कानून समाज के भीतर व्यक्तियों के आचरण को विनियमित करने का प्रयास करता है. किसी अपराध को मुआवजे के भुगतान से "खत्म" नहीं किया जा सकता है. दिल्ली उच्च न्यायालय ने पार्टियों के बीच समझौते के आधार पर हत्या के प्रयास की एक प्राथमिकी (FIR) को रद्द करने से इनकार करते हुए यह बात कही.
इसके साथ ही न्यायमूर्ति अनूप कुमार मेंदीरत्ता ने आरोपी व्यक्तियों की याचिका खारिज कर दी. फैसले में उन्होंने कहा कि उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 307 (हत्या का प्रयास) जैसा गंभीर अपराध दोहराया न जाए और कोई समझौता अधिक आपराधिक कृत्यों को या बड़े पैमाने पर समाज के कल्याण को खतरे में नहीं डालने की मंशा को प्रोत्साहित नहीं करता है.
अदालत ने इस महीने की शुरुआत में पारित एक आदेश में कहा कि मौजूदा मामले में एक छोटी सी बात पर याचिकाकर्ताओं द्वारा प्रतिवादी नंबर 3 के शरीर के महत्वपूर्ण हिस्से पर चाकू से वार किया गया था. केवल इसलिए कि प्रतिवादी नंबर 3 को समझौते के आधार पर मुआवजा दिया गया है, यह कार्यवाही को रद्द करने का पर्याप्त आधार नहीं हो सकता.
अदालत ने कहा कि इसे परिप्रेक्ष्य में रखने की जरूरत है कि आपराधिक कानून सामाजिक नियंत्रण हासिल करने के लिए बनाया गया है. यह समाज के भीतर व्यक्तियों के आचरण को विनियमित करने के लिए बनाया गया है. सिर्फ मुआवजे के भुगतान के कारण अपराध के मामले को खत्म नहीं किया जा सकता है.
याचिकाकर्ताओं ने गुण-दोष के आधार पर आरोपों को स्वीकार किए बिना, साल 2019 में दर्ज की गई एफआईआर को रद्द करने की मांग की थी. उन्होंन इस आधार पर याचिका लगाई थी कि आरोपियों और पीड़ित के बीच मामले को सौहार्दपूर्ण ढंग से सुलझा लिया गया है और पीड़ित को मुआवजा दे दिया गया है.
राज्य ने इस आधार पर याचिका का विरोध किया कि याचिकाकर्ताओं ने छोटी सी बात पर पीड़ित के महत्वपूर्ण हिस्सों पर चाकू से कई वार किए गए थे. अपने आदेश में कोर्ट ने कहा कि मानसिक विकृति के जघन्य और गंभीर अपराधों या हत्या, बलात्कार और डकैती जैसे अपराधों के मामलों को रद्द करने की उसकी शक्तियों का सावधानीपूर्वक उपयोग किया जाना चाहिए. दरअसल, इनका समाज पर गंभीर प्रभाव पड़ता है.