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10 फरवरी 1949 को लाल किले में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की हत्या का मुकदमा चला. इसमें कई साजिशकर्ता सामने आए. कई गवाहों से घंटों क्रॉस एग्जामिनेशन किया गया. बाद में मुख्य आरोपी के तौर पर बापू के हत्यारे नाथूराम गोडसे को फांसी की सजा सुनाई गई. इस फैसले की एक-एक बात तफ्सील से 211 पेजों की एक फाइल में दर्ज है.
आजतक की टीम ने इस पूरी फाइल को पढ़ा. आज बापू के जन्मदिन के मौके पर इस फाइल से हम आपके लिए निकालकर लाएं हैं कुछ अनसुनी दास्तान... इस सीरीज में हम आपको बताने जा रहे हैं कि आखिर हजारों लोगों के सामने गोली चलाने के बावजूद भी कैसे सुनिश्चित कई गई थी बापू के हत्यारे गोडसे की पहचान? बापू पर गोली चलाने वाले नाथूराम गोडसे को घटनास्थल पर ही गिरफ्तार कर लिया गया था और बाद में नारायण डी आप्टे और विष्णु करकरे सहित कई साजिशकर्ताओं के साथ उस पर मुकदमा चलाया गया था. नाथूराम गोडसे और नारायण डी आप्टे को बाद में गांधी जी की हत्या के आरोप में दोषी ठहराते हुए 15 नवंबर 1949 को फांसी दी गई थी. ये आजाद भारत की पहली फांसी की सजा थी.
आइडेंटिफिकेशन परेड आपराधिक जांच का एक महत्वपूर्ण पहलू होता है. इसमें गवाहों को अलग-अलग व्यक्तियों में से आरोपियों की पहचान करने के लिए कहा जाता है. इससे यह सुनिश्चित होता है कि अपराध करने वाले व्यक्ति की सटीक पहचान हो सके. गांधीजी की हत्या के मामले में, नाथूराम गोडसे, नारायण डी. आप्टे और विष्णु करकरे सहित हत्या में शामिल प्रमुख आरोपियों की पहचान करने के लिए कई ऐसी परेड आयोजित की गईं.
कैसे हुई नाथूराम गोडसे की पहचान
इस केस में सबसे जरूरी पहचान नाथूराम गोडसे की थी. 28 फरवरी, 1948 को, पहली आइडेंटिफिकेशन परेड आयोजित की गई, जिसकी निगरानी मजिस्ट्रेट किशन चंद ने की. इस परेड में गोडसे के साथ नारायण आप्टे और विष्णु करकरे भी शामिल थे, साथ ही बारह दूसरे विचाराधीन आरोपी भी थे. इस प्रोसेस को काफी सख्त प्रोटोकॉल के साथ पूरा किया गया.
इस परेड के दौरान, कई गवाहों ने गोडसे को सही ढंग से पहचाना. प्रमुख गवाहों में राम चंदर, कालीराम, सी. पाचेको, मार्टो थडियस, सुरजीत सिंह, मस्त. कोलोचंस और छोटू बन शामिल थे. ये वो लोग थे, जिन्होंने बिना किसी संदेह के गोडसे को पहचाना. इन कई गवाहों की पहचान ने गोडसे के खिलाफ मामले को और भी मजबूत कर दिया.
बचाव पक्ष ने उठाए थे आइडेंटिफिकेशन को लेकर बड़े सवाल
इस पूरे आइडेंटिफिकेशन प्रोसेस के दौरान दो सबसे बड़े सवाल बचाव पक्ष ने उठाए थे:
1. सिर ढकने का मुद्दा: बचाव पक्ष का दावा था कि नाथूराम गोडसे को पहचानने के लिए आइडेंटिफिकेशन परेड के दौरान उसके सिर पर पट्टी बांधी गई थी, जिससे उसे अलग से आसानी से पहचाना जा सकता था. जबकि दूसरे विचाराधीन कैदियों को ये पट्टियां नहीं बांधी गई थीं, जिससे गवाहों के लिए गोडसे का पता लगाना आसान था.
हालांकि, मजिस्ट्रेट किशन चंद ने अपनी गवाही में इसे लेकर साफ किया था. उन्होंने इस बात से इनकार किया और कहा कि सिर पर लगे कपड़े के कारण गोडसे की पहचान नहीं की गई है, बल्कि कई दूसरे कारण भी हैं. इसके अलावा, खुद गोडसे ने अपने बयान में माना था कि परेड में शामिल कुछ लोगों ने अपने सिर पर रूमाल या तौलिया ढका हुआ था, लेकिन उसके सिर पर बंधी पट्टी और दूसरों के बीच कोई खास अंतर नहीं था.
2. महाराष्ट्रीयन पहचान: बचाव पक्ष का एक और तर्क ये था कि नारायण आप्टे और विष्णु करकरे की पहचान मराठी होने की वजह से की गई. वे दोनों महाराष्ट्रीयन जैसे दिखते थे, जबकि जिन विचाराधीन कैदियों के साथ उन्हें खड़ा किया गया था, वे मराठी नहीं थे. इसे लेकर बचाव पक्ष ने तर्क दिया कि इससे गवाहों के लिए उन दोनों की पहचान करना आसान हो गया था.
हालांकि, मजिस्ट्रेट ने इस दावे का खंडन करते हुए कहा था कि नारायण आप्टे प्रत्यक्ष रूप से महाराष्ट्रीयन नहीं दिखते हैं. इसके अलावा, दोनों को परेड के दौरान अपने कपड़े बदलने का ऑप्शन भी दिया गया था. इस बात का कोई कारण नहीं था कि उन्हें केवल उनके जातीय पृष्ठभूमि के कारण पहचाना गया हो.
कई परेड की गई थी आयोजित
पहचान की ये प्रक्रिया सिर्फ एक परेड से नहीं रुकी. बॉम्बे के हेड प्रेसीडेंसी मजिस्ट्रेट ऑस्कर बी ब्राउन ने नाथूराम गोडसे, नारायण आप्टे, विष्णु करकरे और अन्य के खिलाफ कई आइडेंटिफिकेशन परेड की. ये कार्यवाही कई महीनों तक चली:
-7 जनवरी, 1948 को गोडसे और नारायण आप्टे के खिलाफ एक आइडेंटिफिकेशन परेड आयोजित की गई थी.
-1 फरवरी, 1948 को एक और आइडेंटिफिकेशन परेड आयोजित की गई, जिसमें गोडसे, आप्टे, करकरे और अन्य शामिल थे.
-मार्च 16, मार्च 10, मार्च 14, और 9 अप्रैल, 1948 को भी आइडेंटिफिकेशन परेड आयोजित की गई थी.
कई सावधानियां बरती गईं
पहचान की कार्यवाही में मजिस्ट्रेट ऑस्कर बी. ब्राउन ने अपनी तरफ से गवाही के लिए अलग से सावधानी बरती. उन्होंने परेड के लिए अलग-अलग कोर्ट रूम से अपने आप लोगों का चयन किया और यह सुनिश्चित किया कि जांच में शामिल कोई भी पुलिस अधिकारी कार्यवाही के दौरान उपस्थित नहीं रहे.
जजमेंट के मुताबिक, इसमें शामिल सभी पक्षों के सामने पंचनामा (ज्ञापन) लिखा जाता था. इसके अलावा, कोई भी पंचनामे पर किसी भी आपत्ति या सुधार के लिए आवाज उठा सकता था. इन परेडों के दौरान किसी भी आरोपी ने कोई आपत्ति नहीं जताई थी.
नाथूराम गोडसे और उसके साथ साजिश करने वालों की पहचान ने महात्मा गांधी की हत्या के बाद मुकदमे में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. सख्त कानूनी प्रोटोकॉल के तहत इन सभी की पहचान की गई थी.
गौरतलब है कि महात्मा गांधी मर्डर केस की ओरिजिनल जजमेंट फाइल को दिल्ली हाई कोर्ट ने हाई कोर्ट ई-म्यूजियम नाम के ऑनलाइन पोर्टल पर अपलोड किया है. इसमें कई ऐतिहासिक केस की ओरिजिनल जजमेंट फाइल अपलोड की गई है. जिसमें डिस्ट्रिक्ट कोर्ट सुप्रीम कोर्ट दोनों के दस ऐतिहासिक केस के डिजिटल रिकॉर्ड शामिल हैं. दिल्ली हाई कोर्ट का पहला जजमेंट, इंदिरा गांधी हत्या, संसद हमला और लाल किला हमला जैसे कई जरूरी जजमेंट को शामिल किया गया है. का यह पहला भाग गांधी की हत्या के बाद की कानूनी प्रक्रिया के बारे में है.
क्या थीं बचाव पक्ष की दलीलें
महात्मा गांधी की हत्या में कई षड्यंत्र और कानूनी चुनौतियां शामिल थीं. नाथूराम गोडसे ने 30 जनवरी, 1948 को महात्मा गांधी पर गोलियां चलाईं थीं. महात्मा गांधी मर्डर केस में आरोपियों में एक नाम ऐसा भी था जिस पर खूब बहस चली. ये नाम था विनायक दामोदर सावरकर और उनकी भूमिका.
इस पूरी जिरह में कई षड्यंत्रकारी सामने आए और गवाहों की घंटों पूछताछ की गई. बचाव की रणनीतियां सबकी अलग-अलग थीं. लेकिन इन सब में मुख्य तर्क यह था कि नाथूराम गोडसे ने अकेले इस हत्या को अंजाम दिया है और इसके पीछे कोई बड़ा षड्यंत्र नहीं था. बचाव पक्ष ने अन्य आरोपियों जैसे नारायण डी. आप्टे, दिगंबर बड़गे और अन्य की भूमिकाओं को कम करके दिखाने की कोशिश की गई. इस दौरान सभी ने अपने-अपने स्टेटमेंट दिए थे.
‘केवल मैं था जिम्मेदार’
नाथूराम गोडसे, जिसने 30 जनवरी, 1948 को गांधी को गोली मारी थी, ने अपने बचाव में एक लंबा लिखित बयान दायर किया था. इस दस्तावेज में उसने अपने कदमों और गांधी की हत्या से पहले की घटनाओं के बारे में डिटेल में बताया. गोडसे ने दावा किया कि भले ही उसने हत्या की हो, लेकिन ये हत्या केवल उसके अपने व्यक्तिगत राजनीतिक पक्ष से प्रभावित थी न कि किसी साजिश का हिस्सा. गोडसे ने खुद को अपराध का एकमात्र सूत्रधार बताया. इतना ही नहीं बल्कि गोडसे ने दूसरों की भूमिका को भी सिरे से खारिज कर दिया.
अपने लिखित बयान के अनुसार, गोडसे और उनके करीबी सहयोगी नारायण डी. आप्टे 14 जनवरी, 1948 को पूना (अब पुणे) से बॉम्बे (अब मुंबई) गए थे. गोडसे के अनुसार, उनका उद्देश्य गांधी के अनशन और पाकिस्तान को ₹55 करोड़ देने में उनकी भूमिका के खिलाफ दिल्ली में प्रदर्शन करना था. गोडसे को गांधी के विभाजन के दौरान किए गए कार्यों और उसके बाद हुए सांप्रदायिक हिंसा से गहरा दुख और धोखा महसूस हुआ था. उनके अनुसार, गांधी की नीतियां पाकिस्तान के बनने और लाखों हिंदुओं की पीड़ा के लिए जिम्मेदार थीं.
गोडसे और आप्टे ने फर्जी नामों का इस्तेमाल करते हुए 17 जनवरी, 1948 को बॉम्बे से दिल्ली की फ्लाइट ली और वे नकली नामों से मरीना होटल में ठहरे. वे 20 जनवरी तक दिल्ली में रहे, जिसके बाद वे कानपुर के लिए रवाना हो गए और फिर बॉम्बे लौट आए. गोडसे के अनुसार, वे 27 जनवरी को आप्टे के साथ फिर से फर्जी नामों के साथ ही दिल्ली लौटे. 30 जनवरी, 1948 को गोडसे ने स्वीकार किया कि उन्होंने अकेले ही बिरला हाउस में महात्मा गांधी को गोली मारी थी और इस तरह हत्या की पूरी जिम्मेदारी ली.
गोडसे का बचाव दो प्रमुख तर्कों पर आधारित था: पहला, कि गांधी की हत्या के लिए वे अकेले जिम्मेदार थे, और दूसरा, कि उनका काम राजनीतिक विचारधारा से प्रेरित था, न कि किसी व्यक्तिगत दुश्मनी से.
बचाव पक्ष की रणनीति अलग-अलग थी
गांधी हत्या मामले में बचाव पक्ष की रणनीति काफी अलग-अलग थी. गोडसे का बचाव उसके व्यक्तिगत उद्देश्यों पर केंद्रित था, जबकि आप्टे और बड़गे जैसे अन्य लोगों ने अपनी भागीदारी को कम करके दिखाने या साजिश की जानकारी न होने का दावा करने की कोशिश की थी.
अदालत के फैसले, को 211 पन्नों की फाइल में दर्ज किया गया. महात्मा गांधी मर्डर केस की पूरी जजमेंट फाइल को दिल्ली हाई कोर्ट ने हाई कोर्ट ई-म्यूजियम नाम के ऑनलाइन पोर्टल पर अपलोड किया है. इसमें कई ऐतिहासिक केस की ओरिजिनल जजमेंट फाइल अपलोड की गई है. जिसमें डिस्ट्रिक्ट कोर्ट सुप्रीम कोर्ट दोनों के दस ऐतिहासिक केस के डिजिटल रिकॉर्ड शामिल हैं. जैसे- दिल्ली हाई कोर्ट का पहला जजमेंट, इंदिरा गांधी हत्या, संसद हमला और लाल किला हमला जैसे कई जरूरी जजमेंट आदि.
इस जजमेंट में गोडसे ने अपना अपराध स्वीकारा था. वहीं अन्य लोगों, विशेष रूप से आप्टे, बड़गे और सावरकर की भागीदारी को लेकर काफी बड़ी जांच हुई. आखिर में, कई आरोपियों को दोषी ठहराया गया, जबकि सावरकर जैसे अन्य लोगों को सबूतों की कमी के कारण बरी कर दिया गया.
सावरकर की क्या भूमिका थी?
गांधी हत्या मामले के सबसे विवादास्पद पहलुओं में से एक हिंदू महासभा के प्रमुख नेता विनायक दामोदर सावरकर की भूमिका थी. सावरकर पर हत्या की साजिश में प्रमुख साजिशकर्ता होने का आरोप लगाया गया था, और पक्ष ने तर्क दिया कि सावरकर ने गोडसे और आप्टे को वैचारिक समर्थन दिया था.
अपने बचाव में, सावरकर ने साजिश में किसी भी तरह की भागीदारी से इनकार किया था. सावरकर का दावा था कि भले ही उनकी गोडसे और आप्टे से बातचीत हुई थी, लेकिन ये चर्चाएं केवल राजनीतिक मुद्दों पर केंद्रित थीं और गांधी की हत्या से उनका कोई संबंध नहीं था. सावरकर के बचाव का जोर इस बात पर था कि वह हिंदू राष्ट्रवाद के पक्षधर थे, लेकिन हिंसा का समर्थन नहीं करते थे.
अदालत को साजिश में सावरकर की प्रत्यक्ष भागीदारी को लेकर कोई तथ्य नहीं मिला. उनके खिलाफ कोई ठोस सबूत नहीं थे जो उन्हें हत्या की योजना से जोड़ते हों. आखिर में साक्ष्यों की कमी के कारण सावरकर को बरी कर दिया गया था.
मेडिकल रिपोर्ट में क्या आया?
हत्या के बाद के घंटों में, जांचकर्ताओं ने घटनास्थल से एविडेंस इकट्ठे करना शुरू किया. एफ.सी. रतन सिंह और जसवंत सिंह, पुलिस के दो अधिकारी, ने स्थिति को नियंत्रित किया. उन्होंने प्रार्थना मंच से दो खाली कारतूस केस, दो चली हुई गोलियां, और एक खून से सना हुआ कंधे पर रखने वाला पट्टा बरामद किया, जहां गांधी गिरे थे.
गांधी के शरीर की मेडिकल टेस्टिंग कर्नल डी.एल. तनेजा द्वारा की गई, जो नई दिल्ली के सिविल अस्पताल में डॉक्टर थे. उन्होंने सुबह 8 बजे, 31 जनवरी, 1948 को अपनी रिपोर्ट दी. रिपोर्ट में गांधी को लगी चोटों का जिक्र था:
1. गांधी की छाती के दाहिनी ओर, चौथे इंटरकोस्टल स्थान के पास, एक छिद्रित चोट, जो एक गोली द्वारा हुई. इस चोट से कोई बाहरी घाव नहीं था, जो यह दर्शाता है कि गोली अंदर ही फंसी रही.
2. पेट के दाहिनी ओर दो छिद्रित चोटें, एक सातवें इंटरकोस्टल स्थान के पास और दूसरी नाभि के ऊपर. ये चोटें भी गोलियों द्वारा की गईं, जो गांधी की पीठ के पास निकल गईं, जिससे अलग से क्षति हुई.
कर्नल तनेजा के मुताबिक मृत्यु का कारण इंटरनल ब्लीडिंग और शॉक था.
नेहरू ने दिया था देश के नाम संदेश
गांधी की हत्या की खबर फैलने के बाद, पूरा देश शोक में डूब गया था. पूरे भारत में, लोग सार्वजनिक जगहों पर इकट्ठे होकर दुःख मना रहे थे. दुनिया भर के नेताओं ने इस दुखद घटना पर अपनी चिंता और दुःख जताया था. उस समय भारत के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने एक रेडियो प्रसारण में राष्ट्र को संबोधित किया:
"मित्रों और साथियों, हमारे जीवन से प्रकाश चला गया है, और हर जगह अंधेरा है... हमारे प्रिय नेता, बापू, जैसा कि हम उन्हें कहते थे, राष्ट्रपिता, अब नहीं रहे."
31 जनवरी 1948, गांधी की हत्या के दिन के बाद, नई दिल्ली में एक विशाल अंतिम यात्रा का आयोजन किया गया. उनका शव एक साधारण लकड़ी के मंच पर ले जाया गया, इसके पीछे लाखों शोकाकुल लोग थे जो सड़कों पर खड़े थे, रोते और प्रार्थना गाते हुए. लाखों लोगों ने मिलकर एक साथ बापू को अलविदा कहा.
(रिपोर्ट- अपूर्वा सिंह)