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दिल्ली गैंगरेप की पहले दिन से कवरेज करने वाली आज तक रिपोर्टर ने साझा किया पीड़ित का दर्द

और वो नहीं रही... जब सब अपनी-अपनी बचाने मे लगे हुए थे, वो अपनी बची सांसें भी अपने देश में नहीं बचा पाई. 17 दिसंबर की सुबह की शुरुआत एक फोन से हुई थी. चलती बस में गैंगरेप...लड़की की हालत नाजुक, बचना मुश्किल है...फोन रखकर तुरत दफ्तर को सूचना दी, लेकिन इस तुरत-फुरत में एक बात जेहन में अटककर रह गई. लड़की का बचना नामुमकिन? कैसे?

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दिल्ली गैंगरेप, क्या कुछ बदला अभी तक
दिल्ली गैंगरेप, क्या कुछ बदला अभी तक

और वो नहीं रही...जब सब अपनी-अपनी बचाने मे लगे हुए थे, वो अपनी बची सांसें भी अपने देश में नहीं बचा पाई. 17 दिसंबर की सुबह की शुरुआत एक फोन से हुई थी. चलती बस में गैंगरेप...लड़की की हालत नाजुक, बचना मुश्किल है...फोन रखकर तुरत दफ्तर को सूचना दी, लेकिन इस तुरत-फुरत में एक बात जेहन में अटककर रह गई. लड़की का बचना नामुमकिन? कैसे?

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मुझे बताया गया कि लड़की को बुरी तरह मारा-पीटा गया है. दिन चढ़ते-चढ़ते जब पता चला कि उसकी आंत निकालनी पड़ी है. मैं समझ ही नहीं पा रही थी कि ये सब क्या हो रहा है. बताने वाले ने महिला होने के नाते शब्दों की गरिमा रखते हुए जो बता पाया, वो बताया. लेकिन वाकई कोई ये समझ भी कैसे सकता है? क्योंकि जो हुआ, वो पशुता कल्पना, समझ, सबसे परे हैं. एक 23 साल की बच्ची कई दफा कोमा में चली गई, 4 से 5 ऑपरेशन हो गए. आंत निकाल ली गई, दिल का दौरा पड़ा उसे, ब्रेन इंजरी, उसके अंगों ने काम करना बंद कर दिया. क्यों? कैसे? कई दफा लगा कि जंतर-मंतर पर जो भीड़ खड़ी है, उसे भी सब पता होना चाहिए, सब...वो जो हम कह नहीं पा रहे. वो, जो कोई बता नहीं पा रहा, वो जो हम आपस में चर्चा करके सिहर उठे थे, वो जिसके बारे में बस इतना ही कहा गया कि दरिंदगी है. मालूम तो चले कि उनके बीच की एक लड़की अचानक से कैसे उनके बीच नहीं रहीं. बस इसलिए, क्योंकि वो एक लड़की थी. लेकिन फिर 17 से 29 दिसंबर तक के घटनाक्रम को भी देखा. उसके साथ जो हुआ, वो गलत था या उसके बाद जो हुआ वो ज्यादा गलत?

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जब वो अस्पताल मे भर्ती हुई, तो औरतों के सरोकार वाली एक संस्था की मुखिया को फोन करके मैंने उससे मिलने का वक्त मांगा. बोली, "हां हां सुना है मैंने, आप घर आ जाओ" मुझे अपने घर बुलाकर मुद्दे पर संजीदा मैडम किसी दूसरी जगह ही चली गईं. उसी रात इस शहर की सुरक्षा-व्यवस्था को मैंने फिर बेसुध सोते देखा. अगले दिन जब कुछ बच्चे अपनी महिला मुखिया से अपना डर साझा करने गए, तो गाड़ियों के काफिले के बीच चलने वाली उस मुखिया के दर पर उन युवा छात्रों पर पानी फेंक दिया गया. सर्द रात मे एक घंटे बिना कपड़ों के पड़ी लड़की का दर्द लेकर पहुंचे उन लोगों पर भी इस ठंड में पानी से ही वार किया गया, लेकिन वो छात्र फिर भी भीगे बदन पानी-पानी कर गए प्रशासन को, अपने डर के बावजूद...

हर हादसे के बाद जवाबदेही से बचकर निकल जाने वाली दिल्ली पुलिस को 35 साल के इतिहास में पहली बार अपनी हिफाजत के लिए खुद को बंद दरवाजे में समेट लेना पड़ा. शाम होते होते सब पहुंच गए उस चौखट पर, जिसे हम इंडिया गेट कहते है. हाथ मे मशाल जल रही थी और शरीर के अंदर दिल. आंख में आंसू थे, पर लब पर लरजते सवाल. इन लोगों का कोई नेता नहीं था. हिम्मत कह सकते है, लेकिन दरअसल वो डर ही था, जो इन सबको यहां तक खींच ले आया था. जैसे शहर में कोई भेड़िया घुस आया हो और सब एक जगह इकट्ठे होकर उससे लड़ने, उसे मार भगाने की तरकीब तलाश रहे हों. कुछ इसमें भी अपना हित साध रहे थे. हवन कराते फोटो खिंचाते या फिर अस्पताल जाकर फोटो खिंचवा आते. कुछ के प्यादे फोन करके बताते कि फलां नेता जी को भी लाठीचार्ज में चोट आई है.

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फिर वो दिन भी आया, जब यंगिस्तान चढ़ गया राजपथ के सीने पर और जा पंहुचा रायसीना के दरवाजे. बड़े हक के साथ पूछने अपने राष्ट्रपति से कि देख रहे हो, क्या हो रहा है इस देश में? अब देखो, हमें दिलासा दो, हमें बताओ कि हम कैसे महफूज हैं यहां...लेकिन ये क्या आंसू पोंछने के लिए जहां पहुचे थे, वहां से ही आंसू मिलने लगे. बच्चे घबराए, चौंके कि ये क्या हो रहा है. कुछ तो ऐसे थे, जिनकी आंखों मे सवाल तैर रहा था कि मम्मी ने तो कभी थप्पड़ भी नहीं मारा, ये क्या है, ये क्यों हो रहा है? हमने ऐसा क्या किया...लेकिन आप कुछ भी कह लें महज एक फीसदी शरारती तत्व हो सकते हैं, लेकिन उस वक्त वहां मौजूद युवाओं की हिम्मत उनके जज्बे को वाकई सलाम है, जो पानी में गीले होकर भी, रह-रहकर आंसू गैस पीकर भी, रो-रोकर भी, वहां डटे रहे, उस लड़की के लिए, जिसे उन्होंने कभी देखा तक नहीं और ना ही देख पाएंगे. शाम होते-होते पता नहीं किसका धैर्य जबाब दिया कि पत्थर बरसने लगे. लेकिन एक घंटे की उस अफरातफरी के बाद फिर पुलिस वहीं थी और आंदोलनकारी भी. और फिर वो काला रविवार भी आया. सचिन तेंदुलकर भी लोगों का ध्यान न बंटा सके...भागते लोगों की भीड़, उनके पीछे डंडे लेकर भागते पुलिसकर्मी...कभी घिरते, कभी घेरते, महिलाओं को उठाते घसीटते-धकेलते पुरुष, पुलिसकर्मी, शाम होते-होते इंडिया गेट का इतिहास ही बदल गया...वो काली रात 16 दिसंबर की उस काली रात को एक दूसरी तरह दोहरा रही थी. अगली सुबह इंडिया की तस्वीर तो न बदली, इंडिया गेट की सूरत ज़रूर बदल गई. इंडिया गेट उस रोज से कई दिन तक लोगों को देखने को भी नसीब ना हुआ. उस ओर जाता हर रास्ता आम जनता के लिए बंद हो गया. क्यों? ये सवाल भी क़ानून-व्यवस्था को चुनौती माना जाने लगा. मेट्रो भी हुक्मरानों के इशारे पर चल पड़ी.

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आप हैरत करिए, अफसोस जताइए, लेकिन आजाद हिंदुस्तान मे ये जो हो रहा था, इससे पहले कभी नहीं हुआ. कल की आई पीढ़ी सरकार के माथे पर पसीना ला रही थी. दिल्ली सरकार दिल्ली पुलिस खुलकर आमने सामने आ गई, ताकि इस जवाबी कार्रवाई मे आप मुद्दे को पीछे छोड़ दें. फिर ड्यूटी पर रहा सिपाही शहीद होकर भी अपने डिपार्टमेंट की नाक बचाने की ड्यूटी निभाने को मजबूर हो गया. और यहां अचानक सरकार और पुलिस-प्रशासन एक हो गए. पूरे राजकीय सम्मान के साथ उसको आखिरी विदाई दी गई. 8 लोग दबोच लिए गए, जो उसकी मौत के जिम्मेदार बताए गए, लेकिन यहां भी कल की आई पीढी़ सीना ठोककर सामने आ खड़ी हुई, जो उस सिपाही की तबीयत बिगड़ते वक्त भी उसके साथ थी. दांव पर दांव खेले जाते रहे, फेल होते रहे. कुछ ने आकर अपनी सोच का परिचय भी दिया और मुंह की भी खाई. और इन सबके बीच वो वही सफदरजंग अस्पताल के एक कमरे में ही पड़ी रही. 25 तारीख की रात उसे दिल का दौरा पड़ा, वो लगभग खत्म हो चुकी थी. कई घंटों की मशक्कत लगी. ग़ज़ब इच्छाशक्ति थी उसमें, जीने की रात में, जो फिर सांस चल पड़ी. अगला दिन फिर पुलिस पर आरोपों से भरा था. कई बातें सामने आ रही थीं, लेकिन जो इंतजार के बावजूद पता नहीं चल पा रहा था, वो था उस लड़की का हाल. दिल बैठा जा रहा था कि वक्त होने के बावजूद मेडिकल बुलेटिन क्यों नहीं दिया जा रहा. लेकिन दिन ढलते ही उस अस्पताल में हलचल तेज हो गई. कुछ होने वाला था, लेकिन क्या? बस इसका अंदेशा ही लगा पा रहे थे लोग. अपनी सोच के दायरे में...एक ही दिन में इस लड़की के परिजनों का पासपोर्ट-वीज़ा तैयार हो चुका था और लड़की के भाई ने जैसा बताया, 90 फीसदी मृत हालत में वो इस देश से दूर चली गई. ये सरकारी कोशिश थी या दांव? बहस खत्म नहीं होगी, उसको दूर भेजकर क्या सरकार कुछ टालना चाहती थी, जो अंतत नहीं टल पाया.

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सुना है कि अमेरिका, लंदन ने इस इलाज के लिए मना कर दिया था. सिंगापुर से भी यहां के डाक्टरों ने जो कहा, उसका अंग्रेजी अनुवाद ही सामने आया. दो दिन इस तर्जुमे को सुनने के बाद वो खबर आ ही गई, जो दिल्ली में होती, तो सरकार की मुश्किलें बड़ी कर देती. किस पर रोया जाए उस लड़की के लिए, जो जीना चाहती थी. उस सरकारी रवैये पर, जो बस अपनी बचाने में लगा था. उन लोगों पर जो आकर बयानबाज़ी मे अपना हाथ साफ कर रहे थे या उन पर जिन्होंने सबसे पहले इस घटना को निंदनीय बताया था. सड़क चलते भी किसी आदमी से आप पूछें, तो वो इस घटना को शर्मनाक ही बताएगा, लेकिन अगर कुर्सी पर बैठे आप भी इसे महज निंदनीय बताकर बच निकलना चाहते है, तो माफ कीजिए आप नहीं कर सकते. कुर्सी चुनी है, तो कुर्सी की इज्जत भी रखिए. 28 तारीख की रात उसने दम तोड़ा. विडंबना देखिए कि महिलाओं की सुरक्षा की पोल खोलती वो इस दुनिया से रुखसत हो गई और इधर खबर आते ही दिन-रात सुरक्षा घेरे मे रहने वालों ने अपनी सुरक्षा और बढ़ा ली. दिन के उजाले में कैसे इस खबर का सामना करते 29 दिसंबर देर रात उसे दिल्ली पंहुचाया गया और 30 को सुबह मजबूर किया एक मजबूर बाप को कि मुंहअंधेरे अपनी बेटी के शरीर का नामोनिशान जल्द से मिटा दे. तेरह दिन की तड़प ने शायद उस दिन पहली बार इस प्रशासन को जवाब दिया था कुछ तो रहम कर लो, सूरज उगने दो, जिसका कोई कुसूर नहीं, जो अपनी मर्जी से नहीं मरी, उसे कम से कम पूरे संस्कार से तो जाने दो...जैसे ही सूरज की पहली किरण फूटी, प्रशासन की मर्जी पर उसके परिवार ने जल्दी से आंखे मूंद उसे अग्नि दे दी. लेकिन सच तो ये है वो पूरे 13 दिन से जल रही थी सुलगते सवालों के साथ और एक इच्छा के साथ कि वो जीना चाहती थी.

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