कई बार कुछ लोग चलता-फिरता इतिहास होते हैं. 80 की उम्र में दिल्ली में ऑटो चला रहे राम प्रकाश से मिलकर कुछ ऐसा ही अहसास होगा. आजादी से ठीक दो साल पहले साल 1945 में जन्मे राम प्रकाश ने आजादी के बाद दिल्ली की बनती-बिगड़ती तमाम सरकारें तो देखी ही हैं. इसके अलावा उन्होंने रात की अंधेरी सड़कों पर होने वाले हादसे, दिन की रोशनी में चमकते उम्मीद के दीये भी देखे हैं. वो समय जब दिल्ली के घरों में लिपाई होती थी, पुलिस बूथ, ट्रैफिक और मेट्रो जैसी चीजें नहीं हुआ करती थीं. तब की दिल्ली में रात और दिन इतने शोर भरे नहीं थे. टेक्नोलॉजी इतनी एडवांस नहीं थी और लोग भी इतने मॉडर्न नहीं थे.आइए उनसे जानते हैं उस दौर की कहानी, उन्हीं की जुबानी.
तब औरतें नहीं आती थीं नजर
60 साल पहले दिल्ली का माहौल ही अलग था. यहां रात के आठ बजे औरतें सड़कों पर नजर नहीं आती थीं. न इतनी कंपनियां थीं जहां लड़कियां नौकरी करें. वीआईपी एरिया जैसे साउथ दिल्ली या रेलवे स्टेशन पर अगर एकाध अकेली महिला दिखी भी तो उसको सेफ पहुंचाना टैक्सी ड्राइवर की जिम्मेदारी होती थी. तब ड्राइवर का पेशा बहुत ईमानदारी वाला माना जाता था. मैं तब के ड्राइवरों को नशा करते नहीं देखता था.
कहां से आकर दिल्ली में बसे
राम प्रकाश कहते हैं कि जब हिन्दुस्तान-पाकिस्तान बना, मैं दो साल का था. मेरा परिवार पाकिस्तान में लाहौर के पास रहता था. मेरे पापा बताया करते थे कि कैसे वो अपनी खाने-पीने की दुकान और घर में ताला लगाकर हिन्दुस्तान आए और फिर कभी दोबारा वहां नहीं जा सके. यहां आकर पहले पहाड़गंज में झुग्गी झोपडी में रहे. पेट पालने के लिए कभी दूसरों की खेती की तो कभी मजदूरी की, बहुत मुफलिसी में मुझे और मेरे दो भाईयों को पाला.उस समय के प्रधानमंत्री ने फिर 900 रुपये में गीता कॉलोनी में मकान दिया. तब ये रकम भी बहुत भारी थी हमारे परिवार के लिए. मेरे पिता ने तीन किस्तों में ये पैसा दिया था. गीता कॉलोनी में आकर भैंसें पाली और डेयरी की. हम गीता कॉलोनी ही में 65 साल से जिस घर में रह रहे हैं. वहां कभी गोबर से पोता जाता था.
बचपन का किस्सा बताने के बाद राम प्रकाश आगे कहते हैं कि मैंने तो जब होश संभाला तो हिन्दुस्तान ही देखा. मेरे पिता ने बहुत संघर्ष देखे थे. उन्होंने मुश्किलों से 9000 रुपये का सवारी रिक्शा लिया था, पिता जी ने किसी से फाइनेंस कराके रिक्शा लिया था. ये पिता जी ने तो नहीं चलाया, पर मेरे दो बड़े भाई चलाते थे. मैं आज भी सोचता हूं तो लगता है कि मैंने इतना संघर्ष नहीं देखा. मेरे सामने तो बस एक बार 1984 के दंगे हुए थे. जब लोग हमारे सामने दुकानें लूट रहे थे. एक विशेष संप्रदाय वालों को लोग बहुत मार रहे थे. उस दौर में मैंने भी करीब एक महीने काम नहीं किया.
बड़े-बड़े अमीरों के पास ही कार होती थी
खैर, जब मैंने दसवीं पास कर ली थी तो मैं भी गाड़ी चलाने लगा था. उस दौर की दिल्ली के बारे में वो हंसकर कहते हैं कि तब तो शरम आती थी दिल्ली को कैपिटल कहने में. तब ये एक छोटा-सा शहर लगता था. हमारे जमाने में सवारियों के लिए लंबरेटा टाइप हैवी गाड़ी ही होती थी, जिसमें माल भी लोड करते थे और सवारी भी बैठती थी. वो मैंने नौ साल चलाई, फिर वेस्पा गाड़ी आ गई, आगे इंजन वाली, फिर पीछे इंजन की गाड़ियां आईं, फिर सीएनजी और अब इलेक्ट्रिक गाडियां तक आ गईं. उस जमाने में तो हम पेट्रोल की गाड़ी चलाते थे, तब ट्रैफिक नहीं होता था. चार-पांच रुपये के पेट्रोल में पूरा दिन चलती थी. तब सड़कों पर कारें भी इतनी नहीं थीं. बस, बड़े-बड़े अमीरों के पास ही कार होती थी.
ट्रैफिक के बारे में वो बताते हैं कि तब तो हम लोग लाल बत्ती पर खड़े होते थे, कोई ट्रैफिक या जाम जैसी चीजें होती ही नहीं थी. यहां के कुतुब मीनार, इंडिया गेट या लाल किला जैसी जगहों पर भी इक्का दुक्का लोग दिखते थे.
20 साल से वो प्लेटें आज भी रखी हैं, कोई मेरी ऑटो में भूल गया था
राम प्रकाश बताते हैं कि बीते 60 सालों में कई बार ऐसा हुआ जब कोई सवारी अपना सामान भूल गई तो मैं उसे वापस देने गया. एक बार एक सवारी को जीटीबी अस्पताल के पास छोड़ा, रास्ते में देखा तो वो अपना बैग गाड़ी में भूल गए थे. मैं आईटीओ से फिर वापस गया तो वो अस्पताल के बाहर ही खड़े थे. उन्होंने बहुत शुक्रिया कहा क्योंकि उनके दवा के पर्चे और कार्ड सब उसी बैग में था. इसी तरह एक बार एक लड़का ऑफिस में उतरा तो अपना पर्स भूल गया. मैं उसके रिसेप्शन में पर्स देकर आ गया. वो एक साल बाद मिला तो पहचान गया और मुझे पैसे देने लगा कि आपने मेरे कागजात बचा दिए. लेकिन 20 साल पहले एक घटना ऐसी हुई जब एक आदमी रास्ते से बैठा और रास्ते में ही रुक गया और एक कार में बैठ गया. अगले दिन सुबह मैंने देखा तो सीट के पीछे एक डिब्बा रखा था जिसमें चीनी मिट्टी की काले रंग की प्लेटें रखी थीं. वो प्लेटें आज भी मेरे पास सुरक्षित रखी हैं. क्या पता कब वो मिल जाए.
कुछ बुरे अनुभव भी हुए
पिछले 15-20 सालों में बहुत कुछ बदला है. हाल ही में एक लड़का कनॉट प्लेस से बैठा रोहिणी के लिए. मेरी उम्र तब 72 थी. अब वो रोहिणी में उतरे न, बेहोश लेटा था. मैं थाने गया तो वहां भी किसी ने नहीं सुनी. तब एक लड़के ने मेरी मदद की, पानी की छींटे डालकर उसे होश में लाया और मेरा किराया दिलवाया. ऐसे ही 15 साल पहले एक लड़के को होटल ले गया. वो बोला कि पांच मिनट रुकिए आ रहा हूं, मैं एक घंटे वेट करता रहा तो वो आया. मैंने गुस्सा किया तो वो मुझसे भड़क गया और मुझे धमकाने लगा. लेकिन बहुत अच्छे लोग भी मिलते हैं. कई लोग तो मेरी उम्र देखकर किराया ज्यादा देकर चले जाते हैं.
1970 में मैंने हवाईजहाज का सफर किया
दिन भर ऑटो चलाकर 30 रुपये कमाने मुश्किल होते थे. उस समय मैं पिता जी को 22 रुपये देता था. बाकी दो तीन रुपये मैं अपने चाय पानी के लिए रख लेता था. राम प्रकाश उस दौर का एक किस्सा सुनाते हैं जब 1970 में वो कश्मीर घूमने गए थे. वो ठहाका मारते हुए कहते हैं कि वापसी में मैं हवाईजहाज से आया तो परिवार में खूब चर्चा हुई कि हमने तो देखा भी नहीं, तुम बैठकर भी आ गए.अब देखिए कैसे लोग जहाजों में जा रहे हैं.
तब नहीं होता था इतना क्राइम
राम प्रकाश कहते हैं कि 60 के दशक में सड़कों पर इतना क्राइम नहीं था. न तब इतने पुलिस बूथ थे. टैक्सी वालों के लिए जमना पार में काम ही नहीं होता था, उन्हें दिल्ली जाना होता था. तब कनॉट प्लेस, करोल बाग को ही दिल्ली 'शहर'माना जाता था. वहां से हम लाजपत नगर, साउथ दिल्ली तक ऑटो चलाते थे. तब कनॉट प्लेस से ग्रेटर कैलाश के साढ़े चार रुपये बनते थे. वो वीआईपी एरिया था, सब अमीर ही रहते थे. उन्हीं इलाकों में शाम ढले महिलाएं वगैरह दिख जाती थीं लेकिन उनके लिबास आज के जैसे मॉडर्न नहीं होते थे. 60 के दशक में सच पूछिए तो लड़कियों का एकदम अलग ही रहन सहन था.
'खुद के पैरों पर खड़ा हूं, मेरे दांत भी असली हैं'
आज मेरा बेटा अच्छी जगह काम कर रहा है.लेकिन मैं उस पर बोझ नहीं बनना चाहता हूं. इसलिए इस उम्र में भी खुद को फिट रखता हूं. मैं अपना और पत्नी का खर्चा उठाने भर का कमाने की कोशिश करता हूं. ये काम मुझे ऊर्जा भी देता है. सुबह उठकर पोता-पोती को पहले स्कूल ड्रॉप करता हूं फिर उसके बाद ऑटो चलाने लगता हूं. बच्चे मना करते हैं कि अब इस उम्र में ऑटो न चलवाऊं लेकिन मैं खुद को फिट महसूस करता हूं. मैं सिर्फ बीपी की दवा ही खाता हूं, बीपी भी वैसे कंट्रोल में ही रहता है. वजह, मैं नशा कोई करता नहीं हूं, बस चाय और पानी पी लेता हूं. सच पूछिए तो जब मैंने सड़कों पर रोजी रोटी शुरू की तब की दिल्ली में शराब के इतने ठेके भी नहीं थे, तब ड्राइवर लोग नशे नहीं करते थे. गुटखा तब चलता ही नहीं था, कोई ड्राइवर शराब भी नहीं पीता था. अपनी रूटीन के कारण ही मैं अपने ओरिजनल दांतों से ही खाना-वाना खा लेता हूं.
कई साथ वाले आगे बढ़ गए...
मैं आज जब पीछे देखता हूं तो जिम्मेदारियों का एक पूरा जखीरा दिखता है. मेरी दो बेटियां और एक बेटा था, हमने तीनों बच्चों को पढ़ाया, ग्रेजुएशन कराया, फिर उनकी शादी की.इसी में पूरी उम्र निकल गई. हमने ये ध्यान नहीं दिया कि ये काम छोड़कर दूसरा काम करें, हमने यही गलती कर दी. कई लोग साथ वाले और आगे बढ़ गए.