Delhi MCD Election 2022: देश की राजधानी में निगम धीरे-धीरे अस्तित्व में आया और वक्त के साथ इसका आकार बड़ा होने लगा. साल 1863 से पहले दिल्ली में ऑटोनॉमस शासन का कोई लिखित इतिहास नहीं मिलता है. हालांकि 1862 में एक तरह की नगर पालिका मौजूद होने का उल्लेख मिलता है. नगर पालिका की पहली नियमित बैठक 23 अप्रैल 1863 को हुई थी. जिसमें स्थानीय लोग बुलाए गए थे और 1 जून 1863 को बैठक की अध्यक्षता दिल्ली के कमिश्नर ने की और उसके मिनट लिखे थे.
आमतौर पर गांवों के विकास की जिम्मेदारी पंचायतों की होती है. लेकिन दिल्ली नगर निगम देश में इस मामले में अनोखा कहा जा सकता है जिसके सीमा क्षेत्र में गांवों का विकास भी शामिल है. संसद के अधिनियम से 7 अप्रैल 1958 को दिल्ली नगर निगम की स्थापना हुई और निगम की बिल्डिंग के तौर पर पुरानी दिल्ली में टाउन हॉल 1866 में 1.86 लाख की लागत से बनकर तैयार हुआ जिसे इंस्टिट्यूट बिल्डिंग कहा जाता था.
जब ट्रांसपोर्ट को निगम से अलग किया गया
एक वक्त ऐसा था जब दिल्ली में कभी जॉइंट वॉटर एंड सीवरेज बोर्ड, दिल्ली स्टेट इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड और दिल्ली रोड ट्रांसपोर्ट अथॉरिटी यह तीनों निगम में आते थे. लेकिन संसद के अधिनियम के जरिए नवंबर 1971 में दिल्ली में परिवहन संस्थान को दिल्ली नगर निगम से अलग करके दिल्ली सड़क परिवहन निगम बना दिया गया.
जब निगम को भंग कर दिया गया
मौजूदा निगम चुनाव को 6 महीने के लिए टाले जाने की मांग सत्तारूढ़ बीजेपी नेताओं की मांग नई नहीं है. क्योंकि निगम के इतिहास में इसके भंग होने का उल्लेख मिलता है. दिल्ली की पहली महापौर अरुणा आसफ अली चुनी गई थी. पहले निगम 24 मार्च 1975 को भंग कर दी गई थी. निगम की 5वीं अवधि के लिए चुनाव 12 जून 1977 को हुआ. 11 अप्रैल 1980 को गृह मंत्रालय के आदेश से निगम को 6 माह के लिए भंग कर दिया गया था और निगम अधिनियम के अंतर्गत निगम के सभी अधिकार निगमायुक्त को सौंप दिए जाने के बाद छह-छह महीने के लिए 5 बार बढ़ाया गया.
5 फरवरी 1983 को चुनाव होने के बाद निगम की छठी अवधि के लिए 28 फरवरी 1983 को विधिवत गठन किया गया. निगम का कार्यकाल फरवरी 1987 में खत्म होने के बाद इसे बढ़ाकर 6 जनवरी 1990 को भंग कर किया गया. इसके बाद 31 मार्च 1997 तक निगम में प्रशासक व विशेष अधिकारी नियुक्त रहे जिन्होंने निगम के कार्यों को पूरा किया.
जब निगम के मूल को बदला गया
संसदीय विधायकी ने 1993 में दिल्ली नगर निगम संशोधित अधिनियम 1993 (अधिनियम 1993 का 67) में विस्तृत संशोधन किया जिसे 17 सितंबर 1993 को पारित किया गया. इसके प्रावधानों को एक अक्टूबर 1993 से लागू किया गया. इसमें 136 धाराएं हैं. इसके द्वारा निगम की संरचना कार्यों नियंत्रण व प्रशासन में मूल परिवर्तन लाए गए. मूल परिवर्तन यह आया कि निगम की संरचना में पार्षदों और एल्डरमैन से होती थी. संशोधित अधिनियम में एल्डरमैन की प्रथा समाप्त कर दी गई. पार्षदों की संख्या बढ़ाकर 134 कर दी गई. इसके अलावा लोकसभा के सदस्य जो नगर निगम के चुनाव क्षेत्रों का संपूर्ण अथवा आंशिक रूप से प्रतिनिधित्व करते हैं.
MP, MLA और LG के मनोनीत सदस्य
राज्यसभा के सदस्य जो दिल्ली नगर निगम के अंतर्गत मतदाता के रूप में पंजीकृत हैं भी इसके सदस्य बनाए गए. दिल्ली विधानसभा के 1/5 सदस्य भी हर साल बारी के अनुसार दिल्ली नगर निगम में प्रतिनिधित्व करते हैं. दिल्ली से निर्वाचित सभी सांसद उनके संसदीय क्षेत्र के अनुरूप इन निगमों के सदस्य हैं. इस तरह से विधानसभा से निगमों में दिल्ली सरकार हर साल निर्धारित अनुपात में विधायक मनोनीत करती है. तीनों निगमों में 10-10 सदस्य भी उप राज्यपाल के जरिए मनोनीत किए जाते हैं.
महापौर का पद महिला और SC के लिए आरक्षित
नगर निगम में महिला पार्षदों अनुसूचित जाति (एससी) की महिलाओं के लिए भी स्थानों का आरक्षण है. महापौर का पद पहले साल महिला एवं तीसरे साल में अनुसूचित जाति के सदस्य के लिए आरक्षित है. मेयर का कार्यकाल सबसे छोटा सिर्फ साल भर का होता है. टर्म पूरा होने पर नया मेयर चुना जाता है.
...जब निगम के हुए तीन टुकड़े
2011 में दिल्ली नगर निगम अधिनियम में संशोधन करके दिल्ली नगर निगम को तीन निगमों उत्तरी, पूर्वी और दक्षिणी दिल्ली नगर निगम के रूप में बांटा गया. उत्तरी दिल्ली में 6 जोन, पूर्वी दिल्ली में 2 जोन और दक्षिणी दिल्ली में 4 जोन हैं. इस संशोधन के कारण काफी नीतिगत अधिकार दिल्ली सरकार के अधिकार क्षेत्र में आ गए.
पहली बार तीनों नगर निगमों का गठन अप्रैल 2012 दूसरी बार तथा साल 2017 में परिसीमन के बाद तीनों नगर निगमों का गठन मई माह में हुआ. इसके अलावा साल 2017 के चुनाव से पहले परिसीमन के कारण उत्तरी दिल्ली नगर निगम में क्षेत्रीय कार्यालयों में संतुलन बनाए रखने की दृष्टि से नए जोन केशवपुरम को बनाया गया.
वहीं, शहरी व सदर पहाड़गंज जोन जो अलग-अलग थे उनको मिलकर सिटी-एसपी जोन बनाया गया. पहले 1 निगम में 1 मेयर होता था अब तीन मेयर होते हैं. ऐसे में निगम के बंटने से बोझ बढ़ गया. खर्चे बढ़ गए. स्टाफ बढ़ गया. कमाई बंट गई. कई इलाकों का निगम रेवेन्यू नहीं जुटा पाता लिहाजा सैलरी संकट आ जाता है. कई नीतिगत फैसले दिल्ली सरकार के पास आने से सैलरी और फंड का संकट रहता है.