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जिम्मेदारी को बखूबी निभाया और ऐसे गांधी परिवार के करीब आईं शीला दीक्षित

शीला दीक्षित शुरुआती दिनों में चुनाव लड़ने को लेकर संकोच कर रही थीं. लेकिन ससुर उमाशंकर दीक्षित के समझाने पर उन्होंने चुनाव लड़ा. शीला दीक्षित के राजनीतिक करियर की शुरुआत कन्नौज चुनाव से हुई.

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गांधी-नेहरू परिवार के काफी करीब मानी जाती थीं शीला दीक्षित (फाइल फोटो-India Today)
गांधी-नेहरू परिवार के काफी करीब मानी जाती थीं शीला दीक्षित (फाइल फोटो-India Today)

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शीला दीक्षित अब नहीं रहीं. दिल्ली की सत्ता पर कांग्रेस को सबसे लंबे समय तक कायम रखने वाली शीला दीक्षित के निधन से पार्टी के अंदर एक वैक्यूम पैदा हो गया है. दांवपेच वाली राजनीति में उन्होंने भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) को बेदखल कर दिल्ली में कांग्रेस का झंडा बुलंद किया. वह 3 दिसंबर 1998 से 28 दिसंबर 2013 तक दिल्ली की मुख्यमंत्री रहीं.

उस दौरान जब उन्हें दिल्ली की कमान सौंपी गई तो उसमें एक तत्व ये भी था कि वो गांधी परिवार की करीबी मानी जाती थीं. गांधी-नेहरू परिवार के करीब आने की कहानी दिलचस्प है. एक पूरी तरह से गैर-राजनीतिक परिवार से आने वालीं शीला दीक्षित की शादी उस समय कांग्रेस के बड़े नेता रहे उमाशंकर दीक्षित के बेटे विनोद दीक्षित से हुई थी. दोनों लोगों की मुलाकात दिल्ली यूनिवर्सिटी में पढ़ाई करने के दिनों में हुई थी. विनोद दीक्षित भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी थे. यहीं से शीला दीक्षित के जीवन में सियासत धीरे-धीरे पैबस्त होने लगी.

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दिल्ली की सबसे चहेती CM रहीं शीला दीक्षित को श्रद्धांजलि देने के लिए यहां कमेंट करें

उमाशंकर दीक्षित को जवाहरलाल नेहरू के करीबी लोगों में गिना जाता था. बाद में उन पर इंदिरा गांधी ने भी भरोसा किया. उमाशंकर दीक्षित पहले देश के गृह मंत्री रहे और फिर बाद में कर्नाटक और पश्चिम बंगाल के राज्यपाल भी बने. जब शीला दीक्षित पढ़ाई कर रही थीं, उस वक्त वे भारत सेवक समाज द्वारा अपने इलाके में किए जाने वाले श्रमदान आदि में हिस्सा लेती थीं. शादी के बाद उन्होंने अपने ससुर के राजनीतिक कामकाज में हाथ बंटाना शुरू कर दिया. इस तरह धीरे-धीरे कांग्रेस के बड़े नेता भी उन्हें जानने लगे.

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इसी बीच, 1984 में जब आम चुनाव हुए तो राजीव गांधी ने शीला दीक्षित को उत्तर प्रदेश की कन्नौज सीट से मैदान में उतारा. हालांकि शीला दीक्षित शुरुआती दिनों में चुनाव लड़ने को लेकर संकोच कर रही थीं. लेकिन ससुर उमाशंकर दीक्षित के समझाने पर उन्होंने चुनाव लड़ा. शीला दीक्षित की आधिकारिक तौर पर राजनीतिक शुरुआत कन्नौज चुनाव से हुई. इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए चुनाव में वह लोकसभा पहुंच गईं. बतौर सांसद अपने पहले ही कार्यकाल में वह केंद्र में मंत्री भी बनीं.

उन पर भरोसा जताते हुए 32 साल की राजीव गांधी मंत्रिमंडल में उन्हें पहले संसदीय कार्य राज्य मंत्री बनाया गया. उन्‍होंने अपने कामकाज से सभी को प्रभावित किया. यही वजह थी कि गांधी परिवार से उनका पारिवारिक संबंध बन गया.

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चुनाव में विजयी शीला दीक्षित पहली ही बार केंद्र में मंत्री बनीं. राजीव गांधी सरकार में उन्हें संसदीय कार्य मंत्री का दायित्व सौंपा गया. पहली ही बार संसद पहुंचीं शीला को संसदीय कार्य मंत्री का दायित्व सौंपा जाना भी यह बताता है कि वह गांधी परिवार के कितने करीब थीं.

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राजीव गांधी ने शीला दीक्षित पर जो भरोसा जताया था, पार्टी की कमान अपने हाथ में आने के बाद सोनिया गांधी भी अपने पति के उसी भरोसे पर बरकरार रहीं. सोनिया गांधी ने भी नेहरू-दीक्षित परिवार का नाता निभाया और दिल्ली कांग्रेस की कमान शीला को सौंप दी.

शीला ने भी सोनिया को निराश नहीं किया और दिल्ली में पार्टी के सांगठनिक ढांचे को दुरुस्त कर सत्ता तक पहुंचा विश्वास की डोर को और मजबूत कर दिया. 1998 का दिल्ली विधानसभा चुनाव उनके नेतृत्व में लड़ा गया. उस समय दिल्ली में प्याज और आलू के दाम आसमान छू रहे थे.

नतीजा यह हुआ कि सुषमा स्वराज के नेतृत्व में बीजेपी चुनाव हार गई और शीला दीक्षित दिल्ली की मुख्यमंत्री बन गईं. इसके बाद वे 2003 का विधानसभा चुनाव भी जीतीं और 2008 का भी. दिल्ली के मुख्यमंत्री के तौर पर शीला दीक्षित को उनके कराये तमाम विकास कार्यों के लिए याद किया जाता है.

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