
सीने में जलन, आँखों में तूफ़ान सा क्यों है,
इस शहर में हर शख़्स परेशान सा क्यों है...?
...साल 1978 में आई फिल्म 'गमन' का ये गाना आज देश की राजधानी दिल्ली में रहने वाल लोगों के हालात को बखूबी बयां करता है... जहां हवा में जहर घुला हुआ है, हर सांस दिल्ली वालों पर भारी है, यमुना नदी के पानी में बर्फ जैसा सफेद लेकिन जहरीला फोम भरा हुआ है, लोगों के चेहरों पर मास्क है- एक तरफ कोरोना वायरस का खौफ है, तो दूसरी ओर मलेरिया, डेंगू, चिकनगुनिया, स्वाइन फ्लू जैसी बीमारियां जिंदगी की मुश्किलें बढ़ाती जा रही हैं. लेकिन दमघोंटू हवा दिल्ली वालों के लिए सबसे बड़ी मुसीबत बन गई है.
राजधानी दिल्ली के अस्पतालों में सांस की तकलीफ, लंग्स-स्किन से जुड़ी बीमारियों के मरीज बढ़ते जा रहे हैं. डॉक्टर लंग्स से लेकर दमा के मरीजों और बुजुर्गों तक को तमाम बीमारियों को लेकर चेता रहे हैं... इन सब समस्याओं से जूझ रही दिल्ली अभी कोरोना के मामले थमने के बाद खुलने ही जा रही थी कि फिर बढ़ते प्रदूषण की मार ने फिर लॉकडाउन के हालात वापस ला दिए. स्कूल बंद हो गए, दफ्तर वर्क फ्रॉम होम की ओर बढ़ चले...कंस्ट्रक्शन के काम पर रोक लग गई... गाड़ियों की ऑड-ईवन फॉर्मूले की फिर चर्चा शुरू हो गई.
क्यों बने ऐसे हालात?
हर साल अक्टूबर आते ही राजधानी दिल्ली का दम घुटने लगता है. इस बार दिवाली में रोक के बावजूद जमकर पटाखे फूटे. पड़ोसी राज्यों में पराली जलने के मामले बढ़ने लगे और गाड़ियों का प्रदूषण फिर दिल्ली की हवा को दमघोंटू बनाने लगा. नवंबर की शुरुआत के साथ ही फिर दिल्ली की हवा में जहर की मात्रा बढ़ गई. पर्यावरण पर नजर रखने वाली संस्था IQ Air की रिपोर्ट के अनुसार दिल्ली दुनिया के प्रदूषित शहरों की लिस्ट में नंबर-1 पर है. दुनिया के 10 सबसे प्रदूषित शहरों की लिस्ट में भारत के तीन शहर हैं. जिनमें नंबर वन पर दिल्ली जबकि कोलकाता और मुंबई भी इस लिस्ट में हैं.
देश की राजधानी में बढ़ते प्रदूषण का मामला सुप्रीम कोर्ट में पहुंचा. जहां से केंद्र-राज्य सरकारों को लॉकडाउन के विकल्प पर विचार की नसीहत मिली और आनन-फानन में दिल्ली शहर में स्कूल बंद कर दिए गए, दफ्तरों को वर्क फ्रॉम होम की ओर मोड़ दिया गया. कंस्ट्रक्शन पर रोक लगा दी गई. लेकिन अब हर कोई इन सवालों के जवाब जानना चाहता है कि क्या ये समस्या का स्थायी हल है? क्या हर साल सामने आने वाले इस संकट से निपटने के लिए कोई ठोस उपाय किए जा रहे हैं. क्यों राजधानी दिल्ली ही इस संकट में फ्रंट सीट पर हमेशा दिखती है. शहर के आम लोगों की जिंदगी पर इसका असर पड़ रहा है. कैसे हालात गंभीर हो रहे और आगे क्या हो सकता है?
दिल्ली-एनसीआर में क्यों समस्या है ज्यादा गंभीर?
राजधानी दिल्ली में प्रदूषण को लेकर समस्या ज्यादा गंभीर इसलिए भी है क्योंकि इसका असर न केवल दिल्ली में है बल्कि आसपास के शहरों में भी हालात एक जैसे है. इस पूरे इलाके में हर साल अक्टूबर के बाद गैस चैंबर जैसे हालात बन जा रहे है. इस बार भी देश के सबसे अधिक प्रदूषित शहरों की लिस्ट में दिल्ली के साथ-साथ एनसीआर के ही अधिकांश शहर हैं जहां हालात चिंताजनक बने हुए हैं. दिल्ली में AQI लेवल 15 नवंबर को जहां 386 था. जबकि 12 नवंबर को ये 499 हो गया था. जबकि नोएडा में 466 और गुरुग्राम में 422 दर्ज किया गया.
इससे पहले 6 नवंबर को दिल्ली में जहां Air Quality Index 533 दर्ज किया गया था यानी अति गंभीर श्रेणी में. वहीं गाजियाबाद में 486, नोएडा में 478, हापुड़ में 468, ग्रेटर नोएडा में 461, गुरुग्राम में 456, मेरठ में 455 तो हरियाणा के वल्लभगढ़ में AQI 448 दर्ज किया गया. यहां यह स्पष्ट कर देना जरूरी है कि 100 से अधिक AQI लेवल सांस या अन्य बीमारियों से जूझ रहे लोगों के लिए खतरनाक माना जाता है.
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आम लोगों की जिंदगी पर किस तरह का फर्क पड़ रहा?
स्कूलों पर ताला लगने, कंस्ट्रक्शन पर रोक समेत रोजगार के कई साधनों पर पाबंदियों के अलावा बढ़ते प्रदूषण का सबसे ज्यादा असर स्वास्थ्य पर हो रहा है. खासकर बच्चों-बुजुर्गों और प्रेग्नेंट महिलाओं के स्वास्थ्य को इससे ज्यादा खतरा है. दिल्ली में स्मॉग बढ़ते ही अस्पतालों में सांस की तकलीफ, स्किन और लंग्स से जुड़े मरीज बढ़ने लगे हैं. वसंत कुंज के फोर्टिस अस्पताल के पल्मोनोलॉजी सलाहकार डॉ. निखिल बंटे ने न्यूज एजेंसी को बताया- 'दिवाली के बाद खांसी और नाक बंद होने के मामले बढ़े हैं. ओपीडी में आने वाले मरीजों में सांस की तकलीफ के रोगियों में 20 से 30 फीसदी का इजाफा हुआ है.'
वहीं आकाश हेल्थकेयर के पल्मोनोलॉजिस्ट डॉ. अक्षय बुधराजा ने कहा 'सांस लेने में तकलीफ, नाक बहना, गले में खराश, सीने में संक्रमण, एलर्जी और अस्थमा के मामले अप्रत्याशित रूप से बढ़ रहे हैं. उन्होंने कहा कि पार्टिकुलेट मैटर का हर व्यक्ति के स्वास्थ्य पर अलग-अलग असर पड़ता है. यह व्यक्ति की उम्र, स्वास्थ्य की स्थिति, गर्भावस्था, व्यावसायिक जोखिम और धूम्रपान की आदतों पर भी निर्भर करता है.' ऐसे में डॉक्टर लोगों को आंख आने (conjunctivitis),सांस की तकलीफ, स्किन एलर्जी, सिरदर्द, नींद न आना, ध्यान एकाग्र न कर पाना, उल्टी और पेट में दर्द सरीखी बीमारियों को लेकर चेता रहे हैं.
दो दशकों में आखिर कैसे दिल्ली में हवा जहरीली होती चली गई?
1980 के दशक तक राजधानी दिल्ली जैसे बड़े शहरों में भी प्रदूषण की समस्या का कोई जिक्र तक नहीं होता था, लेकिन बढ़ते शहरीकरण, उद्य़ोग-धंधों के बढ़ने, गाड़ियों की संख्या बढ़ने, मशीनों के इस्तेमाल बढ़ने, बिल्डिंग्स निर्माण और सड़कों के निर्माण के कारण धूल उड़ने और खेतों में पराली जलाने के चलन के कारण शहरों की हवा में प्रदूषण फैलाने वाले प्रदूषित कणों जैसे कि PM2.5, SO2 यानी सल्फरडाई ऑक्साइड और PM10 जैसे पॉलुटेंट का हिस्सा बढ़ता चला गया. 1990 के दशक के बाद औद्योगिकरण बढ़ा तो शहरों की हवा में प्रदूषण के कण भी बढ़े. 2001 में जहां दिल्ली-एनसीआर की आबादी 1 करोड़ 60 लाख थी वहीं ये 2011 तक बढ़कर ढाई करोड़ से ऊपर पहुंच गई. इसी तरह 2004 में जहां दिल्ली-एनसीआर में गाड़ियों की संख्या 42 लाख थीं वहीं 2018 आते-आते ये संख्या एक करोड़ से ऊपर आ गई. इसी के अनुपात में उद्योग-धंधे बढ़ते गए, कंस्ट्रक्शन का काम बढ़ता गया. आबादी के बढ़ते बोझ और मशीनीकरण ने शहरों में प्रदूषण का लेवल भी बढ़ा दिया.
1998 में दिल्ली में बढ़ते प्रदूषण लेवल को लेकर एक्शन प्लान सामने रखा गया. सुप्रीम कोर्ट तक मामला पहुंचा और एक्शन की शुरुआत हुई. फिर 2010 के दशक में दिल्ली में बढ़ते प्रदूषण के लेवल को देखते हुए एक्शन की शुरुआत हुई. सुप्रीम कोर्ट ने सीएनजी जैसे स्वच्छ ऊर्जा से चलने वाले पब्लिक ट्रांसपोर्ट बढ़ाने, उद्योग-धंधों और फैक्ट्रियों को दिल्ली शहर से बाहर शिफ्ट करने समेत कई आदेश दिए. कोर्ट के आदेश के बाद राजधानी दिल्ली में बसों-ऑटों को पेट्रोल-डीजल की बजाय सीएनजी पर शिफ्ट करने के लिए सख्त नियम बनाए गए. हालांकि, हालात हर साल गंभीर होते ही गए.
सबसे बुरा दौर
2016 में दिल्ली ने स्मॉग का सबसे बुरा दौर देखा. नवंबर 2016 में राजधानी की हवा में PM2.5 का लेवल तय लिमिट से 12 गुना तक बढ़कर 750 माइक्रोग्राम तक पहुंच गया. हालात बेकाबू हुए तो दिल्ली शहर में गाड़ियों की संख्या सड़क पर घटाने के लिए ऑड-ईवन फॉर्मूले को भी लागू किया गया लेकिन कुछ दिनों की राहत के बाद कोई ज्यादा असर नहीं दिखा. अब अक्टूबर आते ही दिल्ली में हर साल प्रदूषण की समस्या सर उठाकर खड़ी हो जाती है और हर साल हालात एक जैसे ही होते हैं. इसपर नियंत्रण के लिए सरकारों के पास न तो कोई ठोस प्लान दिख रहा और न ही कोई ठोस कदम उठते हुए दिख रहा.
आने वाले समय में खतरे क्या हैं?
2014 में आई पर्यावरण रिपोर्ट में कहा गया कि पिछले एक दशक में देश में हवा की गुणवत्ता में 100 फीसदी तक गिरावट आई है और अगर सख्त कदम नहीं उठाए गए तो शहरों में हालात बिगड़ते चले जाएंगे. डब्ल्यूएचओ के अनुसार दुनिया में हर साल हवा के प्रदूषण से जुड़ी बीमारियों से 70 लाख लोगों की जान चली जाती है. इसी तरह भारत में भी हर साल 20 लाख लोग प्रदूषण से जुड़ी समस्याओं के चलते जान गंवा देते हैं. दिल्ली में खासकर प्रदूषण बच्चों के लंग्स पर बुरा प्रभाव डाल रहा है. दिल्ली-मुंबई-कोलकाता जैसे शहर दुनिया के सबसे बड़े प्रदूषित शहरों की लिस्ट में शामिल हैं. यानी यहां की आबादी के लिए प्रदूषण के खतरे भी ज्यादा हैं. एक अनुमान के मुताबिक साल 2030 तक दुनिया की 50 फीसदी आबादी शहरी इलाकों में रह रही होगी मतलब प्रदूषण से जुड़ी समस्याएं भी बढ़ती जाएंगी.
बैंकॉक जैसे शहरों के अनुभव से क्या सीख सकती है दिल्ली?
दुनिया के बड़े शहरों खासकर ज्यादा आबादी वाले शहरों में प्रदूषण का खतरा लगातार सर उठाता जा रहा है. खासकर बीजिंग, लाहौर, बैंकॉक, बेलग्रेड जैसे शहरों की आबादी इससे ज्यादा प्रभावित दिख रही है. एक-एक कदम उठाकर इस दिशा में हालात को धीरे-धीरे बदला जा सकता है. 2019 में थाईलैंड की राजधानी बैंकॉक में प्रदूषण की समस्या एकदम चरम पर आ गई थी. इसके बाद वहां कई लेवल पर प्लान बनाकर कदम उठाए गए. ज्यादा प्रदूषण फैलाने वाली गाड़ियों पर रोक लगाई गई, बच्चों को सेफ रखने के लिए स्कूलों को बंद करना पड़ा, फैक्ट्रियों और अन्य उद्योग धंधों में प्रदूषण की निगरानी के लिए पुलिस और सेना को तैनात कर सख्ती गई.
प्लेन के जरिए क्लाउस सीडिंग कर कृत्रिम बरसात कराई गई और आसमान से प्रदूषण को साफ किया गया. शहर की सड़कों पर चल रहे टू-थ्री व्हीलर्स गाड़ियों को गैसोलीन की बजाय इलेक्ट्रिक गाड़ियों में बदलने के लिए कदम उठाए गए. शहर में गाड़ियां कम करने के लिए कैनल ट्रांसपोर्ट सिस्टम शुरू किया गया ताकि नहरों में नाव और फेरी चलाकर ट्रांसपोर्ट के नए विकल्प लोगों को दिए जा सकें. कार्बन उत्सर्जन घटाने के लिए उद्योगों के लिए सख्त नियम बनाए गए. इससे कुछ हद तक हालात कंट्रोल में आए. आज जब दिल्ली प्रदूषण से कराह रही है और AQI लेवल 500 के करीब बना हुआ है तब बैंकॉक में 93 के आसपास बना हुआ है. थाईलैंड की इन हालातों को अगर पूर्ण सफलता न भी माना जाए तो एक अच्छी शुरुआत पर्यावरणविद् जरूर मानते हैं. लेकिन अभी भी ठोस प्लान और कदमों की जरूरत है ताकि स्थायी हल खोजा जा सके.
बैंकॉक की कहानी किसी एक शहर की कहानी नहीं है. एशिया के अधिकांश विकासशील देशों में हालात कमोबेश ऐसे ही हैं. एक रिपोर्ट के अनुसार एशिया की 92 फीसदी आबादी यानी 4 अरब से अधिक लोग हवा में प्रदूषण के खतरे के बीच रह रहे हैं. जिसका असर लंग्स, सांस, स्किन समेत तमाम स्वास्थ्य के हालात पर पड़ रहा है. दिल्ली जैसी बड़ी आबादी और भीड़भाड़ वाले शहर में पर्यावरण संरक्षण के सख्त नियम लागू कराना आसान तो नहीं है लेकिन अब सरकारों के पास कोई और विकल्प भी नहीं है. अभी हाल ही में ग्लास्गो शहर में हुए पर्यावरण के Cop26 सम्मेलन में दुनिया में तापमान और कार्बन उत्सर्जन घटाने और ग्रीन ऊर्जा के बड़े लक्ष्यों को हासिल करने का संकल्प लिया गया. हालांकि सिर्फ संकल्पों से काम नहीं होगा बल्कि सख्त नियम बनाने होंगे और जमीन पर उन्हें लागू करना होगा. नहीं तो दुनिया और इंसान के सामने बड़े खतरे आएंगे.
महान वैज्ञानिक स्टीफन हॉकिंग ने चेताया भी था कि- 'हमारे भौतिक संसाधनों का खतरनाक स्तर पर दोहन हो रहा है. हमने अपने ग्रह को जलवायु परिवर्तन के रूप में विनाशकारी तोहफा दिया है. अगर ग्रीन हाउस गैस का उत्सर्जन कम नहीं किया गया तो एक दिन शुक्र ग्रह की तरह ही धरती पर भी 460 डिग्री सेल्सियस तापमान होगा और इंसानों को जीवन बचाने के लिए किसी और ग्रह पर जाकर रहना होगा.'