छत्तीसगढ़ का अबूझमाड़ दुनिया की सबसे रहस्यमयी जगहों में से है. लगभग साढ़े चार हजार वर्ग किलोमीटर में फैली इस जगह में कितने जंगल, कितनी घाटियां और कितने पहाड़ हैं, इसका कोई अंदाजा नहीं. इसका सर्वे कराने की कोशिश सैकड़ों सालों से होती रही लेकिन कभी कामयाबी नहीं मिल सकी. अब यही अबूझमाड़ नक्सलियों का खुफिया ठिकाना बना हुआ है, जहां से वे अपने घातक इरादों को अंजाम दे रहे हैं. लेकिन ऐसा क्या है अबूझमाड़ में, जो वहां जाना इतना मुश्किल है?
अबूझमाड़ यानी जिनका पता न लगाया जा सके, ऐसे जंगल, पहाड़ों और बेहद उपजाऊ मैदानों से बनी ये जगह क्षेत्रफल के मामले में गोवा से कुछ बड़ी है, लेकिन गोवा से बिल्कुल अलग. यहां लोगों की आवाजाही तो दूर, ये भी नहीं पता कि गांवों में कितने लोग रहते हैं या किनके पास कितनी जमीन है और कैसी पैदावार हो रही है.
अकबर के समय में हुई थी कोशिश
जब मुगल देश में अपनी जमीन मजबूत कर रहे थे, तब उन्होंने इसका सर्वे कराने की कोशिश की थी. वैसे इसका सीधा रेफरेंस या दस्तावेज नहीं मिलता लेकिन जॉन एफ रिचर्ड्स की किताब द मुगल एंपायर में जिक्र है कि दिल्ली पर राज करने वाले राजे-महाराजे भी कई इलाकों में प्रवेश नहीं कर पाए थे, अबूझमाड़ इनमें से एक था.
माना जाता है कि मुगल काल के दौरान, खासकर अकबर के दौर में देश के अलग-अलग इलाकों के सर्वे और वहां प्रशासनिक व्यवस्था बनाने की कोशिश हुई थी. हालांकि अबूझमाड़ में वे चूक गए क्योंकि वहां के घने जंगलों के भीतर घुस पाना बेहद मुश्किल था. साथ ही साथ यहां रहने वाले लोग दुनिया के कटे हुए थे और बाहरियों को देखते ही आक्रामक हो जाते थे.
इसके अलावा कई और प्राकृतिक बाधाएं भी रही होंगी, जैसे वहां के घातक जंगली पशु और जहरीले सांप-बिच्छू. अब भी माना जाता है कि हजारों वर्ग किलोमीटर में पेड़-पौधों से लेकर जानवर भी अलग किस्म के हैं, जिसका अंदाजा इनपर काम करने वाले एक्सपर्ट्स को भी नहीं.
ब्रिटिश दौर में भी एक नहीं, कई प्रयास
इस इलाके की भौगोलिक स्थिति, यहां के संसाधन और मैनपावर का पता लगाने के लिए अंग्रेजों ने सैन्य और सर्वे टीमें तैयार कीं. लेकिन ये इलाका घने जंगलों, पहाड़ियों और मुश्किल रास्तों से भरा हुआ था, जहां भीतर तक पहुंचना लगभग नामुमकिन था. इसपर बड़ी समस्या ये थी कि सीमा पर रहते गांववाले ही सर्वे टीमों पर हमलावर हो गए. वे अंग्रेजी टैक्स व्यवस्था के खिलाफ थे, और चाहते थे कि जमीन, जंगल और जल सोर्सेज पर पूरी तरह से उनका अपना कंट्रोल रहे.
जनजातियों ने कर दी बगावत
आदिवासी समुदायों की अपनी पारंपरिक जीवनशैली थी, जहां वे आजादी से जमीन और बाकी रिसोर्सेज का उपयोग करते, जबकि अंग्रेजों के लिए वो आर्थिक संसाधन था. ब्रिटिश सरकार ने साल 1909 में लगान वसूली के लिये इलाके का सर्वे शुरू किया लेकिन वह भी अधूरा रह गया क्योंकि दखलंदाजी के चलते कई बड़े विद्रोह हुए, जैसे गोंड और माड़िया जनजातियों की बगावत.
हाल के सालों में अबूझमाड़ फिर चर्चा में आया. बीते कुछ समय में खदेड़े हुए नक्सली संगठनों ने यहां अपनी साख बना ली और दुर्गम इलाकों को ठिकानों की तरह इस्तेमाल करने लगे. सरकारी एजेंसियां भले ही अब भी यहां का सर्वे चाहती हैं लेकिन सुरक्षा वजहों से वे यह किला भेद नहीं पा रहीं.
मैप में भी इसका साफ विवरण नहीं
साल 1960 के दशक तक इसे अनमैप्ड टैरिटरी के तौर पर ही रखा गया. भारतीय सर्वेक्षण विभाग के नक्शों में इसे अक्सर खाली क्षेत्र या गहरे हरे रंग से दिखाया जाता है लेकिन बाकी जगहों की तरह इसकी सटीक डिटेलिंग नहीं मिल सकी. इसकी एक वजह आदिवासियों की निजता का सम्मान भी है. वे नहीं चाहते कि उनके यहां दुनिया के पांव पड़े, लिहाजा अब तक सरकारें इसे मानती चली आई हैं. नक्सलवाद पर सरकारी दस्तावेजों में इसे रेड जोन की तरह रखा गया है लेकिन इसकी डिटेलिंग भी सार्वजनिक तौर पर उपलब्ध नहीं.
खेत भी लगातार बनते-मिटते रहते हैं
दक्षिणी छत्तीसगढ़ के बस्तर में फैले इस क्षेत्र का कुछ हिस्सा महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश से भी लगता है. गूगल मैप से पता लगता है कि यहां सीमा से सटे हिस्सों के अलावा कोई सड़क या इंफ्रास्ट्रक्चर नहीं. यहां तक कि गांवों की सीमाएं भी बदलती रहती हैं, क्योंकि यहां बसने वाली जनजातियां जगह बदल-बदलकर खेती-बाड़ी करती हैं. ये झूम खेती है, जो जंगलों को काटकर और जलाकर राख पर होती है. इसके लिए जनजातियां जंगल के एक हिस्से को चुनती हैं और जब वो जमीन किसी हद तक बंजर होने लगती है, गांव वाले उस हिस्से को छोड़कर कहीं और खेती-बाड़ी करते और वहीं बस जाते हैं.
जितना हवाई सर्वे हो सका और जितना कुछ शोधार्थी छानकर ला सके, उससे इस क्षेत्र का हल्का-फुल्का ही अंदाजा होता है. नारायणपुर ब्लॉक की आखिरी पंचायत है ब्रहीबीड़ा. इस पंचायत की सीमा खत्म होते ही अबूझ की सीमाएं शुरू हो जाती हैं. यहीं पर सुरक्षा दस्ते भी आते-जाते हैं लेकिन इससे आगे रास्ता बंद है.
बीबीसी की एक रिपोर्ट के अनुसार, यहां से आगे की दुनिया सुरक्षा बल तो दूर, सीमा से सटे गांववालों ने भी नहीं देखी होगी. हालांकि नक्सलियों की वहां रोजाना की आवाजाही है, लेकिन ये पता नहीं लग सका कि उन्होंने इस अबूझ हिस्से का यकीन कैसे जीता और कैसे उसे अपना गढ़ बना डाला. या फिर वे भी बाहर ही बाहर ठहरे हुए हैं, जिससे अबूझ जनजातियों को कोई खतरा नहीं.
कौन सी जनजातियां रहती हैं और कौन से गांव
माड़िया गोंड जनजाति अबूझमाड़ की मेन जनजाति है, जिसकी जड़े मध्य भारत में भी फैली हैं. ये लोग अपनी पारंपरिक जीवनशैली के लिए जाने जाते हैं.
घोटूल पर हुई थी काफी बात
घोटूल भी इन्हीं की देन है, जहां युवा लड़के-लड़कियां मिलते और अपनी पसंद का साथी खोज सकते हैं. साथ ही ये कम्युनिटी लर्निंग का भी सेंटर रहा. ये उनकी परंपरा का हिस्सा है लेकिन अस्सी-नब्बे के दशक में मीडिया ने इसपर काफी निगेटिव रिपोर्टिंग की, और इस जगह को यौन आजादी से जोड़ दिया. यहां तक कि यकीन जीतकर वहां पहुंचे कई संस्थानों ने इसपर ऊटपटांग डॉक्युमेंट्री भी बनाईं, जिसके बाद से जनजातियां बाहरियों को लेकर उतनी खुली नहीं रहीं. वैसे माड़िया के अलावा यहां हल्बा, धुरवा और गोड़ ट्राइब्स भी हैं, जो अलग बोली और कल्चर को मानते हैं.
बेहद जटिल जंगलों में रहती इन जनजातियां का बाहरी दुनिया से जुड़ाव नमक और तेल से ज्यादा नहीं. इसके लिए भी वे ज्यादा बाहर नहीं आते, बल्कि नारायणपुर की सीमा पर बसे गांवों से संपर्क रखते हैं और वीकली बाजारों से सामान लेकर लौट जाते हैं. अनुमान है कि इस इलाके के भीतर लगभग 230 गांव बसे हुए हैं. कई बार इनके सर्वे की बात हुई ताकि योजनाओं का फायदा भीतर तक पहुंच सके, लेकिन किसी न किसी वजह से इसमें रुकावट आती रही.