जमात उलेमा-ए-हिंद ने ट्रिपल तलाक के मामले में सुप्रीम कोर्ट में अपना लिखित पक्ष पेश किया है. इससे पहले केंद्र सरकार ने भी अपना जबाव लिखित में सुप्रीम कोर्ट में दाखिल किया था. जमात उलेमा के वकील शकील अहमद सैयद से 'आज तक' ने बात की है. जिसमें उन्होंने तीन तलाक के बारे में विस्तार से चर्चा की.
शकील अहमद कहते हैं कि सुप्रीम कोर्ट सिर्फ उसी कानून को देख सकती है जो आर्टिकल 13 के अंदर कानून की परिभाषा में आता है. मुस्लिम पर्सनल लॉ खुदाई यानी डिवाइन लॉ है. ये लॉ आर्टिकल 13 के तहत नहीं है. इसलिए सुप्रीम कोर्ट इसकी समीक्षा नहीं कर सकता. पहले भी ऐसे मौके आए हैं जब सुप्रीम कोर्ट ने ऐसा करने से मना किया है.
उन्होंने कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने पहले भी कहा है कि किसी धर्म की सही प्रैक्टिस क्या है ये उसी धर्म के लोग ही तय करेंगे न कि कोई बाहरी एजेंसी तय करेगी. पहले पांच जजों की बेंच कह चुकी है शिरूर मठ के मामले में 1954 में, फिर कृष्ना सिंह मामले में 1981 में मथुरा अहीर मामले में कह चुकी है कि वो रिलिजन ही तय करेगा कि हमारी रिलीजियस प्रैक्टिस क्या है. तो इसमें भी किसी आउटसाइडर एजेंसी की जरूरत नहीं है. तीसरा ये की सुप्रीम कोर्ट को examine करने की जरूरत ही नहीं है क्योंकि इससे पहले भी सुप्रीम कोर्ट ने ये कहा है कि कानून बनाने का काम संसद का है, सुप्रीम कोर्ट के अधिकार क्षेत्र से बाहर है.
उनका कहना है कि हमने कुरान की आयतें इसमें बताई हैं कि तलाक देने का सही तारीका है कि पहले एक तलाक दिया जाए, फिर वक्त दें, ये तलाके एहसन है. एक बार मे तीन तलाक तलाके बिदअत कहलाती है जो इस्लाम के मुताबित देना नहीं चाहिए. हमारे यहां कई स्कूल ऑफ थॉट्स हैं. हनफ़ी स्कूल कहता है कि तीन तलाक एक साथ कहने से तलाक इफेक्टिव हो जाता है, शादी खत्म हो जाती है कई स्कूल ऑफ थॉट हैं जो इसको नहीं मानते हैं. हनफ़ी स्कूल को ज्यादा मानने वाले लोग हैं. तलाके बिदअत गलत है लेकिन तलाक़ इफेक्टिव हो जाती है.
बहुविवाह की इजाजत तब दी गई थी. जब इस्लाम आया तो जंग वगैरह बहुत होती थी. बहुत से औरतें विधवा हो जाती थीं, बच्चे यतीम हो जाते थे. तो इजाज़त दी गई कि आप चार शादी से ज्यादा नहीं कर सकते हैं. ये एक रिफार्म था. लिमिट लगाई गई. इससे पहले तो कोई कितनी भी शादी कर सकता था. फिर ये कहा गया कि अगर आप एक से ज्यादा शादी कर सकते हैं और बराबरी नहीं कर सकते हैं तो आप एक ही करिए. हम ये कहते हैं, 'Monogamy is a rule, polygamy is an exception' उसमें भी शर्ते हैं. जो 1939 का 'muslim marriage resolution act' है उसमें ग्राउंड है, औरत को डाइवोर्स लेने का की अगर कोई आदमी दो बीवी रखता है और एक समान व्यवहार नहीं करता तो औरत को उस ग्राउंड पर डाइवोर्स मिल जाएगा. it will amount to cruelty.
उनका कहना है कि संविधान के आर्टिकल 25 और 26 का प्रोटेक्शन लिया है कि रिलिजन और रिलीजियस प्रैक्टिस इससे संरक्षित हैं और अल्पसंख्यकों को ये अधिकार है कि वो अपने धर्म का पालन करें उसमें कोई रुकावट नहीं हैं. बहुत से मुसलमान ही शरिया कानून के बारे में नहीं जानते. इंटरनल रिफॉर्म्स की जरूरत है. जिसके लिए मुस्लिम तंजीमें कोशिशें कर रही हैं.
शरिया कानून बुरा नहीं है कुछ लोग इसका सही से पालन नहीं कर रहे हैं. जैसे बहुत से कानून हैं लेकिन लोग नहीं मानते उसी तरह शरिया कानून है लेकिन लोग उसे सही से नहीं मानते. गलत इम्प्लीमेंटेशन कर रहे हैं. रिफार्म की जरूरत है शरिया कानून अपनी जगह सही है.