मदन लाल खुराना, शीला दीक्षित और अरविंद केजरीवाल जैसे मुख्यमंत्रियों के बाद दिल्ली की राजनीति एक नए दौर में प्रवेश करने जा रही है, जब दिल्ली का चेहरा चुनाव के बाद तय होगा. दिल्ली में भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनेगी और संकेत है कि पार्टी के चुने हुए 48 विधायकों में से कोई एक मुख्यमंत्री बनेगा.
बीजेपी की हालिया राजनीति को देखने वाले लोग सीएम को चुनने की प्रक्रिया से वाकिफ हैं. अधिकांश राज्यों में पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व ने नतीजों के बाद सीएम का नाम तय किया और लगभग सभी नाम आश्चर्यजनक निर्णय थे. इसी तरह से कहा जा सकता है कि दिल्ली में भी विधायक दल के नेता का चयन विधायकों द्वारा नहीं बल्कि हाईकमान द्वारा किया जाएगा.
कोई भी व्यक्ति सहज पसंद क्यों नहीं है?
मुख्यमंत्री की एक विशेषता यह भी है कि उस व्यक्ति को विधायकों का सम्मान हासिल हो. दिल्ली का चुनाव अरविंद केजरीवाल सरकार के खिलाफ लड़ा गया था. भाजपा को लगा कि दिल्ली में सामूहिक नेतृत्व पार्टी के लिए फायदेमंद होगा क्योंकि इससे केजरीवाल को पर्सनैलिटी बैटल का मौका नहीं मिलेगी.
इसलिए एक तरह से ये चुनावी जंग मोदी मॉडल बनाम केजरीवाल मॉडल बन गई. इसलिए चुनाव जीतकर आए लोगों में से कोई भी अपनी सीट के अलावा किसी और सीट को लेकर ये नहीं कह सकता है कि उसका प्रभाव वहां भी देखने को मिला है. इसमें प्रवेश वर्मा भी शामिल हैं, जिन्होंने केजरीवाल के खिलाफ जीत दर्ज की. यही वजह है कि अब शीर्ष पद के लिए कई दावेदार हैं.
चुनाव का आधार क्या होगा?
सीएम का चुनाव काफी हद तक बराबरी के लोगों के बीच की लड़ाई है. संगठन के लिहाज से कई वरिष्ठ नेता पहली या दूसरी बार विधायक बने हैं. इसलिए, सतीश उपाध्याय, आशीष सूद, पवन शर्मा और शिखा राय जैसे विधायकों का विधायी अनुभव बहुत सीमित है. यहां तक कि प्रवेश वर्मा जैसे नेता जो लगातार दो बार सांसद रहे, उन्हें न तो शासन का कोई अनुभव है और न ही उन्होंने कभी किसी महत्वपूर्ण संगठनात्मक पद पर काम किया है.
विजेंद्र गुप्ता जैसे नेता, जो दो बार दिल्ली विधानसभा में विपक्ष के नेता रहे और यहां तक कि दिल्ली प्रदेश भाजपा अध्यक्ष भी रहे, को इतना करिश्माई नहीं माना जा रहा कि उन्हें मुख्यमंत्री पद सौंपा जा सके.
एक सरप्राइज का इंतजार!
दिल्ली में सीएम का चुनाव भाजपा की राष्ट्रीय राजनीति को ध्यान में रखते हुए संतुलन बनाने का खेल होगा. चर्चा है कि सीएम का चेहरा कोई पूर्वांचली हो सकता है क्योंकि अगला चुनाव बिहार में है और पार्टी राज्य के मतदाताओं को संदेश देना चाहती है.
दूसरी सोच यह है कि चूंकि हरियाणा, उत्तर प्रदेश और राजस्थान जैसे राज्यों में जाट पार्टी से नाखुश हैं, इसलिए दिल्ली के टॉप पोस्ट पर जाट समुदाया से आने वाला कोई नेता स्पष्ट संदेश देने में सक्षम हो सकेगा.
कुछ लोगों का मानना है कि सिख या दलित चेहरा पार्टी की योजना के लिए बेहतर होगा. लेकिन, ज़्यादातर नेताओं का मानना है कि नेता तय करने में संघ परिवार की बड़ी भूमिका होगी और जो भी चुना जाएगा, उसका संघ परिवार के संगठनों के साथ करीबी कामकाजी रिश्ता होना चाहिए.