दिल्ली में एमसीडी चुनाव के 13 वॉर्ड के लिए हुए उपचुनाव के परिणाम आ गए और जो आए, शायद उसकी उम्मीद किसी पक्ष को शायद नहीं थी. जो पार्टी हारी, उसने भी जश्न मनाया. जो जीता उसने भी पटाखे फोड़े और जिसने दिल्ली की सत्ता की बदौलत राष्ट्रीय राजनीति का सपना संजोना शुरू कर दिया था, खुशी उन्होंने भी जताई पर कुछ हिचक कर, संकोच से.
कांग्रेस की जीत से उठे सवाल
आम आदमी पार्टी पहली बार आधिकारिक तौर पर एमसीडी चुनाव में उतरी थी, लिहाजा पार्टी को उम्मीदें ज्यादा थी, वह भी तब, जब ठीक डेढ़ साल इस पार्टी ने वह करिश्मा दिखाया था, जैसा पहले दिल्ली की राजनीति में कभी नहीं हुआ. लेकिन एमसीडी उपचुनाव के जो परिणाम निकले, संभवत पार्टी को उसकी उम्मीद नहीं थी. लेकिन चुनाव परिणामों ने बड़ा सवाल यह खड़ा किया है कि दिल्ली की राजनीति में कांग्रेस अगर फिर से मजबूत होती है और अपने वोट बैंक का वापस पाने में कामयाब रही, तो क्या यह आने वाले दिनों में आम आदमी पार्टी के लिए खतरे की घंटी है?
इस उपचुनाव के कई मायने
दरअसल, अगले साल तीनों एमसीडी के चुनाव होने हैं और 2014 और 2017 के बीच इस चुनाव का महत्व इसलिए भी ज्यादा था कि कम से कम से इससे दिल्ली के राजनीतिक तापमान का अनुमान लगाना संभव था. चुनौती तीनों पार्टियों के सामने थी. 10 साल से एमसीडी में काबिज बीजेपी की चुनौती अपनी साख बचाने की थी. आप के सामने चुनौती थी कि उसे सिद्ध करना था कि उसकी सुनामी दिल्ली में अब भी कायम है और कांग्रेस को यह साबित करना था कि वह राजधानी के राजनीतिक परदे से खत्म नहीं हुई और उसकी ताकत अभी बाकी है.
AAP की राह आसान नहीं
दिल्ली के इस राजनीतिक सेमीफाइनल के जो परिणाम निकले उसमें आम आदमी पार्टी को 5 सीटों पर, कांग्रेस को चार पर और बीजेपी के तीन सीटों पर जीत मिली. भाटी वॉर्ड से निर्दलीय उम्मीदवार राजेंद्र तंवर शाम होते-होते वापस कांग्रेस में चले गए, लिहाजा कांग्रेस ने भी 5 सीटों पर जीत का दावा ठोंक दिया. लिहाजा देखना दिलचस्प होगा कि आखिर इस चुनाव ने किसे कहां खड़ा किया है. अगर 2012 के एमसीडी के चुनावों के लिहाज से तुलना करें तो तुलना सिर्फ बीजेपी और कांग्रेस के बीच करनी होगी, क्योंकि तब आम आदमी पार्टी दौड़ में नहीं थी.
4 सीट जीतकर कांग्रेस ने सबको चौंकाया
लेकिन तुलना अगर 2014 के विधानसभा चुनावों के करें तो तीनों पार्टियों की समीक्षा या आंकलन करना थोड़ा आसान होगा, जिन 13 सीटों पर चुनाव हो रहे थे, 2012 में उनमें सात पर बीजेपी थी, चार पर निर्दलीय थे, एक पर आरएलडी और एक बीएसपी के पास था. जो सात सीट बीजेपी के पास थी, उनमें करूमुद्दीन नगर, शालीमार बाग, वजीरपुर, मटियाला, नानकपुरा, भाटी और झिलमिल, जबकि बल्लीमारान आरएलडी, जबकि भाटी बीएसपी के सहीराम पहलवान के पास थी. वहीं मुनिरका (प्रमिला टोकस), नवादा (नरेश बाल्यान), खिचड़ीपुर (विनोद विन्नी) और विकासनगर (महेन्द्र यादव) से निर्दलीय उम्मीदवार जीते थे.
उपचुनाव से AAP को झटका
जब दिल्ली के राजनीतिक नक्शे पर आम आदमी पार्टी आई, तो चारों निर्दलीय काउंसलर आम आदमी पार्टी में चले गए. इसके अलावा बीजेपी के दो काउंसलर, कमरूद्दीननगर से रघुविंदर शौकीन, भाटी से करतार सिंह और तेहखंड से बीएसपी के काउंसलर सहीराम पहलवान ने भी आप ज्वाइन कर लिया, जबकि आरएलडी के शोएब इकबाल कांग्रेस के साथ जुड़े हुए हैं. लिहाजा इस बार सात सीटें ऐसी थी जहां से आप की साख सीधे तौर पर दांव पर लगी थी, क्योंकि वहां से उनके काउंसर बाद में चुनकर विधायक बन गए थे. हालांकि अंसेबली के लिहाज से देखे तो इन 13 वार्डों में आम आदमी पार्टी के विधायक हैं.
बीजेपी को सबसे ज्यादा वोट फीसदी
2012 के लिहाज से इन 13 वार्डों में बीजेपी को 40.99 फीसदी वोट मिले, जबकि कांग्रेस को 27.71 फीसदी वोट मिले थे. लेकिन अगर 2014 के विधानसभा चुनावों के लिहाज से देंखे तो इन सभी 13 वार्ड में आम आदमी पार्टी को करीब 54.34 फीसदी, बीजेपी को 38 फीसदी और कांग्रेस की 6.7 फीसदी वोट मिले थे. लेकिन जो चुनाव परिणाम आए, उनमें आप और कांग्रेस को भले ही पांच-पांच सीटें मिली हैं, लेकिन बीजेपी का मत प्रतिशत करीब 34 फीसदी, आप को 29.93 फीसदी और कांग्रेस को 24.87 फीसदी मत मिले. खास बात यह रही 2014 में जो राजनीतिक सुनामी आम आदमी पार्टी के पक्ष में देखने को मिली थी, महज डेढ़ साल में अगर उसके मत प्रतिशत में करीब 24 फीसदी की गिरावट आती है, तो वह उसके लिए चिंता का सबब जरूर है.
AAP नेताओं ने साधी चुप्पी
आप के लिए स्थिति थोड़ी चिंताजनक इसलिए भी है, क्योंकि खिचड़ीपुर सीट, जो मनीष सिसोदिया के पटपड़गंज विधानसभा के अंतर्गत आती है, वहां आम आदमी पार्टी तीसरे नंबर पर रही. सिर्फ पटपड़गंज में ही नहीं, आम आदमी पार्टी झिलमिल, भाटी, कमरूद्दीन नगर और शालीमार बाग में भी तीसरे नंबर पर रही, इनमें झिलमिल सीट विधानसभा अध्यक्ष रामनिवास गोयल और शालीमार बाग सीट विधानसभा उपाध्यक्ष वंदना कुमारी के विधानसभा सीट के अंतर्गत आती है. लिहाजा आम आदमी पार्टी ने जश्न जरूर मनाया पर आधे अधूरे मन से. केजरीवाल ने भी बधाई के ट्वीट का सहारा लिया, जबकि अन्य सारे नेता बयान देने से बचते रहे और जब दिल्ली के प्रभारी दिलीप पांडे सामने आए, तो माना कि परिणाम अपेक्षा के अनुरूप नहीं रहे और पार्टी इसकी समीक्षा करेगी.
कांग्रेस ने झोंक दी थी ताकत
चुनौती तीनों पार्टियों के सामने थी, लिहाजा प्रचार में तीनों पार्टियों ने कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी, लेकिन सबसे ज्यादा जोर भी कांग्रेस ने लगाया. पहली बार देखने को मिला कि एमसीडी के उपचुनाव में गुलाम नबी आजाद, अशोक गहलोत, राजबब्बर सरीखे नेताओं को भी उतारा गया. जबकि आम आदमी पार्टी की तरफ से सबसे पहले कमान अरविंद केजरीवाल ने संभाली और नोटिफिकेशन से पहले ही कल्चरल विभाग की तरफ से लगभग सारे वार्ड में आयोजित कार्यक्रमों से जरिए प्रचार पूरा कर लिया था. दूसरे राउंड में कमान ज्यादातर मनीष सिसोदिया, कुमार विश्वास, संजय सिंह, कपिल मिश्रा और विधायकों के जिम्मे रहा. तीसरी तरफ 10 साल से एमसीडी में बैठी और एंटी-इंक्बैंसी की चुनौती झेल रही बीजेपी ने प्रचार के लिए अपने सांसदों का ही सहारा लिया. उनमें भी सतीश उपाध्याय, मनोज तिवारी, रमेश विधूड़ी और कुछ मौकों पर हर्षवर्धन भी प्रचार करते दिखे.
कांग्रेस नेता रणनीति के तहत लोगों से जुड़े
दरअसल, मुद्दे कई थे पिछले एक साल में पहली बार दिल्ली की जनता ने कुछ ऐसा देखा, जिसे पहले कभी नहीं देखा. देश की राजधानी में लोगों को सफाईकर्मियों को ही कूड़े फेंकते देखा और वह भी दो-दो बार. लोग घर के पास फैले बदबू से परेशान थे, सफाईकर्मी सैलरी को लेकर प्रदर्शन कर रहे थे और बीजेपी-आम आदमी पार्टी के नेत तू-तू मैं-मैं में उलझे पड़े थे. एमसीडी पैसा मांगती रही, सरकार अपने तर्क देती रही और देखते-देखते मामला कोर्ट तक पहुंच गया. राजधानी में पिछले वर्ष जब डेंगू फैला और दो दर्जन लोग मर गए, तब भी लोगों ने समाधान कम, आप और बीजेपी में झगड़ा ज्यादा देखा. लोग परेशान हो, मर रहे हो और समाधान की बजाय राजनीतिक बयानबाजी से बात आगे न बढ़े तो असर पड़ना स्वाभाविक है.
बीजेपी-AAP की लड़ाई से कांग्रेस को फायदा
आम आदमी पार्टी और मुख्यमंत्री बार-बार यही दोहराते रहे कि भ्रष्ट एमसीडी से निजात पाने का एक ही तरीका है, बीजेपी को एमसीडी से बाहर करना. अपनी लोकप्रियता के भरोसे पंजाब और गोवा में पांव पसारने में जुटे केजरीवाल ने यहां तक दावा करते घूमते रहे कि अगर आज विधानसभा चुनाव हों तो पार्टी विधानसभा की बाकी तीनों सीटें भी जीत जाएगी. लेकिन अनधिकृत कॉलोनी हो या पानी का संकट, कई मुद्दों पर अब भी आम आदमी को समाधान मिलना बाकी है और उसका अंसतोष पिछले कुछ दिनों में दिल्ली के कई इलाकों में देखने को भी मिला. इस चुनाव परिणाम को अगर संकेत माने तो 21 पार्लियामेंट सेक्रेटरी को लेकर अगर चुनाव आयोग ने अगर उनकी सदस्यता को लेकर सवाल खड़े कर दिए, तो पार्टी की क्या स्थिति होगी, उसे समझा जा सकता है.
अजय माकन की रणनीति रंग लाई
दूसरी तरफ अस्तित्व की लड़ाई रह रही कांग्रेस ने वापसी के लिए हर संभव प्रयास किया. जब सफाईकर्मियों का तमाशा चला तब राहुल गांधी उनका दर्द बांटने कड़कड़डूमा तक पहुंच गए थे. इतना ही नहीं, रेहड़ी पटरी वालों की समस्या हो, तब भी राहुल गांधी आगे रहे. जब सुल्तानपुरी की झुग्गियों मे आग लगी और सैकड़ों गरीब परिवार सड़कों पर आ गए, तब भी अजय माकन और उनकी टीम ने वहां सक्रिय भूमिका निभाई थी. कोशिश यही थी कि कांग्रेस का जो वोट बैंक, जिनमें अनधिकृत कॉलोनी, माइनॉरिटी, रेहड़ी पटरी और झुग्गी वाले शामिल थे और 2014 के विधानसभा चुनावों में जो आम आदमी पार्टी के पाले में चले गए, उन्हें वापस लाया जाए और इस चुनाव में साबित किया है कि इस प्रयास में कांग्रेस को काफी हद तक सफलता भी मिली.
बीजेपी के लिए आगे बड़ी चुनौती
वहीं बीजेपी भले ही यह कहकर खुद का बचाव करे कि उसे सबसे ज्यादा वोट मिले हैं लेकिन संख्या में पिछड़ने का कोई ठोस तर्क पार्टी के पास नहीं है. पार्टी को शायद इस बात का संतोष है कि उसने तीन परंपरागत सीटों पर अपनी पकड़ बरकरार रखी है और 8 स्थानों पर पार्टी दूसरे नंबर पर है, जिनमें दो सीटों, मटियाला और नानकपुरा पर हार का अंतर 1000 वोट से भी कम का है और अगले साल एससीडी में साख बचानी है तो काफी कुछ करने और सोचने की जरूरत है.