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जादुई शायरी, उम्दा अंदाज और मौजूदा दौर पर कटाक्ष... दर्शकों को गुदगुदा गया नाटक ठेके पर मुशायरा

पूरे नाटक की सबसे सम्मानित शख़्सियत उस्ताद कमान लखनवी साहब हैं, अदब की दुनिया में जिनका एक अलग नाम और मुक़ाम है. लेकिन विडंबना ऐसी कि वो महीनों से घर का किराया नहीं दे पाते हैं.

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मंडी हाउस के LTG ऑडिटोरियम में 'ठेके पर मुशायरा' प्ले का मंचन
मंडी हाउस के LTG ऑडिटोरियम में 'ठेके पर मुशायरा' प्ले का मंचन

"किसी के इश्क़ में कांटों से उलझे
उलझकर फट गया कुर्ता हमारा

जहां भी आपसे आंखें मिली हैं
वहीं पर खुल गया ठेका हमारा"

"ख़ुदा ने हुस्न वालों को बनाया अपने हाथों से
एक हम ही थे कमबख़्त जो ठेके पे बनवाए गए"

"हरी भरी हुई रह से गुज़र के देखते हैं
तुम्हारा खेत किसी रोज़ चर के देखते हैं"


मज़ेदार और जादुई शायरी, अदबी रिवायतें, किरदारों में उर्दू के मशहूर शायरों की झलक और ऑडिटोरियम में बैठे दर्शकों की झूम और ठहाके वाली हंसी... ये माहौल दिल्ली (Delhi) के मंडी हाउस (Mandi House) में स्थित एलटीजी ऑडिटोरियम में शुक्रवार, 28 जून की शाम का था, जब 'ठेके पर मुशायरा' नाटक का सफल मंचन हुआ. नाटक के लेखक हैं, उर्दू-हिंदी के शायर इरशान ख़ान सिकंदर और इसका निर्देशन दिलीप गुप्ता ने किया है. Akrafter The Art Council और Cyclorama के द्वारा प्रोड्यूस किया गया 'ठेके पर मुशायरा' एक ऐसा नाटक है, जो हिंदी थिएटर की दुनिया में एक नया टेस्ट लेकर आया है. लेखक ने इसके ज़रिए साहित्यिक और अदबी ख़ुशी देने के साथ दर्शकों को गुदगुदाने की कोशिश की है.

"आपके माथा पर ई झाड़ ग़ालिब ग़ज़बे है लेकिन
आप इस झाड़ से एगो झाड़ू बना लेते तो अच्छा था"


'ठेके पर मुशायरा' नाटक गिटार की सुरीली धुन के बीच शुरू होता है और राम भरोसे गालिब, तेवर ख़यालपुरी, बाग़ देहलवी और उस्ताद कमान लखनवी की एंट्री होती है.

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Theke par mushaira

नाटक के शुरुआती हिस्से में उर्दू अदब और शायरों की माली हालत दिखाने की कोशिश की गई है कि मौलिक क़लमकारों की माली-हालत कितनी ख़स्ता होती है और ज़िंदगी बड़ी जद्दोजहद में गुज़रा करती है. नाटक में देखने को मिलता है कि उस्ताद कमान लखनवी के पास मकान का किराया तक देने के पैसे नही हैं और मकान मालिक उनको बार-बार कॉल करके परेशान करता है.

नाटक के मज़ेदार किरादर...

पूरे नाटक की सबसे सम्मानित शख़्सियत उस्ताद कमान लखनवी साहब हैं, अदब की दुनिया में जिनका एक अलग नाम और मुक़ाम है. वो महीनों से घर का किराया नहीं दे पाते हैं. उस्ताद की एक शिष्या हैं मैना सहगल, जो उनकी शायरी ख़रीदकर मुशायरों में पढ़ती हैं और तारीफ़ें लूटती हैं. यहां पर ग़ौर करने वाली बात ये है कि उस्ताद एक बार अपनी दो शिष्याओं के हाथों एक ही नज़्म बेच देते हैं. नाटक के किरदारों में इसके अलावा उस्ताद के शागिर्द अनुराग आहन हैं, जिनकी शायरी सुनकर बाग़ देहलवी साहब को गुस्सा आ जाता है. देहलवी साहब पूरे नाटक में अजीब हरकतें करते रहते हैं. तेवर ख़यालपुरी उस्ताद के घर पर ही रहते हैं और मेहमानों के आने पर चाय बनाकर पिलाते हैं.

"ग़ालिब हमको ऐसे लोग कतई पसंद नहीं आते हैं
जो इंची टेप से नाप के मुस्कुराते हैं"


सबसे मजेदार चरित्रों में से एक हैं- सस्ते शायर राम भरोसे गालिब, जो उस्ताद को एक ठेकेदार छांगुर ऑलराउंडर के तरफ से करवाई गई विश्वकर्मा पूजा के मौक़े पर ठेके पर मुशायरा में जाने के लिए मना लेते हैं.

विश्वकर्मा पूजा और ठेके वाला मुशायरा

राम भरोसे गालिब की वजह से उस्ताद कमान लखनवी अपनी टीम के साथ चले तो जाते हैं लेकिन वहां से ज़लील हो कर वापस आते हैं और मुशायरे की पेमेंट तक रुक जाती है.

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विश्वकर्मा पूजा के दौरान ठेके पर आयोजित मुशायरे में बैठे क़लमकार और माइक पर ठेकेदार छांगुर ऑलराउंडर

कार्यक्रम में पहुंचते ही धमाके की आवाज़ आती है और बाग़ देहेलवी साहब के मुंह से निकलता है, "शहीद करवाने लाए थे या मुशायरा पढ़वाने." बाग़ साहब इतना डर जाते हैं कि मंच पर जाते ही अपनी ताक़त का ज़िक्र करते हुए सामईन को तमंचे वाला शेर सुना बैठते हैं, जो इस तरह है...

"भले हम आज घर पर ही तमंचा छोड़ आए हैं
मगर तुम क्या समझते हो कि पंजा छोड़ आए हैं

अमां औक़ात धेले की नहीं जिसकी वो कहता है
कि हम चालीस बीघे में पुदीना छोड़ आए हैं"


इस मुशायरे के दौरान आम कार्यक्रम जैसी चीजें देखने को मिलती हैं, जो दर्शकों को हंसाती हैं. जैसे- किसी का बच्चा खो गया है और मंच से उसका ऐलान किया जाता है, किसी का पर्स गायब हो गया उसकी सूचना दी जाती है, किसी को कुत्ते ने दौड़ा लिया है उसे बचाने वॉलंटियर्स को भेजा जाता है.

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"मैंने कहा कि इश्क़ में मर जाना चाहिए
उसने कहा कि आपको घर जाना चाहिए

मैंने कहा कि आपने ये क्या किया हुज़ूर
उसने कहा कि ज़ख़्म है भर जाना चाहिए"

"ये इश्क़ की नगरी का क़ानून बनाया जाए
दिल तोड़ने वालों को सूली पे चढ़ाया जाए"


इस तरह की गुदगुदाती शायरी के साथ विश्वकर्मा पूजा वाला ये मुशायरा ख़त्म हो जाता है लेकिन पेमेंट ना मिलने की वजह से उस्ताद कमान लखनवी अपने मकान का किराया नहीं चुका पाते हैं और घर वापस जाकर ग़म के साए में बैठ जाते हैं.

"जो फूल बनकर मिले थे हमसे वो आग बनकर बरस रहे हैं
मोहब्बतों की कमी के दिल के तमाम क़िस्से झुलस रहे हैं

मिले जो तुमको ज़रा भी मोहलत, तो आओ हमको गले लगाओ
वगरना ग़म के सभी शिकंजे हमारी गर्दन पे धंस रहे हैं

हमारे अंदर कई सिकंदर उदास बैठे हैं ख़ुद से हारे
न काट पाए विरह के पर्वत तो काट अपनी ही नस रहे हैं"


नाटक में शामिल ज़रूरी मुद्दे

नाटककार इरशाद ख़ान सिकंदर ने अपने इस नाटक में कुछ ज़रूरी मुद्दों का भी ज़िक्र किया है. नाटक में बाग़ देहलवी बार-बार राम भरोसे गालिब को उर्दू बोलते वक़्त तलफ़्फ़ुज़ यानी उच्चारण पर टोकते दिखते हैं. उर्दू ज़ुबान में सबसे ज़रूरी पहलू यही होता है कि शब्दों के नुक्ते (बिंदी) पर ग़ौर किया जाए, वर्ना अर्थ का अनर्थ हो जाता है.

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नाटक में ओपन माइक का भी ज़िक्र है, जो पिछले कुछ सालों से चर्चा में आया है. इस तरह के ज़्यादातर इवेंट में परफ़ॉर्म करने वाले ख़ुद ऑर्गनाज़र को पैसे देते हैं. प्ले इस पहलू पर उपहास करता है. इसके अलावा नाटक के किरदार राम भरोसे गालिब के ज़रिए किसानों की समस्याओं पर भी बात की गई है.

"हम हैं अन्नदाता पर गरीब हैं
अब तो मरने के बहुत करीब हैं
हमें जब आप ठेंगा ही दिखाएँगे
तो हम भी खेत में वही उगाएँगे
बस एक आपशन बचेगा लूटमार
चलना घड़ी का काम है

फ़ेसबुक को फ़ेस कर लिया मगर
जिनदगी की और है खटर-पटर
पिराबलम्स आईं तो मैं रो पड़ा
वो वाट्सअप का ज्ञान फ़ेल हो गया
उतर गया मिनट में ही जो था बुख़ार
चलना घड़ी का काम है"


अदब और मुशायरों के गिरते वक़ार पर कटाक्ष

'ठेके पर मुशायरा' नाटक के लेखक इरशाद ख़ान सिकंदर कहते हैं, "हम अदब (साहित्य) का हिस्सा हैं, हमें दिखाई देता है कि इसमें गिरावट आ रही है. हमें जो कुछ दिखाई देता है, वो ख़याल आते हैं. जब मेरे अंदर इसका ख़याल आया, तो मुझे लगा कि इसको रचना बनाना चाहिए."

वो आगे कहते हैं कि आदमी बाज़ार बनता जा रहा है, हमको इसे फ़ूहड़ता से बचाना है. हमने इस नाटक के जरिए कोशिश की है कि जो उर्दू का तंज़-ओ-मिज़ाह है, उसे बरक़रार रखने की कोशिश की जाए.

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इरशाद ख़ान सिकंदर कहते हैं कि पहले मुशायरों की ज़िम्मेदारी सरकारी या गैर-सरकारी तंज़ीमों (संस्था) के हाथों में हुआ करती थी. इसमें ठेकेदारी नहीं शामिल थी. जब ठेकेदारी शामिल हो जाती है, तो अदब बाक़ी नहीं रह जाता है. यह मामला बुरी तरह ख़राब होते-होते वहां तक पहुंच गया है कि हर तीसरा आदमी जश्न मना रहा है. आज जो ओपन माइक में खड़ा हुआ है, वही कल दस शायरों को बुलाकर मुशायरा करवाने का ठेका ले लेता है.

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भाषा की अहमियत पर ज़ोर

'ठेके पर मुशायरा' के निर्देशक दिलीप गुप्ता ने इस नाटक में अदाकार की भूमिका भी निभाई है. वो कहते हैं, "यह नाटक स्पीच प्रधान है और इसमें भाषा पर बहुत ही ज़्यादा ज़ोर दिया गया है. भाषा पर हमने सबसे ज़्यादा काम किया है. इसकी कहानी आम नाटकों जैसी नहीं है, इसमें फ्रेशनेस है. यह एक अलग तरह का प्ले है, जिस तरह के व्यंगय का इस्तेमाल इसमें किया गया है, वो कहीं और देखने को कम ही मिलता है. भाषा, कैरेक्टर और कहानी के नज़रिए से ये बिल्कुल नया नाटक है."

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