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राजधानी दिल्ली का एक कोना ऐसा भी है जहां पाकिस्तान से अपनी जान बचाकर भारत लौटे 150 हिंदू शरणार्थी परिवार रह रहे हैं. कुल मिलाकर यहां 700 लोग हैं, जो पाकिस्तान के सिंध प्रांत से अपनी जान बचाकर लौटे हैं. ये कहते हैं कि हम कोरोना की दूसरी लहर से तो बच गए, लेकिन बदइंतजामी और सरकार की अनदेखी हमें मार रही है. दिल्ली की जानलेवा गर्मी में 700 जिंदगियां बिना बिजली के रहने को मजबूर हैं. बताते हैं कि चिट्ठी लिख-लिखकर हाथ दुख गए, लेकिन किसी ने सुध तक नहीं ली.
दिल्ली में यमुना किनारे मजनू का टीला पड़ता है. यहां 2012 लेकर 2014 के बीच कई शरणार्थी पाकिस्तान छोड़कर हिंदुस्तान लौट आए. भारत घूमने का वीजा लेकर आए ये लोग वापस पाकिस्तान नहीं लौटे. उसकी एक वाजिब वजह भी है और वो ये कि वहां जान का खतरा है, धर्म की आजादी नहीं है, और तो और बेटी-बहुओं की आबरू पर खतरा भी है.
सिंध के सरदार सिंह अपनी पीड़ा सुनाते हैं लेकिन उनकी गुहार है कि उनका असली नाम और चेहरा ना दिखाया जाए क्योंकि अगर पाकिस्तान में उन्हें पहचान लिया गया तो सिंध में बचा हुआ उनका परिवार मुश्किल में आ जाएगा. इसलिए हमने सरदार सिंह की पहचान उजागर किए बिना उनकी पीड़ा समझने की कोशिश की. सरदार सिंह साल 2019 में सिंध छोड़कर हिंदुस्तान की इस रिफ्यूजी कॉलोनी में आए और अब जीने के लिए अपनी कॉलोनी के बच्चों को कुल्फी बेचते हैं. दिन भर में 100-150 रुपए कमा लेते हैं और यही उनकी कुल आमदनी है.
पाकिस्तान छोड़ने के पीछे सरदार सिंह वजह बताते हैं, "वहां हमें धार्मिक आजादी नहीं थी. जान का खतरा था. स्कूल में बच्चों को सिर्फ सम की तालीम दी जाती थी. जवान और बड़ी बेटियों को हम स्कूल नहीं भेज पाते थे क्योंकि वहां उनकी आबरू को खतरा था. हमारी बेटियों को उठा ले जाते थे जबरन उनसे शादी करते थे और उनका धर्म परिवर्तन करवाते थे. इसलिए हमने पाकिस्तान छोड़ दिया और हिंदुस्तान में शरण ले ली."
700 पाकिस्तानी महामारी के प्रकोप से तो बच गए लेकिन अब उनके सामने चुनौतियां जिंदा रहने की है. हम पाकिस्तानी इसलिए कह रहे हैं क्योंकि भारत के सरकारी दस्तावेजों में ये अभी भी पाकिस्तान के नागरिक ही हैं जिन्हें वीजा बढ़ाकर रहने की अनुमति दी गई है. लेकिन जीने के लिए रोजी-रोटी की जरूरत होती है जो इनके पास है नहीं और जिंदा रहने के लिए इस गर्मी में बिजली जो बुनियादी अधिकार माना जाता है वो भी मयस्सर नहीं है. घास-फूस के कच्चे घर हैं. छत टूटी हुई है. आंधी जोर से चल जाए तो घर की छत उड़ जाए, और तो और मच्छरों का प्रकोप इतना है कि डेंगू, मलेरिया जैसी बीमारी कभी भी अपनी चपेट में ले सकती है.
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इन्हीं लोगों में से एक धर्मवीर सोलंकी कहते हैं कि इस गर्मी में किसी भी घर में बिजली की व्यवस्था नहीं है. हर किसी को चिट्ठियां लिखी गईं, मिन्नतें की गईं लेकिन कोई सुनवाई नहीं हुई. धर्मवीर कहते हैं कि बिजली विभाग ने ट्रांसफार्मर लगाने के लिए 20 लाख रुपए मांगे. यमुना किनारे रहने के चलते मच्छरों का प्रकोप इतना है कि डेंगू और मलेरिया का डर सताने लगा है. चिंता इस बात की है कि रात रात तक बच्चे मच्छरों के कारण सो नहीं पाते और उन्हें सड़कों के किनारे सुलाना पड़ता है.
शरणार्थी हिंदुओं को इस गर्मी में सबसे ज्यादा दिक्कत बिजली न होने से है. दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल से लेकर उपराज्यपाल अनिल बैजल, गृह मंत्री अमित शाह से लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तक ऐसा कोई नहीं है जिन्हें इन्होंने बिजली की मांग को लेकर चिट्ठी ना लिखी हो. कागज का पुलिंदा इकट्ठा होता रहा लेकिन किसी के कानों में उनकी आवाज असर नहीं कर पाई.
सोनू दास भी सिंध छोड़कर हिंदुस्तान आए थे और अब बिजली की दिक्कत के लिए 2013 से लेकर अब तक चिट्ठियां लिख लिख कर गुहार लगा रहे हैं. सोनू कहते हैं कि हम चाहते हैं लोग हमारे नाम पर राजनीति ना करें लेकिन जो बुनियादी जरूरत है वो दिलाएं.
12 साल की मैना आज तक के माइक को अपने हाथ में पकड़ कर कहती है कि बिजली नहीं होने के चलते हम लोग सो नहीं पाते. ना मम्मी पापा सो पाते हैं. पढ़ाई भी नहीं हो पाती और मच्छर परेशान करते हैं.
जानकी देवी कहती हैं कि घर की बड़ी बेटियों को भी सड़क किनारे फुटपाथ पर सोने के लिए भेजना पड़ता है क्योंकि यहां अंधेरा होता है और मच्छर परेशान करते हैं. वो कहती हैं कि जहां से आए थे वहां भी इज्जत आबरू का खतरा था और अब यहां हमें अपनी बेटियों को सड़क किनारे फुटपाथ पर सोने के लिए भेजना पड़ता है.
यकीन नहीं होता कि ये तस्वीर देश की राजधानी दिल्ली की है. माना ये पाकिस्तानी शरणार्थी वोटर नहीं हैं, माना इन नागरिकों को भारतीय नागरिकता नहीं मिली है इसलिए उन्हें भारतीय अधिकार नहीं मिले हैं लेकिन इंसानियत का तकाजा कहता है कि उन्हें जीने का अधिकार है और साथ ही मूलभूत सुविधाओं का भी.