छत्तीसगढ़ में जंगलों से इमली इकट्ठा करने वाले और उसकी पैदावार करने वाले आदिवासियों की कमर टूट गई है. स्थानीय बाजार में इमली का दाम 20 रुपए किलो तक आ गया है. सस्ती इमली खरीदकर बिचौलिए मुनाफा कमा रहे हैं, लेकिन आदिवासियों के हाथ कुछ नहीं आ रहा.
आदिवासी प्रधानमंत्री से इमली का समर्थन मूल्य बढ़ाने की मांग कर रहे हैं, लेकिन उन्हें सिर्फ आश्वासन ही मिल रहा है. पाकिस्तान में इमली का निर्यात बंद होने के बाद आदिवासियों की आर्थिक हालत बद से बदतर होती जा रही है.
हफ्ते भर पहले अपने छत्तीसगढ़ दौरे पर नक्सल प्रभावित बीजापुर पहुंचे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इमली बेचकर अपना जीवन यापन करने वाले आदिवासियों की आमदनी बढ़ाने का नुस्खा दिया, लेकिन ये नुस्खा यहां के आदिवासियों के लिए आखिर कैसे कारगर साबित होगा जब यहां प्रोसेसिंग यूनिट ही नहीं है, और ना ही इमली को सुरक्षित रखने के दूसरे विकल्प और ठिकाने.
कीमत में आई गिरावट
ऐसे में इमली के दाम गिरकर जमीन पर आ जाना लाजिमी है. बस्तर में इमली के दाम बाजार भाव 80 रुपए किलो से गिरकर 20 रुपए किलो तक पहुंच गया है. ऐसे में इमली की पैदावार करने से लेकर इसे जंगलों से इकट्ठा करने वाले आदिवसियों को बमुश्किल दिनभर का मेहताना 20 से 30 रुपए ही मिल पा रहा है. दरअसल इमली का समर्थन मूल्य कई सालों से 20 रुपए के भीतर ही स्थिर है. उसमें कोई बढ़ोतरी नहीं हो पाई है.
इसके बावजूद इसके खरीददार समर्थन मूल्य से भी कम कीमत आंकतें हैं. लिहाजा ये आदिवासी अपनी आर्थिक बदहाली दूर करने के लिए इमली का सरकारी दाम नए सिरे से तय करने की मांग कर रहे हैं. ताकि इन्हें औसत मजदूरी तो मिल सके.
इमली की मांग देश में सिर्फ दक्षिणी राज्यों में है. शेष राज्यों में इसकी औसतन मांग ही रहती है. बस्तर में इमली की जबरदस्त पैदावार होती है. यहां इसके भारी भरकम जंगल हैं. इससे आदिवासियों को रोजी-रोटी का सहारा मिल जाता है. तीन साल पहले तक यहां से हर माह करोड़ों की इमली की खरीददारी होती थी.
बड़ी खेप जाता रहा है पाकिस्तान
स्थानीय कारोबारियों, व्यापारियों और बिचौलियों का यहां तांता लगा रहता था. इमली के कारोबारी यहां से इमली की खेप पाकिस्तान निर्यात किया करते थे, लेकिन पिछले तीन-चार सालों से भारत-पाकिस्तान के बीच तनाव भरा माहौल होने से इमली का निर्यात पूरी तरह से ठप पड़ गया है. इससे आदिवासियों की आर्थिक हालात दिनों दिन कमजोर होती चली गई. पहले वे 80 रुपए किलो की दर पर इमली बेचा करते थे, लेकिन अब इमली का उठाव नहीं होने से उन्हें भारी चपत लग रही है. इमली के दाम में भी काफी गिरावट आ गई है.
इमली का कारोबार ठप पड़ने और 'आमदनी अठ्ठनी और खर्चा रुपया' वाली स्थिति ने बस्तर के हजारों आदिवासियों की मुश्किलें बढ़ा दी है. इस इलाके में रोजगार के कोई ठोस साधन नहीं हैं. मनरेगा समेत दूसरे विकास कार्यों को नक्सली चलने नहीं देते. ऐसे में आदिवासियों के पास रोजी-रोटी की समस्या बन गई है.