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AAP नेता राकेश पारिख बोले, 'केजरीवाल जी आपको आलोचना पसंद नहीं और मुझे चापलूसी'

आम आदमी पार्टी में उठता बगावती धुआं अब आग में तब्दील हो गया है. पार्टी में एक के बाद एक आरोप, स्ट‍िंग और अपनों की बेरुखी का सिलसिला चल पड़ा है. एक और 'आप' नेता राकेश पारिख ने पार्टी की कार्यशैली, बदलती नीति और 'केजरीवाल केंद्रि‍त' होने का आरोप लगाया है. पारिख ने अपने ब्लॉग के जरिए केजरीवाल से कई सवाल किए हैं.

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AAP नेता डॉ. राकेश पारिख
AAP नेता डॉ. राकेश पारिख

आम आदमी पार्टी में उठता बगावती धुआं अब आग में तब्दील हो गया है. पार्टी में एक के बाद एक आरोप, स्ट‍िंग और अपनों की बेरुखी का सिलसिला चल पड़ा है. प्रशांत भूषण, योगेंद्र यादव, राजेश गर्ग और शाहिद आजाद के बाद अब एक और 'आप' नेता राकेश पारिख ने पार्टी की कार्यशैली, बदलती नीति और 'केजरीवाल केंद्रि‍त' होने का आरोप लगाया है. पारिख ने अपने ब्लॉग पर एक लेख के जरिए पार्टी के राष्ट्रीय संयोजक अरविंद केजरीवाल से कई सवाल किए हैं.

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'अरविंद “आप” को क्या हो गया?' शीर्षक से लिखे गए इस लेख में डॉ. राकेश पारिख ने केजरीवाल से सवाल किया है कि क्या पार्टी में अब सवाल पूछने का अधिकार किसी को नहीं है? उन्होंने शांति भूषण का जिक्र करते हुए लिखा है कि क्या 80 साल की उम्र में पार्टी के उस साधारण सदस्य को अपनी राय रखने का अधिकार नहीं है? पार्टी में गुटबाजी पर विरोध प्रकट करते हुए डॉ. पारिख ने चिट्ठी के अंत में लिखा है कि वह यह बातें राष्ट्रीय परिषद में रखना चाहते थे, लेकिन उन्होंने अपनी बात कहने तक का मौका नहीं दिया गया.

पढ़े, डॉ. राकेश पारिख का पूरा लेख-

AC कमरों और गाड़ि‍यों का आराम छोड़कर जंतर-मंतर पर बिना गद्दे और तकिए के बिताए वो दिन सचमुच यादगार हैं. ये वो दिन थे जब नींद 16 घंटे के बजाय 70 घंटे काम करने के बाद आती. और फिर 2 अगस्त की वो शाम जब अन्ना जी ने राजनैतिक विकल्प देने की घोषणा कर दी. टीवी पर खबर देखते ही पत्नी का फोन आया. उसने कहा, 'तुरंत वापस आ जाओ. हमें बेवकूफ बनाया गया है. आन्दोलन के नाम पर हमारी भावनाओं से खेलकर ये लोग राजनीति कर रहे हैं.' याद होगा आपको मैंने बताया था, उसने मुझे तलाक की धमकी तक दे डाली थी. अगली मुलाकात में आपने पूछा था 'अब क्या कहती है भाभी जी?' अब तक तो मैं उसे समझाता रहा, लेकिन आज क्या जवाब दूं?

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मिशन बुनियाद जयपुर में हुआ. कार्यक्रम का आयोजन किया और सभी के आग्रह के बावजूद मैं जयपुर जिला कार्यकारिणी से बाहर रहा. एक अच्छे राजनैतिक विकल्प का बुनियादी ढांचा अपने जिले में बन जाए यही तक मैंने अपनी भूमिका सोची थी. उसके 2 महीनो बाद कौशांबी कार्यालय में हुई वो मुलाकात भी याद भी होगी, जब मनीष जी ने मुझसे कहा था, 'अच्छे लोग अपनी जिम्मेदारियों से भागते हैं और फिर शिकायत करते हैं की राजनीति गंदी है. आपको जिम्मेदारी लेनी होगी डॉ साहब. कुछ दिनों बाद वो प्रदेश कार्यकारिणी बनाने जयपुर आए. मेरे घर रुके और फिर उन्हीं भावुक तर्कों के साथ मुझे राजस्थान सचिव की जिम्मेदारी सौंप दी. कौशांबी कार्यालय में हुई उसी मुलाकात में मैंने कहा था आप दोनों से 'आजादी की लड़ाई का सिपाही हूं, गुलामी अपने सेनापति की भी नहीं करूंगा.' मेरे तेवर तो आपने उस दिन ही भांप लिए होंगे. यदि जी हुजूरी करनी होती तो इतना संघर्ष ही क्यों करते? क्या हमें आज राजनीति में अपना भविष्य बनाने को आए, जी हुजूरी करने वाले लोगों की ही आवश्यकता रह गई? सवाल पूछने वालों की नहीं?

आगे पढ़ें, जब 12 हजार लोगों के दस्तखत लेकर आए थे पारिख...{mospagebreak}लोकसभा चुनाव हुए, राजस्थान में प्रत्याशियों की स्क्रीनिंग की जिम्मेदारी भी संभाली. 22 प्रत्याशी भी उतारे, लेकिन ये तो आप भी जानते हैं कि मैंने खुद चुनाव लड़ने की इच्छा कभी नहीं रखी. कार्यकर्ताओं को हमेशा यही कहता रहा की हमारी जिम्मेदारी है समाज के अच्छे से अच्छे लोगों को ढूंढ़ कर राजनीति में लाना. उन्हें चुनाव लड़ने के लिए तैयार करना. यदि हम मान ले की हम ही सबसे अच्छे हैं तो हमारी खोज खत्म हो जाएगी. राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठकों में भी मैंने ये प्रस्ताव कई बार रखा कि संघटन में जिम्मेदार पदों पर बैठे लोगों को चुनाव नहीं लड़ना चाहिए. और देखिए ये राजनीति हमें कहा ले आई? चुनाव लड़ने की, मंत्री बनने की इच्छा रखना सही है, लेकिन सवाल पूछना गलत?

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आज शांति भूषण जी जैसे वरिष्ठ सदस्य का खुले आम अपमान हो रहा है. 80 साल की उम्र में क्या पार्टी के उस साधारण सदस्य को अपनी राय रखने का अधिकार नहीं? संविधान की धारा VI A (a) iv में हमने लिखा है कि पार्टी के हर सदस्य को (जो जिम्मेदार पदों पर नहीं है) अपनी राय सार्वजनिक मंच पर रखने का अधिकार होगा. हमने एक ऐसी पार्टी बनाई थी, जिसमें किसी भी साधारण सदस्य को सोनिया गांधी या नरेंद्र मोदी के विचारों से असहमत होने का अधिकार हो. जिंदगीभर साफ राजनीति की उम्मीद लेकर बैठे उस बुजुर्ग को उम्र के आखि‍री पड़ाव में उम्मीद की एक किरण दिखाई दी थी. मैं जानता हूं कि उनकी आंखों में आंख डालकर आप वो नहीं कह सकते जो 'आप' के प्रवक्ता टीवी पर कहते हैं. क्या हमारी पार्टी में अब भिन्न राय रखने वालों को गद्दार ही कहा जाएगा?

आपके पास 12 हजार लोगों के दस्तखत लेकर आया था. निवेदन करने की आप सुरक्षा लीजिए. आपने कहा था, 'इस आंदोलन का एक लक्ष्य यह भी है कि लोगों के मन से भय समाप्त हो. वो बोलने की हिम्मत जुटा सकें.' लेकिन वास्तविकता यह है की आज सच कहने में ही भय लगता है. सोशल मीडिया पर बनी हुई फौज उस व्यक्ति को दोषी नहीं मानती जो पार्टी के अंदरूनी ईमेल एक साजिश के तहत लीक करे या पार्टी के ही पुराने कार्यकर्ताओ के खिलाफ साजिश कर झूठे SMS भेज उन्हें बदनाम करे. लेकिन ऐसे समय जब आप देश की राजनीति के बेताज बादशाह हो आपसे सवाल करने की हिम्मत जुटाए उसे गद्दार, देशद्रोही और जाने किन-किन नामों से नवाजती है. क्या हम वास्तव में एक भय मुक्त समाज बना रहे हैं?

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मैं राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में आपसे ये सवाल बिना भय करता आया हूं कि क्या 'आप' यानी सिर्फ अरविन्द केजरीवाल हैं? क्या देश माने सिर्फ दिल्ली है? आपके सामने यह सवाल रखने का साहस तो हमेशा था, लेकिन आज यही सवाल पूछना तो देशद्रोह से भी बड़ा अपराध बन गया है. हमने पार्टी बनाई तो नारा दिया था 'आम आदमी जिंदाबाद'. हमने टोपी पर लिखा था, 'मुझे चाहिए स्वराज' और आज स्वराज की बात करने वालों को पार्टी विरोधी कहा जाता है. हमारी पार्टी की विचारधारा, जो आप ही की लिखी पुस्तक पर आधारित है, उसमें तो स्वराज एक बड़ा ही पावन शब्द था. मानता हूं कि स्वराज का अर्थ यह नहीं कि मेरे जैसा एक साधारण कार्यकर्ता आपके बड़े निर्णयों में हस्तक्षेप करे. निर्णय आप करें, लेकिन हमें अपनी बात तो रखने दें. बैठक तो होने दें. या वह भी स्वराज के खिलाफ है? आपको शायद जानकारी न हो हमारे ही कार्यकर्ता स्वराज शब्द को उपयोग चुटकुलों में करते हैं. सवाल पूछने वालों की खिल्ली उड़ाने के लिए.

आगे पढ़ें, AAP के देशद्रोह की असलियत!{mospagebreak}330 संस्थापक सदस्यों ने मिलकर पार्टी बनाई. देश भर के 300 से अधिक जिलों में हमारी इकाईयां हैं. अपने घरो को फूंक कर हजारो कार्यकर्ता इस आंदोलन की लौ को देशभर में जीवित रख रहे हैं. उनकी पचासों समस्याएं हैं, सवाल हैं. आज पार्टी बने 3 साल हो गए. स्थापना के बाद परिषद् की केवल एक बैठक हुई वो भी एक दिन की. आज तक उन सदस्यों को कभी सुना नहीं गया. पिछली बैठक में आपने ये वादा किया था की अगली बैठक 3 दिनों की होगी. बहुत मिन्नतें की, लेकिन फिर भी कोई उन्हें सुनना ही नहीं चाहता. 28 मार्च की बैठक में औपचारिकताएं पूरी होगी, 31 मार्च को इन सभी की सदस्यता समाप्त होगी और फिर उम्मीद है कि सवाल पूछने वाले उस परिषद् के सदस्य नहीं होंगें. जानता हूं कि आपको आलोचना पसंद नहीं, लेकिन मुझे चापलूसी पसंद नहीं. आपकी तारीफ करने वाले तो करोड़ों हैं. सौ दो सौ तो सवाल पूछने वाले भी हो?

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आप समेत राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सभी सदस्यों को मेल लिखकर निवेदन किया था की परिषद् की बैठक कम से कम 2-3 दिनों की रखिए. हमारी समस्याएं सुनिए और उसी मेल में मैंने सभी परिषद् सदस्यों से भी निवेदन किया था कि अधिकारिक बैठक न सही, हम अनौपचारिक बैठक करें. क्या यह भी देशद्रोह है? हमारी सोशल मीडिया टीम की समझ के अनुसार तो है. राष्ट्रीय परिषद की बैठक की मांग को लेकर 45 सदस्यों के पत्र जो आपको भेजे थे, क्या वो कोई षड्यंत्र था? बैठक से पहले अनौपचारिक ही सही सभी सदस्य चर्चा कर पाए इस उद्देश् से आप ही को भेजा हुआ मेल क्या कोई साजिश हो सकती है? परिषद् के सदस्य यदि अपने विचार एक दूसरे के साथ साझा करते हैं और अपने मुद्दों को परिषद् की बैठक में उठाते हैं तो क्या हो जाएगा? किस बात का भय है? और किसे? क्यों हम चर्चा से इतने भागने लगे? परिषद् में शायद ही कोई सदस्य हो जो आपके नेतृत्व पर सवाल उठाए. लेकिन आप के नाम का उपयोग कर इस राजनैतिक आंदोलन को दूषित करने वालों को निश्चित भय होना चाहिए. परिषद् के सदस्य उनसे खफा जरूर हैं और इस बैठक को नाम दिया गया केजरीवाल के खिलाफ साजिश.

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खैर, ये विश्वास है कि आप के नेतृत्व में यह पार्टी देश की राजनीति में एक बहुत बड़ा बदलाव लाएगी. हो सकता है आंदोलनकारियों की अब आवश्यकता न हो. और यह भी विश्वास है कि आपके रहते कोई गलत आदमी इस पार्टी में आ तो सकता है, लेकिन गलत काम आप उसे करने नहीं देंगे. लेकिन अरविंद जी व्यक्ति केंद्रित बदलाव दीर्घकालीन नहीं हो सकता. किसी प्रभावशाली नेता द्वारा बनाई व्यवस्था केवल तब तक टिक पाती है जब तक वह व्यक्ति खुद सत्ता में हो.

अंत में 'आप' की सोशल मीडिया फौज से हाथ जोड़कर निवेदन- राजनीती में भविष्य बनाने के लिए आए लोग सवाल नहीं पूछते. दिल्ली में इतनी बड़ी जीत मिलने के बाद सवाल पूछने का साहस कोई समझदार नेता नहीं कर सकता. ये हिम्मत तो वही कर सकते हैं जिन्हें अपने नहीं इस वैकल्पिक राजनीति के सपने की फिक्र हो. हमने आंदोलन में अपनी भूमिका ऐसे ही निभाई. हमें न टिकट चाहिए, न पद, न कोई सम्मान. बस एक निवेदन है कि इस टोपी की लाज रखें. सवाल पूछने वालों को अपमानित करने के लिए इतना नीचे न गिरे कि इस टोपी की गरिमा को चोट पहुंचे. जाने कितने परिवार स्वाहा हुए इस टोपी को बनाने में.

(अपने विचार निश्चित पार्टी के अंदरुनी मंच यानी राष्ट्रीय परिषद में ही रखता. लेकिन दुर्भाग्य से उस मंच पर बोलने का मौका न पिछले 3 साल में मिला न आगे मिलने के आसार दिख रहे हैं.)

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