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अगर 21वीं सदी को विकास के लिहाज से एशिया की सदी कहा जाता है तो इसे समस्याओं की सदी कहना भी गलत नहीं होगा. खासकर जब बात पर्यावरण, प्रदूषण और प्राकृतिक आपदाओं की हो तो. आज जिस प्रदूषण की समस्या से भारत जैसे विकासशील देश जूझ रहे हैं उसके हालात एशियन देशों में कितने गंभीर हो चुके हैं इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि आज दुनिया के 100 सबसे ज्यादा प्रदूषित शहरों में 94 भारत, चीन और पाकिस्तान जैसे एशियन देशों में हैं. इस लिस्ट में सबसे ज्यादा प्रदूषित 46 शहर भारत के शामिल हैं.
WHO के अनुसार दुनिया में हर साल 70 लाख लोगों की मौत Air Pollution से जुड़ी बीमारियों के कारण हो जाती है. सांस में जहरीली हवा लेने का नुकसान भारत में भी कम नहीं है. दुनिया के 10 सबसे ज्यादा प्रदूषित शहरों में दिल्ली पिछले हफ्ते टॉप पर आ गई थी तो कोलकाता और मुंबई भी 10 सबसे खराब हवा वाले शहरों की लिस्ट में शामिल थे. भारत में वायु प्रदूषण से जुड़ी बीमारियों के कारण हर साल लगभग 20 लाख लोगों की मौत हो जाती है. Greenpeace Southeast Asia और स्विस फर्म IQAir की एक स्टडी के मुताबिक साल 2020 में दिल्ली में Air Pollution के कारण 54000 लोगों की जान चली गई.
हालात गंभीर होने की ओर...
ये भी एक हिला देने वाला सच है कि दुनिया में हर 10 में 9 इंसान WHO के मानकों के अनुसार खराब हवा में सांस लेता है. डब्ल्यूएचओ के अनुसार 100 से अधिक AQI लेवल सांस या अन्य बीमारियों से जूझ रहे लोगों के लिए खतरनाक माना जाता है. भारत के अधिकांश बड़े और मध्यम स्तर के शहरों में AQI लेवल इससे ऊपर ही मिलता है. मध्यम और निम्न आय वाले देशों में प्रदूषण की समस्या तेजी से बढ़ती जा रही है. दुनिया में करीब 3 अरब लोग उन हालातों में जी रहे हैं जहां या तो स्वच्छ ईंधन मुहैया नहीं है, या लोग एयर पॉल्यूटिंग मशीनों के संपर्क में हैं या सांस में जहरीली हवा लेने को मजबूर हैं.
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हवा में मुख्य रूप से पांच तरह के पॉल्यूटेंट होते हैं जो सांसों में जहर घोलते हैं-
1. PM2.5 पॉल्यूटेंट
हवा में प्रदूषण के लिए सबसे ज्यादा दोषी PM2.5 पॉल्यूटेंट होते हैं. यानी ऐसे प्रदूषण कण जो डायमीटर में 2.5 माइक्रोन्स या उससे कम के यानी छोटे होते हैं. इन्हें सामान्य तौर पर आंखों से तो देखा नहीं जा सकता लेकिन ज्यादा लेवल बढ़ जाने पर आंखों में जलन के रूप में इसे महसूस किया जा सकता है. PM2.5 पॉल्यूटेंट कुकिंग और हीटिंग के लिए इस्तेमाल होने वाले ईंधन से, कूड़ा जलाने, खेती और इंडस्ट्री के कचरे से, गाड़ियों और धूल के कणों से आते हैं. यह सांसों के जरिए लंग्स तक जाकर नुकसान पहुंचाता है. इससे हार्ट-लंग्स के रोग, स्ट्रोक और कैंसर जैसी बीमारियों का खतरा रहता है. दिल्ली-मुंबई-लाहौर जैसे दुनिया के अधिकांश शहर इसी तरह के पॉल्यूटेंट से जूझ रहे हैं.
2. ग्राउंड लेवल ओजोन
इस तरह के पॉल्यूटेंट ज्यादा दिनों के लिए नहीं आते. बल्कि कुछ दिनों या एक-दो हफ्ते के लिए मुसीबत का कारण बनते हैं और फिर अपने आप खत्म हो जाते हैं. हालांकि ये काफी पावरफुल ग्रीन हाउस गैस माना जाता है. इसका निर्माण उद्योगों से निकला धुआं, ट्रैफिक, कूड़ा और ऊर्जा उत्पादन के लिए इस्तेमाल होने वाले ईंधन के सूरज की रौशनी के संपर्क में आने से होता है. इससे एक तरफ जहां स्मॉग, सांस में तकलीफ, अस्थमा, ब्रोंकाइटिस और लंग्स की समस्याएं पैदा होती हैं तो वहीं फसलों की उत्पादकता को भी नुकसान पहुंचता है. हर साल दुनियाभर में 5 लाख मौतें इस तरह के पॉल्यूटेंट के कारण होती हैं.
3. नाइट्रोजन डाईऑक्साइड
यह पॉल्यूटेंट नाइट्रोजन डाईऑक्साइड(NO2) और नाइट्रोजन मोनोक्साइड जैसे केमिकल कंपाउंड्स का समूह है. NO2 सबसे खतरनाक माना जाता है और उद्योगों के कचरे और मशीनों से उत्पन्न होता है. यह इंसान के दिल और लंग्स को नुकसान पहुंचाता है. साथ ही वातावरण में प्रदूषण कणों की भारी मात्रा के साथ ये दृश्यता को भी कम करता है.
4. ब्लैक कार्बन
ये PM2.5 पॉल्यूटेंट का एक हिस्सा होता है और काफी कम समय के लिए मौजूद रहता है. पराली जलाना और जंगलों की आग इस तरह के पॉल्यूटेंट का सबसे बड़ा स्रोत होते हैं. इसके अलावा डीजल इंजन, कचरा जलाने, स्टोव, उर्वरकों के इस्तेमाल, बायोमास ईंधन आदि के इस्तेमाल से भी ये उत्पन्न होता है. कमजोर स्वास्थ्य, प्रीमैच्योर डेथ और डिमेंशिया जैसी बीमारियों का खतरा इससे बढ़ता है. कड़े नियमों के कारण पिछले कुछ दशकों में विकसित देशों की हवा में ब्लैक कार्बन की मात्रा घट गई है. लेकिन गरीब और विकासशील देशों में ये समस्या ज्यादा पाई जाती है. ब्लैक कार्बन उत्सर्जन में एशिया-अफ्रीका और लैटिन अमेरिकी देशों में हालात सबसे खराब हैं.
5. मीथेन
मीथेन गैस ज्यादातर कृषि से जुड़े कामों, चारागाहों, सीवेज, ठोस कूड़ा निपटान और गैस उत्पादन आदि से मुख्य रूप से वातावरण में बढ़ती है. ग्राउंड लेवल ओजोन बढ़ाने में भी इसका काफी योगदान होता है. इससे प्रीमैच्योर मौतों और सांस की बीमारियों का खतरा बढ़ जाता है.
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कोयले को लेकर असमंजस में दुनिया!
ईंधन के परंपरागत साधनों में कोयला ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार है. अकेले करीब 20 फीसदी ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन कोयला के कारण होता है. ग्रीन हाउस गैसों की मात्रा बढ़ने से प्रदूषण के अलावा स्मॉग, एसिड रेन और सांस लेने की बीमारियां जैसी कई समस्याएं उत्पन्न होती है.
चीन दुनिया में सबसे ज्यादा कोयला इस्तेमाल करता है. इसके बाद भारत और फिर अमेरिका. साल 2019 तक चीन 4,876 TWh बिजली का उत्पादन कोयला से करता था. पूरी दुनिया को मिला भी लें तो ये अकेले सबसे ज्यादा था. लेकिन अगर आबादी के हिसाब से देखा जाए तो प्रति व्यक्ति बिजली उत्पादन के लिए कोयले के इस्तेमाल में ऑस्ट्रेलिया सबसे आगे है. भारत जैसे देशों में भी कमोबेश ऐसे ही हालात है. बढ़ती आबादी के लिए बिजली की बढ़ती जरूरतें और रिन्यूवेबल एनर्जी के स्रोतों की कम उपलब्धता के कारण विकासशील देशों के सामने कोयले के इस्तेमाल की मजबूरी बनी हुई है. बिजली उत्पादन में कोयले की निर्भरता आज की बात नहीं है. पांच दशकों से ऐसे ही हालात हैं. IAEA के आंकड़ों के अनुसार, साल 1973 में दुनियाभर के बिजली उत्पादन में कोयले की हिस्सेदारी 38 फीसदी थी, जबकि 2019 में भी ये 37 फीसदी ही था.
ग्लासगो के COP26 समिट में भले ही तमाम देश जीरो एमिशन का लक्ष्य तय करके आए हों लेकिन कोयले पर निर्भरता कम करना आसान नहीं होगा. पिछले कई सालों से अमेरिका में कोयले की जगह गैस के इस्तेमाल पर जोर दिया जाता रहा. लेकिन इस साल गैस की कीमतों में तेज बढ़ोत्तरी ने फिर कोयले पर निर्भरता बढ़ा दी है.
हालांकि, कई देश ऐसे भी हैं जिन्होंने कोयले का इस्तेमाल पूरी तरह बंद कर दिया है. ऑस्ट्रिया, बेल्जियम और स्वीडेन जैसे देश अपने यहां आखिरी कोल प्लांट कब का बंद कर चुके हैं. ब्रिटेन भी साल 2024 तक कोयला इस्तेमाल पूरी तरह से बंद करने के लक्ष्य पर काम कर रहा है. ग्लास्गो समिट के लक्ष्य को अगर दुनिया पूरा करती है तो 370 और कोयला प्लांट्स पर ताला लग जाएगा. हालांकि, अमेरिका अभी इस लक्ष्य के साथ नहीं आया है.
कैसे हालात में बदलाव ला रही है दुनिया?
दुनिया के अलग-अलग देश अपने लेवल पर और सामूहिक रूप से हालात को बदलने के लिए काम कर रहे हैं. जैसे-
- भारत और फ्रांस की पहल पर इंटरनेशनल सोलर एलायंस बना है जिसमें अबतक 124 से अधिक देश शामिल हो चुके हैं. इसका मकसद धुआं उगलने वाले ईंधन के स्रोतों से दुनिया को निजात दिलाकर ईंधन के नए सोलर विकल्प को बढ़ावा देना है. भारत ने 175 GW रिन्यूवेबल एनर्जी का लक्ष्य रखा है जिसमें से साल 2022 तक 100 GW का मिशन पूरा कर लेने का टारगेट रखा है.
- इसी तरह ब्रिटेन ने गैस जैसे परंपरागत ईंधन स्रोतों से आगे नए विकल्पों पर काम के लिए छोटे-छोटे न्यूक्लियर रिएक्टर के रिसर्च पर 210 मिलियन पाउंड का फंड खर्च करने का लक्ष्य रखा है. इन छोटे-छोटे रिएक्टर्स से 10 लाख घरों में स्वच्छ ईंधन सप्लाई करने का लक्ष्य रखा है.
- वहीं, नीदरलैंड का एम्सटर्डम शहर जो कि पब्लिक ट्रांसपोर्ट के इस्तेमाल और साइकिल की सवारी को बढ़ावा देने के लिए जाना जाता है. अब अगला लक्ष्य रखा है साल 2025 तक शहर के कई इलाकों में सिर्फ इलेक्ट्रिक गाड़ियों को परमिशन देने का. यही नहीं साल 2030 के बाद पेट्रोल-डीजल पर चलने वाले कारों और बाइक्स को पूरी तरह से बैन करने का भी प्लान है. इसके लिए इलेक्ट्रिक गाड़ियों को बढ़ावा देने और सोलर ईंधन जैसे स्वच्छ ऊर्जा के उपायों पर प्लान्ड तरीके से काम शुरू किया गया है.
एक अनुमान के मुताबिक साल 2030 तक दुनिया की 50 फीसदी आबादी शहरी इलाकों में रह रही होगी मतलब प्रदूषण से जुड़ी समस्याएं भी बढ़ती जाएंगी. इस बार ग्लास्गो क्लाईमेट समिट में सभी देश जीरो एमिशन पर राजी हुए हैं लेकिन इस लक्ष्य को हासिल करना इतना आसान नहीं. विकसित देश अपनी गलतियों को मानने, हालात सुधारने का जिम्मा लेने और विकासशील देशों की समस्याओं को समझने को तैयार नहीं हैं. ऐसे में किस हद तक दुनिया प्रदूषण से निपटने में कामयाब होगी ये देखने वाली बात होगी.