजय तीनों को टिकट के लिए न सिर्फ तरसाया, बल्कि टिकट से वंचित भी किया. 2009 के लोकसभा चुनाव में नीतीश ने जॉर्ज फर्नांडीज और दिग्विजय सिंह को टिकट नहीं दिया था. ऐसे में दोनों ही नेता निर्दलीय चुनाव लड़े थे, जिनमें जॉर्ज हार गए पर दिग्विजय जीत गए थे.
जेडीयू में एक समय उपेंद्र कुशवाहा काफी तेजी से बढ़े थे. नीतीश कुमार राष्ट्रीय राजनीति छोड़कर बिहार के सीएम बने तो राज्यसभा में कुशवाहा को नेता बनाया था, लेकिन बहुत जल्द ही रिश्ते बिगड़ गए. कुशवाहा ने जेडीयू छोड़कर अपनी पार्टी बना ली, लेकिन बाद में कुशवाहा फिर से नीतीश के साथ आ गए. ऐसे ही शरद यादव और नीतीश कुमार की जोड़ी भी बिहार में काफी सफल रही, लेकिन 2017 के बाद ऐसी दरार आई कि शरद यादव को जेडीयू से अलग होना पड़ गया.
आरसीपी सिंह के साथ भी नीतीश कुमार ने ऐसा ही सियासी दांव चला है. राज्यसभा की रेस से उन्हें बाहर कर दिया है. हालांकि, अब सबकी निगाहें इस बात पर होंगी कि आरसीपी सिंह कब और कैसे केंद्रीय मंत्रिमंडल से इस्तीफा देते हैं. बीजेपी नेतृत्व आरसीपी सिंह के प्रति सहानुभूति रखने के बावजूद फिलहाल उनके साथ इसलिए खड़ा नहीं दिख सकता क्योंकि राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति चुनाव में उसे नीतीश कुमार के साथ की जरूरत होगी. आरसीपी सिंह के साथ दिक्कत है कि पार्टी के विधायकों और कार्यकर्ताओं में उनकी बहुत लोकप्रियता नहीं है, जिसके दम पर नीतीश को चुनौती दे सकें.