लालू यादव पटना में एक महीने के भीतर एक बड़ी रैली करेंगे. इस रैली के जरिये लालू का वापस लौटने और अपने खोये जनाधार को फिर से पाने का प्रयास होगा. हालांकि अभी तक उन्होंने इस रैली का कोई नामाकरण नहीं किया है, लेकिन उनकी पिछले रैलियों की तरह इस रैली का नाम भी खासा रोचक होने की उम्मीद है.
चारा घोटाले में पांच साल की सजा काट रहे आरजेडी सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव को शुक्रवार को सुप्रीम कोर्ट से जमानत मिल गयी. इसके साथ ही 30 सितंबर से रांची की सेंट्रल जेल में बंद लालू यादव अब कुछ समय के लिए ही सही, खुली हवा में सांस ले सकते हैं. कभी जयप्रकाश आंदोलन और लोहिया की समाजवादी विचारधारा के पैरोकार रहे लालू यादव को देश और खासकर बिहार में फिर से अपनी राजनीतिक जमीन तलाशनी पड़ सकती है.
लालू की पार्टी हाशिये पर है, लेकिन रांची जेल में उनसे रोज मिलने वाले समर्थक, सैकड़ों मील की दूरी तय करके सैकड़ों की तादात आते और उन्हें यह दिलासा दिला गए कि अभी उनका जादू खत्म नहीं हुआ है. यही कारण है कि वे एक बार फिर से एक नयी जमीन पर नयी राजनीतिक पारी के लिए अपनी कमर कस चुके हैं.
सवाल है कि लालू के जेल से बाहर आने के मायने क्या होंगे. फौरी तौर पर उनका जेल से बाहर आना जहां उनकी पार्टी और समर्थकों के लिए प्राण-वायु का काम करेगा, वहीँ यह बिहार की नीतीश सरकार और कुछ हद तक बीजेपी के चुनावी ‘नमो रथ’ को रोकने के लिए ब्रेकर का काम करेगा. वैसे यह जरूर है कि अपनी जेल यात्रा में बिताये गए दिनों में लालू देश के मौजूदा हालात और इन दिनों उभरती नयी राजनितिक सोच पर विचार करते रहे.
जहां तक गठबंधन का प्रश्न है तो लालू यादव यूपीए के साथ रहते हुए ही आगामी लोकसभा का चुनाव लड़ेंगे. मुस्लिम मतों को बरकरार रखना ही उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती साबित होने वाली है. सहानुभूति की लहर पर सवार लालू यादव अपने खोये हुए एम-वाई समीकरण को फिर से पुनर्जीवित करने का प्रयास करेंगे. लोकसभा चुनावों की बात की जाए तो निश्चित तौर पर नीतीश कुमार की परेशानी बढ़ सकती है. एक ओर जहां नीतीश का बीजेपी से छत्तीस का आंकड़ा है, वहीं दूसरी ओर लालू की सहानुभूति लहर उनका खेल बिगाड़ सकती है. ‘नमो’ लहर पर सवार बीजेपी को भी लालू यादव के बाहर आने पर अपनी चुनावी रणनीति में बदलाव करना पड़ सकता है. क्योंकि लालू यादव की गैरहाजिरी में उनकी लड़ाई सिर्फ और सिर्फ नीतीश सरकार से थी. ऐसे में उसे एक साथ दो-दो फ्रंट पर जूझना पड़ेगा. लालू भी आडवाणी का रथ रोकने का हवाला देकर एक बार फिर से बिहार की राजनीती में छाने का प्रयास करेंगे.
वहीं भ्रष्टाचार की आरोपों से हलकान कांग्रेस लोकसभा चुनावों के मद्देनजर मजबूत क्षेत्रीय क्षत्रपों की तलाश में जुटी है. ऐसे में कांग्रेस लालू यादव के खिलाफ चल रहे मामलो में ढिलाई बरत सकती है. जिसकी ताजा मिसाल लालू यादव को जमानत मिलने से साबित होता है, जहां सीबीआई ने उनकी जमानत अर्जी पर कोई खास विरोध दर्ज नहीं कराया. कांग्रेस यह प्रयास जरूर करेगी कि कम से कम बिहार में जहां कभी वह सर्वेसर्वा रही थी, वहां लालू यादव के कंधों पर सवार होकर दो-चार सीटें अपने नाम कर ले.
मौजूदा हालत में जब लोकसभा चुनावों के लिए रैलियों का शंखनाद हो चुका है और हर पार्टी अपने जनाधार को मजबूत करने व मजबूत साथियों की तलाश में जुटी है, ऐसे में लालू यादव का जेल से बाहर आना भारतीय राजनीति के लिए दूरगामी परिणाम दे सकता है.