कमिश्नर साहब, सचमुच गुड़िया से ही खेलने की तो उम्र है उसकी. और 15 अप्रैल को इन्हीं गुड़िया से ही खेलने वो अपने नन्हे पांव से घर की दहलीज़ पार कर गई थी. पर दरवाजे पर ही उसे शैतान मिल गया जो उसे उठा कर अपने घर ले गया. और फिर पूरे दो दिनों तक उस मासूम को नोचा-खसोटा गया. उसे कमरे में पूरे दो दिन तक बंद रखा गया.
इस दौरान बाप अपनी गुड़िया की तलाश में दर-दर भटकता रहा. सोचा कमिश्नर साहब ने 16 दिसंबर के बात इतनी बड़ी-बड़ी बातें कही हैं, हो सकता है उनकी पुलिस बदल गई हो. मेरी गुड़िया को ढूंढ लाएगी. पर अफसोस, कमिश्नर साहब... उसकी गलतफहमी जल्दी ही दूर हो गई.
कमिश्नर साहब.... आपकी पुलिस ने तो टरका दिया पर बेचारा वो बाप कैसे मानता? लगा रहा बेटी की तलाश में. और आखिरकार घर के नीचे ही एक कमरे से कराहने की आवाज़ आई तो लोग उस कमरे तक जा पहुंचे. अंदर वहीं गुड़िया कैद थी. एक पड़ोसी ने ही उसे अगवा किया था और दो दिनों तक उसे नोचा-खसोटा और फिर ज़ख्मी गुड़िया को छोड़ कर भाग गया. दो दिन बाद जब गुड़िया घर से बाहर आई तो क्या बताएं किस हाल में थी, स्ट्रेचर पर एक अस्पताल से दूसरे अस्पताल ले जाई जा रही पांच साल की इस गुड़िया के जख्मों की अगर पूरी हकीकत आप जान जाएं तो यकीन मानिए आपकी भी चीखें निकल पड़ेंगीं.
वैसे कमिश्नर साहब.... सिर्फ लिखने के लिए नहीं बल्कि सचमुच लिख रहा हूं कि किसी के ज़ख्मों का हिसाब लिखने में इससे पहले हाथ इतना कभी नहीं कांपे. क्या कहूं उसके जख्मों के बारे में. सुनने के लिए भी कलेजा चाहिए. बस यूं समझ लीजिए कि दूसरों को जिंदगी बख्शने वाले डाक्टरों तक ने जब इस बच्ची के जख्मों को देखा तो उनके मुंह से बस यही निकला..... क्या कोई इंसान किसी फूल जैसी बच्ची के साथ ऐसा भी कर सकता है.
17 अप्रैल को जब वो गुड़िया सबसे पहले एलएनजेपी अस्पताल में लाई गई तब तक उसके जिस्म से क़तरा-कतरा कर ना जाने कितना खून बह चुका था. दरिंदों ने पूरे जिस्म पर ब्लेड मार रखी थी. जिस्म के निचले हिस्से के उसके ज्यादातर अंदुरूनी अंग जख्मी थे. पेट के अंदर तीन मोमबत्ती और एक छोटी शीशी पड़ी थी. आगे औऱ क्या बोलूं कमिश्नर साहब.... आप सुन नहीं पाएंगे. ना हम बोल पाएंगे.
हालत ऐसी थी कि खुद डाक्टर कुछ कहने की हालत में नहीं थे. गरीब बाप के लिए इतना ही संतोष काफी था कि चलो बच्ची कम से कम डाक्टरों के हाथों तक तो पहुंच गई. इलाज तो शुरू हो गया. पर शायद डाक्टरों की बातें सुन कर उसकी भी उम्मीद टूटती जा रही थी.
पर कमिश्नर साहब अभी आपकी जांबाज़ पुलिस की बेशर्मी का एक और चेहरा सामने आना बाकी था. खुद तो आपकी पुलिस गुड़िया को ढूंढ नहीं पाई, हां, जब उसकी कहानी सामने आई तो अपनी नौकरी बचाने के लिए आपकी ही पुलिस ने गुड़िया के बाप को दो हजार रुपए की रिश्वत थमा दी. चाय-पानी के नाम पर. ताकि वो उनके निकम्मेपन की कहानी किसी को ना सुनाए.
पर आपको तो पता ही है. तब तक गुड़िया की कहानी आम हो चुकी थी. माहौल फिर 16 दिसंबर जैसा होने लगा था फिर क्या था. पहले आप हरकत में आए उसके बाद सरकार. गुड़िया को फौरन एलएनजेपी अस्पताल से बेहतर इलाज के लिए एम्स ले जाया गया. जी हां. ठीक वैसे ही जैसे हंगामे के बाद 16 दिसंबर की उस मासूम को सफदरजंग से सिंगापुर ले जाया गया था.
हो सकता है कि डॉक्टरों की दवा, लोगों की दुआ और उस गुड़िया का हौसला उसकी जान बचा ले. लेकिन अगर वो जिंदा भी रही तो पूरी जिंदगी बस जिंदगी से यही शिकायत करती रहेगी कि तूने मुझे किस दिल्ली में पैदा किया जहां लोग गुड़िया तक को नोच डालते हैं.