दिल्ली देश की राजधानी है और यहां से देश की राजनीति का तापमान और उसकी रंगत तय होती है. इस बार फिर विधानसभा के चुनाव आ चले हैं और यहां इनसे ही लोकसभा चुनाव का एक संकेत मिलेगा.
बहरहाल मामला यह है कि इस छोटी सी विधानसभा के चुनाव में कुल 129 उम्मीदवारों पर कुछ न कुछ आपराधिक आरोप हैं. 93 पर तो कुछ गंभीर किस्म के आरोप हैं. और तो और, अपने को बेदाग कहने वाली आम आदमी पार्टी के पांच उम्मीदवारों पर भी आरोप हैं. सत्तारूढ़ दल कांग्रेस के पास सबसे ज्यादा दागी उम्मीदवार हैं और सबसे बड़ी बात यह है कि उनकी पार्टी के उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने अपराधी एमएलए, एमपी को संरक्षण देने वाले बिल को पारित नहीं होने दिया. यह एक बहुत बड़ा कदम था और उम्मीद की जा रही थी कि देश की राजनीति में शुचिता को फिर से जगह मिलेगी. लेकिन चुनाव आते ही सभी कसमे-वादे हवा हो गए. दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने तो व्यक्तिगत दिलचस्पी लेकर एक ऐसे व्यक्ति को टिकट दिलवाया है जिस पर कई बड़े आरोप हैं. यह सब देखने के बाद लगता है कि वह सब महज एक तमाशा था और राजनीति अपनी इसी रफ्तार से चलती रहेगी.
राजनीति को स्वच्छ और बेदाग बनाने के प्रयास में जब राजनीतिक दलों को ही दिलचस्पी नहीं है, यह काम कैसे होगा? इस समय भारतीय लोकतंत्र को मेक ओवर की जरूरत है और यह तभी हो सकता है जब सभी पार्टियां इसमें दिलचस्पी लें और ऐसे उम्मीदवारों को टिकट दें जिनकी छवि साफ-सुथरी हो और जिन पर गंभीर आरोप न हों. जनता से यह उम्मीद करना कि वह दागी और आरोपी उम्मीदवारों को वोट नहीं देगी, थोड़ा कठिन है. लोग अपने इलाके के बाहुबलियों से डरते हैं और उनके खिलाफ वोट देने से कतराते हैं. जाहिर है कि इसमें राजनीतिक दलों की भूमिका महत्वपूर्ण है और उनके ही प्रयासों से यह संभव होगा.
देखते ही देखते लोकसभा के चुनाव आ जाएंगे लेकिन अब लगता नहीं है कि पार्टियां दागी उम्मीदवारों को टिकट देने से कतराएंगी. चुनाव जीतने की चाहत में वे ऐसे उम्मीदवारों को टिकट देने से बाज नहीं आएंगी, लोकतंत्र के लिए इससे दुखद बात क्या होगी?