सुप्रीम कोर्ट ने प्रोटेस्ट को 'सिविल सोसायटी का हथियार' बताया है. कोर्ट ने कहा कि जैसे मजदूरों का हथियार हड़ताल और मालिकों का हथियार लॉकआउट है ठीक उसी तरह सिविल सोसायटी का हथियार प्रोटेस्ट है. शीर्ष अदालत ने रवि नंबूथिरी द्वारा दायर एक अपील पर सुनवाई करते हुए यह टिप्पणी की.
रवि ने केरल हाई कोर्ट के फैसले को चुनौती दी थी, जिसमें नवंबर 2015 में ग्राम पंचायत में पार्षद के रूप में चुनाव को रद्द करने वाले निचली अदालत के फैसले को बरकरार रखा था. दरअसल उनका चुनाव इस आधार पर रद्द कर दिया गया था कि उन्होंने अपने नामांकन में एक आपराधिक मामले में शामिल होने की जानकारी छिपा ली थी. इस पर सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि किसी प्रोटेस्ट में भाग लेने की जानकारी न देना अपराध नहीं है, इसके आधार पर किसी को अयोग्य नहीं ठहराया जा सकता है.
कोर्ट ने पुलिस अधिनियम पर भी की टिप्पणी
जस्टिस अब्दुल नजीर और जस्टिस वी रामसुब्रमण्यम की पीठ ने कहा कि केरल पुलिस अधिनियम औपनिवेशिक युग के पुलिस अधिनियमों का उत्तराधिकारी कानून था जिसका उद्देश्य स्वदेशी आबादी की लोकतांत्रिक आकांक्षाओं को खत्म करना था. पीठ ने कहा कि यही कारण है कि राज्यों के पुलिस अधिनियम स्वयं पुलिस को कानून और व्यवस्था बनाए रखने के लिए आवश्यक निर्देश जारी करने का अधिकार देते हैं और इनमें से किसी भी निर्देश का उल्लंघन इन अधिनियमों के तहत दंडनीय अपराध है.
साल 2006 में एक गैरकानूनी सभा का गठन
पुलिस शिकायत के अनुसार, 20 सितंबर, 2006 को नंबूथिरी ने कई लोगों के साथ एक गैरकानूनी सभा का गठन किया और अन्नामनदा ग्राम पंचायत के कार्यालय परिसर में आपराधिक व्यवहार किया और 'धरना' के लिए एक अस्थायी शेड लगाया. याचिकाकर्ता को आईपीसी और केरल पुलिस अधिनियम के तहत दंडनीय अपराधों के लिए दोषी ठहराया गया था. बाद में एक सत्र अदालत ने आईपीसी की धाराओं के तहत उसकी सजा को रद्द कर दिया. हालांकि इसने केरल पुलिस अधिनियम के तहत उसकी सजा को बरकरार रखा और उसे 200 रुपये का जुर्माना भरने का निर्देश दिया था.