दिल्ली में 15 साल तक लगातार मुख्यमंत्री रहीं शीला दीक्षित को 2019 में फिर प्रदेश कांग्रेस की कमान मिली थी. आज भी दिल्ली में कांग्रेस के बाकी नेताओं में उनकी स्वीकार्यता ज्यादा दिखती थी. यही वजह है कि 81 साल की उम्र होने के बावजूद शीला दीक्षित कांग्रेस के लिए दिल्ली में जरूरी बन गई थीं. उनकी खासियत यह भी थी कि वह अपने फैसलों से कभी पीछे नहीं हटीं.
लोकसभा चुनाव 2019 के दौरान दिल्ली में आम आदमी पार्टी (AAP) के साथ मिलकर चुनाव लड़ने की बात हो या मुख्यमंत्री रहते वक्त का कोई फैसला लेना रहा हो, शीला एक बार जो निर्णय ले लेती थीं उससे कभी पीछे नहीं हटती थीं
यह सच है कि 2013 के दिल्ली विधानसभा चुनावों में शीला दीक्षित को आम आदमी पार्टी के अरविंद केजरीवाल से शिकस्त झेलनी पड़ी थी. यह भी सच है कि 2019 के लोकसभा चुनाव में शीला दीक्षित को बीजेपी प्रदेश अध्यक्ष मनोज तिवारी ने हरा दिया, फिर भी कांग्रेस के लिए शीला दीक्षित के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता क्योंकि वह कांग्रेस को इतना वोट शेयर दिला गईं कि पार्टी दूसरे नंबर पर पहुंच गई.
जिस दिल्ली में 2013 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को 2013 में 8 सीटें मिली थीं और उसके ही अगले चुनाव में यह संख्या शून्य पर पहुंच गई. जिस दिल्ली में लोकसभा चुनाव 2014 और 2019 में भी सभी सीटें जनता ने केंद्र में सत्ताधारी बीजेपी की झोली में डाल दी. शीला दीक्षित के नेतृत्व में कांग्रेस ने 2019 के लोकसभा चुनाव में उसी दिल्ली में सत्तारूढ़ आम आदमी पार्टी को तीसरे पायदान पर भेज दिया और ज्यादातर इलाकों में तो जमानत तक जब्त हो गई.
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शीला दीक्षित ही थीं जो 2019 के लोक सभा चुनाव में अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी के साथ गठबंधन के खिलाफ मजबूती से डटी रहीं. जब नतीजे आए तो मालूम हुआ कि उनका फैसला कितना सही था. शीला दीक्षित का मानना रहा कि अगर कांग्रेस AAP के साथ दिल्ली में चुनावी समझौता करती है तो उसे दिल्ली की मौजूदा सरकार के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर का शिकार होना पड़ेगा. वह 100 फीसदी सही साबित हुईं.
तमाम मुश्किलों के बावजूद शीला दीक्षित आगामी दिल्ली विधानसभा के चुनावों के लिए जोर-शोर से जुटी हुई थीं. शीला दीक्षित को सिर्फ विरोधी दल के नेताओं से ही नहीं बल्कि कांग्रेस के ही सीनियर नेताओं से लगातार जूझना पड़ रहा था.
शीला दीक्षित और दिल्ली प्रभारी पीसी चाको का झगड़ा तो आखिर तक खत्म नहीं ही हो सका. एक तरफ वो अपनी सेहत से जूझ रही थीं और दूसरे मोर्चे पर दिल्ली प्रभारी चाको की चिट्ठियों से. वैसे चाको की चिट्ठियों से बेपरवाह शीला दीक्षित अपने तरीके से कांग्रेस को मजबूत करने में लगी रहीं. उन्होंने अपने हिसाब से जिलाध्यक्षों की नियुक्ति भी कर डाली थी.
यह बात अलग है कि दिल्ली कांग्रेस प्रभारी पीसी चाको आखिर तक शीला दीक्षित को पत्र लिखते रहे. ज्यादातर पत्रों में शीला दीक्षित के फैसलों को पलटने और नए आदेश की ही बातें हुआ करती थीं. हाल के एक पत्र में पीसी चाको ने शीला दीक्षित से कहा था कि उनकी तबीयत ठीक नहीं रहती, इसलिए वह कार्यकारी अध्यक्षों को फैसले लेने दें.
जाहिर है कि शीला दीक्षित आखिरी दम तक कांग्रेस को मजबूत करने की रणनीति बना रही होंगी, लेकिन अफसोस उन पर कभी अमल नहीं हो सकेगा. अफसोस तो पीसी चाको को भी होगा ही कि अब वह शीला दीक्षित को कोई पत्र नहीं लिख पाएंगे.