छत्तीसगढ़ के बीजापुर में नक्सली हमले के बाद बंधक बनाए गए सीआरपीएफ के जवान राकेश्वर सिंह मनहास को छुड़ाने के लिए सरकार ने पद्मश्री धर्मपाल सैनी को चुना था. 91 साल के सैनी ने बखूबी इस काम को अंजाम तक पहुंचाया. धर्मपाल सैनी को 6 अप्रैल की शाम पुलिस-प्रशासन की तरफ फोन गया. जिसके बाद वह जवान को छुड़ाने के लिए नक्सलियों से मध्यस्थता के लिए तैयार हो गए.
धर्मपाल सैनी, गोंडवाना समाज के अध्यक्ष समेत एक महिला सदस्य को लेकर जगदलपुर से बीजापुर जिले के लिए निकल पड़े. रात करीब 12 बजे तररेम थाने पहुंचे और वहीं रात बिताई. फिर दूसरे दिन बीजापुर के पत्रकारों के साथ नक्सलियों द्वारा आयोजित जन अदालत के लिये निकल पड़े.
धर्मपाल सैनी ने 'आज तक' से कहा कि नक्सलियों ने जवान को छोड़ने के लिए किसी भी प्रकार की कोई शर्त नहीं रखी थी. बस उन्होंने यह कहा कि जब जवान अपने परिवार के बीच पहुंच जाए तो उन्हें उसकी एक तस्वीर चाहिए. नक्सलियों ने धर्मपाल सैनी से यह भी कहा कि हम जवान को सकुशल छोड़ रहे हैं, लेकिन सरकार को भी चाहिए कि नक्सली मामलों में वर्षों से जेलों में बंद आदिवासियों को छोड़ने पर विचार करे.
करीब 3 घंटे जन अदालत में रहने के बाद धर्मपाल सैनी बीजापुर जिले के पत्रकारों के साथ जवान को सकुशल तररेम थाने तक लेकर आये और वहां से बासागुड़ा बेस कैंप में जवान को सौंपा दिया. धर्मपाल सैनी ने आज तक से बातचीत करते हुए बताया कि नक्सलियों द्वारा लगाए गए जन अदालत में 13 साल से लेकर 28 साल तक के युवा ही नजर आ रहे थे. आसपास के 20 गांव के लोग इस जन अदालत में बुलाए गए थे. उनके सामने ही सभी लोगों से महिला नक्सली कमांडर ने जवान को छोड़े जाने की पेशकश की.
इक्का-दुक्का को छोड़ सभी ने जवान को छोड़े जाने पर हामी भरी. नक्सली कमांडरों ने ग्रामवासियों की मौजूदगी में ही मध्यस्थता दल को जवान को सौंपा. धर्मपाल सैनी के नेतृत्व में बीजापुर जिले के पत्रकार भी शामिल थे. वही धर्मपाल सैनी को उस स्थान पर लेकर गए, जहां नक्सलियों ने जन अदालत लगाने की सूचना दी थी.
इस बीहड़ इलाके में केवल दो पहिया वाहन से ही पहुंचा जा सकता है. लिहाजा धर्मपाल सैनी को स्थानीय मीडियाकर्मी अपनी बाइक में बिठाकर मौके पर ले गए. उनके साथ बीजापुर के पत्रकार रंजन दास, गणेश मिश्रा, चेतन, यूकेश चंद्राकर, मुकेश चंद्राकर मौजूद थे. उन्होंने बताया कि जवान की लोकेशन मिलने के बाद लगातार वे नक्सलियों के संपर्क में थे. अंदर की तरफ से भी लगातार उन तक सूचनाएं आ रहीं थी. जिसे देखते हुए पत्रकार साथियों ने जवान को छुड़ाने का फैसला लिया और बिना सोचे जंगल की तरफ बढ़ गये.
7 अप्रैल को उन्हें तररेम के आगे एक गांव में रुकने को कहा गया दूसरे दिन उस गांव से करीब 8 किलोमीटर दूर अंदर बुलाया गया, जहां जन अदालत लगाई गई थी. अदालत में ही नक्सलियों ने ग्राम वासियों की सहमति के बाद जवान को रिहा किया. बीजापुर के पत्रकारों ने कहा कि यह पहली दफा नहीं कि नक्सलियों ने किसी जवान को बंधक बनाया है. इससे पूर्व भी कई ऐसी वारदातें हो चुकी हैं, जिसमें स्थानीय पत्रकारों ने मध्यस्थता टीम या स्वयं जाकर जवानों को छुड़ाया है.
बस्तर के पत्रकार शांति के पक्षधर हैं और वह नहीं चाहते कि किसी प्रकार का नुकसान फोर्स के जवानों या आम नागरिकों को हो लिहाजा वह हर बार, हर वक्त लोगों की मदद के लिए तत्पर रहते हैं.
रिपोर्ट - धर्मेन्द्र महापात्र