रजाई में दुबके रहना अब मुश्किल हो गया था. माघ की गुनगुनी धूप जो चढ़ आई थी. रजाई को गिलाफ में लपेटा और चल दिये तफरीह के लिए जामा मस्जिद और मीना बाजार. वक्त सुबह का था, लेकिन बड़ी देग से निकल रहा खुशबू का भभका नथुनों में समाता जा रहा था. जवित्री, जायफल, मिर्च, इलायची की तेज गमक भूख को आमंत्रण दे रही थी. आमंत्रण निहारी खाने के लिए.
सुबह निहारी, फिर लंबा आराम और शाम को एक बार फिर तफरीह. मुगलों और नवाबों का ये शौक अब तो इतिहास की चीज रह गई है. लेकिन दिल्ली की निहारी अभी भी कायम है. जामा मस्जिद और आस-पास के इलाकों में अभी भी सुबह-सुबह निहारी के लिए लोग लाइन में दिख जाएंगे.
दिल्ली की जामा मस्जिद के पास निहारी के एक ऐसे ही कद्रदान हैं रहमान भाई साहब. निहारी खाते तो हैं ही, पकाते और बेचते भी हैं. 150-200 सालों से इनके पूर्वज निहारी की प्लेट सजाने-निखारने में लगे हैं.
लल्लनटॉप के साथ बातचीत के दौरान निहारी की प्लेट पर रहमान भाई ने जब बातों की गठरी खोली तो तारीख आंखों के सामने चलचित्र की तरह तैर गया.
अपने वालिद के नाम पर जामा मस्जिद मार्केट में रहमतुल्ला होटल चलाने वाले रहमान ने निहारी की कहानी को चटखारे ले-लेकर सुनाया. दिल्ली पर लुटेरे नादिरशाह का हमला. यमुना के पानी कैसे पकाई गई निहारी. कैसे जामा मस्जिद की निहारी का टेस्ट, जामिया की निहारी से अलग है. पानी-पानी का अंतर. साथ ही उन्होंने 'हकीकत' में बताया कि कैसे त्रिवेदी की संतानें पांच पीढ़ी बाद रहमान और रहमतुल्लाह हो गईं.
रहमान भाई ने बताया कि इसका नाम नहारी है. उन्होंने कहा कि मुगल बादशाह रंगीले शाह (1702- 1748) के समय नादिरशाह ने दिल्ली पर चढ़ाई कर दी. उस समय ठंड बहुत पड़ रही थी. नादिरशाह की फौज को दिल्ली में टिकना मुश्किल हो रहा था. रहमान बताते हैं कि गैर-मुस्लिम शराब पी लिया करते थे. लेकिन मुस्लिम सिपाहियों को ठंड से लड़ने में दिक्कत हो रही थी.
इस उपाय खोजने के लिए नादिरशाह के साथ आए हकीम ने एक डिश बनाई. इस डिश में उन्होंने जवित्री, जायफल, लौंग-इलायची डाला. इसके अलावा मटन से बनने वाले इस डिश में हर्बल, सोंठ, सौंफ, लालमिर्च, बेशन, चीनी, नमक डाली. ये एक ऐसी डिश थी जिसमें ठंड से लड़ने की गजब की शक्ति थी.
गौरतलब है कि निहारी उर्दू शब्द निहार से बना है, जिसे अरबी में नाहार कहते हैं और इसका मतलब सुबह होता है. तब ये डिश लोकप्रिय हुई तो लोग इसे सुबह सुबह खमीरी रोटी के साथ खाते थे. रहमान बताते हैं कि निहारी को रात-भर यानी कि लगभग 10-12 घंटे पकाया जाता है और इसे सुबह खाया जाता है.
रहमान का दावा है कि इसे खाने से नजला-जुकाम और ठंड से होने वाली कई बीमारियां दूर हो जाती है.
अपनी कहानी बताते हुए रहमान कहते हैं कि जिस वक्त देश का बंटवारा हुआ उस वक्त जो मालदार मुसलमान थे और जो गरीब मुस्लिम थे वे पाकिस्तान भाग गए. लेकिन मिडिल क्लास और हाथ से काम करने वाला मुस्लिम यहीं रह गया. उस वक्त बड़ी किल्लत थी, खाने के पैसे नहीं थे तब उनके वालिद 1948 में ये होटल खोला.
अपनी खानदान को तलाशते हुए रहमान कहते हैं कि दिल्ली का मूल वाशिंदा तो कोई नहीं है. जिस बादशाह ने दिल्ली बसाया वो भी दिल्ली का नहीं है. हम उत्तर प्रदेश के अमरोहा से वास्ता रखते हैं और 1934 से दिल्ली में रह रहे हैं. आज हमारी चौथी पीढ़ी चल रही है.
रहमान ने कहा कि ये काम पुश्तों से नहीं हो रहा है.उन्होंने कहा, "लोग हकीकत नहीं बताते हैं, लेकिन मैं बताता हूं. मेरा नाम है फजलूर्रहमान. मेरे बाप का नाम रहमतुल्लाह, उनके बाप का नाम अलीमुल्लाह, अलीमुल्लाह के बाप का नाम छज्जू, और छज्जू के जो वालिद थे वो पंडित ज्वाला प्रसाद त्रिवेदी, पत्नी शारदा देवी थे, जो कि बनारस के रहने वाले थे."
रहमान ने बड़ी साफगोई और ईमानदारी से कहा कि पंडित ज्वाला प्रसाद त्रिवेदी मुसलमान हो गए. वो वहां से शाहजहांपुर गये जहां पठान ज्यादा थे. लेकिन उनको वहां से भगा दिया. फिर वहां से चलकर वो अमरोहा आए. अमरोहा में उन्हें एक कुरैशी ने जगह दी. यहां से वे कुरैशी हो गए. फिर उनके परिवार के लोग दिल्ली आ गए. इस तरह से बनारस से शुरू हुआ ये कारवां दिल्ली आकर ठहरा.
उन्होंने कहा कि लोग हकीकत छिपाते हैं लेकिन हकीकत तो यही है.
रहमान बताते हैं कि वे अपना काम बेहद ईमानदारी से करते हैं. उन्होंने कहा कि निहारी की इस लजीज डिश में वो मीठी इत्र मिलाते हैं, इसके अलावा एक ऐसा मसाला है जो फैमिली सीक्रेट है और कई सालों से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को ट्रांसफर होता आ रहा है वे इसकी जानकारी किसी को नहीं दे सकते हैं.