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1984 सिख दंगा: 33 साल बाद भी न पीड़ितों को मुआवजा-न कातिलों को सजा

अखिल भारतीय दंगा पीड़ित राहत कमेटी ने इस बारे में सबूत जुटाए हैं. कमेटी के अध्यक्ष कुलदीप सिंह भोगल के मुताबिक कानपुर के काकादेव थाना इलाके में 15 सिखों की हत्या हुई थी. इसकी तसदीक आरटीआई याचिका पर सरकार के जवाब से होती है, लेकिन थाने के रिकॉर्ड में 1984 में अक्टूबर के आखिरी दिन और नवंबर के दौरान हत्या का एक भी मुकदमा दर्ज नहीं है.

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प्रतीकात्मक तस्वीर
प्रतीकात्मक तस्वीर

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1984 के नवंबर में हुए सिख विरोधी दंगों के दौरान कानपुर में भी कई सिखों की हत्या हुई. इस दंगे को 33 साल बीत गए, लेकिन अब भी दंगों की जांच में गड़बड़ियों के सबूत सामने आ रहे हैं. सिर्फ कानपुर की ही बात करें तो कई थाना क्षेत्रों में दर्जनों सिख दंगों के शिकार हुए, लेकिन अब तक एफआईआर दर्ज नहीं हुई. कुछ जगह बिना एफआईआर के ही मुआवजा तक बांट दिया गया. सुप्रीम कोर्ट में भी ये सुनवाई लंबित है. कोर्ट ने बुधवार को हुई सुनवाई में साफ कहा कि 11 दिसंबर को केंद्र और यूपी सरकार अब तक की गई कार्रवाई की सीलबंद रिपोर्ट पेश करे. यानी मुआवजे किनको कितने दिए गए और सजा किनको कितनी.

अखिल भारतीय दंगा पीड़ित राहत कमेटी ने इस बारे में सबूत जुटाए हैं. कमेटी के अध्यक्ष कुलदीप सिंह भोगल के मुताबिक कानपुर के काकादेव थाना इलाके में 15 सिखों की हत्या हुई थी. इसकी तसदीक आरटीआई याचिका पर सरकार के जवाब से होती है, लेकिन थाने के रिकॉर्ड में 1984 में अक्टूबर के आखिरी दिन और नवंबर के दौरान हत्या का एक भी मुकदमा दर्ज नहीं है. थाने के इंचार्ज कहते हैं कि हमारे रिकॉर्ड में हत्या की धारा में कोई मुकदमा दर्ज नहीं है. सिख विरोधी मुकदमे दर्ज हैं भी तो आगजनी और दंगा फसाद करने की धाराओं में. पुलिस कहती है कि एफआईआर ही नहीं है, जबकि जिले के दंगा राहत के नोडल ऑफिसर की रिपोर्ट कहती है कि हां उन दंगों में 15 सिख मारे गए थे. अब फैसला सरकार और अदालत को करना है कि गड़बड़ कहां है और कौन कर रहा है.

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वहीं, दूसरे थाने नजीराबाद में सिख विरोधी दंगे की एक एफआईआर तो दर्ज है. इसमें एक शख्स की हत्या का केस भी दर्ज किया गया है. लेकिन यहां मुश्किल है कि घटना के तीसरे महीने ही यानी जनवरी 1985 में क्लोजर रिपोर्ट भी दर्ज कर दी गई और मामले को रफा दफा कर दिया गया. यानी 90 दिन की मियाद में जहां चार्जशीट दाखिल होती है वहां तो जांच एजेंसी (यूपी पुलिस) ने मामले की फाइल ही निपटा दी. यहां की हकीकत ये है कि एक ही परिवार के 11 लोगों की हत्या हुई. सिद्धू परिवार के इन सदस्यों की हत्या के जुर्म में कोई एफआईआर दर्ज नहीं. बिना एफआईआर के छह मृतकों के परिजनों को पांच-पांच लाख रुपए मुआवजा भी मिल चुका है. इस पांच-पांच लाख रुपए मुआवजे की दिलचस्प कहानी है. ये मुआवजे उनको पहले मिले हैं, जिनको साढ़े तीन लाख रुपए की सहायता राशि पहले मिल चुकी है. यानी बाद में सिर्फ डेढ़ लाख रुपए मिले.  

इस मामले की पड़ताल में जुटे अखिल भारतीय दंगा पीड़ित राहत कमेटी के अवतार सिंह हित ने कहा कि सिख भावनाओं को उभार कर राजनीति तो बीजेपी ने भी की. केंद्र और राज्य में अब तो बीजेपी सरकार है. ना कोई एसआईटी बनी और ना ही इन गड़बड़ियों की अब तक जांच शुरू हुई. हमारा भरोसा तो उठना ही है. अकाली नेता कुलदीप सिंह भोगल का कहना है कि ये तो एक शहर के सिर्फ दो थानों की हकीकत है. ऐसे कई शहर और मोहल्ले हैं जहां मौत और खौफ का नंगा नाच हुआ था. सजा के नाम पर इन 33 सालों में अब तक कुछ नहीं हुआ. सरकार कांग्रेस की आई और बीजेपी की भी. हमारी पार्टी इसी उम्मीद में सरकार के साथ रही कि कुछ होगा, लेकिन अब तक तो सिर्फ खोखले दावों और वादों के अलावा कुछ नहीं हुआ.

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उत्तर प्रदेश के सरकारी रिकॉर्ड के मुताबिक 2016 तक 127 लोगों के 1984 के दंगे में मारे जाने की तस्दीक हुई. 115 को मुआवजा मिला. बाकी अब तक भटक रहे हैं या निराश हो चुके हैं. उनकी एफआईआर या तो दर्ज नहीं हुई या रिकॉर्ड नष्ट कर दिया गया. 

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