दिल्ली में विकास की बयार बहाने वाली, दिल्ली को जीने लायक बनाने वाली, दिल्ली को नया चेहरा-नई पहचान देने वाली शीला दीक्षित ने दिल्ली को हमेशा के लिए अलविदा कह दिया है. जाहिर है शीला दीक्षित के निधन से कांग्रेस ने अपना कद्दावर नेता खो दिया.
आज की दिल्ली शीला दीक्षित की सोच का ही नतीजा है. विकास की जो चमक-दमक आज दिल्ली में दिखती है वह शीला की दूरदर्शिता का ही कमाल है. अगर इंदिरा गांधी कांग्रेस की आयरन लेडी थीं तो विकास के पैमाने पर शीला दीक्षित का कद कुछ वैसा ही था.
शीला दीक्षित गांधी परिवार के करीब मानी जाती थीं. उनके राजनीतिक सफर की शुरुआत 1970 के दशक में हुई थी, लेकिन 1980 के दशक में उन्होंने पहली बार संसदीय राजनीति का रुख किया और 1984 में उत्तर प्रदेश के कन्नौज लोकसभा सीट से कांग्रेस की प्रतिनिधि चुनी गईं.
सांसद के तौर पर उन्होंने लोक सभा की एस्टीमेट्स कमिटी के साथ कार्य किया. 1984 से 1989 तक सांसद रहने के दौरान वह यूनाइटेड नेशंस कमीशन ऑन स्टेटस ऑफ वीमेन में भारत की प्रतिनिधि रहीं. उन पर भरोसा जताते हुए शीला दीक्षित को राजीव गांधी मंत्रिमंडल में पहले संसदीय कार्य राज्य मंत्री और फिर पीएमओ में राज्य मंत्री बनाया गया.
बता दें कि शीला दीक्षित के ससुर उमाशंकर दीक्षित इंदिरा गांधी की सरकार में कैबिनेट मंत्री थे. वहीं शीला दीक्षित का रिश्ता गांधी परिवार से बन गया था. शीला दीक्षित ने अपनी आत्मकथा सिटीजन दिल्ली: माई टाइम्स, माई लाइफ में गांधी परिवार से नजदीकियों के बारे में लिखा है. शीला दीक्षित ने लिखा, 'एक दिन मेरे ससुर उमाशंकर दीक्षित ने इंदिरा गांधी को खाने पर बुलाया और मैंने भोजन के बाद उन्हें गर्मागर्म जलेबियों के साथ वनीला आइसक्रीम परोसी.
शीला दीक्षित ने लिखा, 'मेरा यह प्रयोग इंदिरा गांधी को बहुत पंसद आया. अगले ही दिन उन्होंने अपने रसोइए को इसकी विधि जानने के लिए हमारे पास भेजा. उसके बाद कई बार हमने खाने के बाद इंदिरा गांधी को मीठे में यही परोसा, लेकिन इंदिरा गांधी की हत्या के बाद मैंने इसे किसी को भी परोसना बंद कर दिया.