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पूर्वी लद्दाख में सेना के साथ निगहबानी करेंगे बैक्ट्रियन ऊंट, डीबीओ-देप्सांग में होगी तैनाती

लद्दाख का बैक्ट्रियन कैमल मुश्किल हालात में काम के लिहाज फिट बैठता है. ये वहां के मौसम के हिसाब से पूरी तरह ढले हुए हैं. बैक्ट्रियन कैमल एक तरह से कहें तो नुब्रा घाटी और लद्दाख के चप्पे-चप्पे से वाकिफ हैं.

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बैक्ट्रियन (दो कूबड़ वाले) ऊंट
बैक्ट्रियन (दो कूबड़ वाले) ऊंट
स्टोरी हाइलाइट्स
  • लेह-लद्दाख के लिए फिट हैं बैक्ट्रियन कैमल
  • 17 हजार फीट ऊंचाई तक ढो सकते हैं 170 किलो वजन
  • दौलत बेग ओल्डी और देप्सांग में सेना करेगी उपयोग

दो-कूबड़ वाले बैक्ट्रियन कैमल (ऊंट) बहुत जल्द पूर्वी लद्दाख में भारतीय सेना के साथ गश्त लगाते नजर आएंगे. ऐसे ऊंट को भारतीय सेना ने अपने इस्तेमाल में लेने की तैयारी लगभग पूरी कर ली है. हालांकि यह योजना तीन साल पुरानी है, लेकिन इसे अब अमली जामा पहनाया जा रहा है. 

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बता दें, बैक्ट्रियन कैमल पर कभी सिल्क रूट का पूरा व्यापार निर्भर करता था, लेकिन अब इसे सेना गश्त में इस्तेमाल करेगी. पूर्वी लद्दाख में ये ऊंट तब सेना के साथ गश्त करते नजर आएंगे जब इस पूरे इलाके में तनाव का माहौल बना है और भारत-चीन की सेनाएं एक दूसरे के सामने भारी हथियारों से लैस होकर खड़ी हैं. रिपोर्ट के मुताबिक इन बैक्ट्रियन कैमल को दौलत बेग ओल्डी (डीबीओ) और देप्सांग में तैनात किया जाएगा, जहां तकरीबन 17 हजार फीट की ऊंचाई पर सेना के लिए पैट्रोलिंग का काम काफी दु्ष्कर माना जाता है. यह वही इलाका है जहां पिछले 4 महीने से भारत और चीन के बीच तनाव बना हुआ है. 

चप्पे-चप्पे से वाकिफ बैक्ट्रियन कैमल
लद्दाख का बैक्ट्रियन कैमल मुश्किल हालात में काम के लिहाज से फिट बैठता है. ये वहां के मौसम के हिसाब से पूरी तरह ढले हुए हैं. बैक्ट्रियन कैमल एक तरह से कहें तो नुब्रा घाटी और लद्दाख के चप्पे-चप्पे से वाकिफ हैं. ये ऊंट सेना के लिए ऐसी जगहों पर भी अच्छे ट्रांसपोर्टर के तौर पर काम आ सकते हैं, जहां वाहनों की आवाजाही संभव नहीं है. इसे अपने बेड़े में शामिल करने पर सेना पहले ही विचार कर चुकी है. अब इसे मूर्त रूप देने की पूरी तैयारी है. इन ऊंटों के बारे में लेह स्थित डिफेंस इंस्टीट्यूट ने पूरा अध्ययन किया है. 

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डिफेंस इंस्टीट्यूट दे रहा ट्रेनिंग
लेह के डिफेंस इंस्टीट्यूट ने रंगोली नाम की एक ऊंटनी को ट्रेंड किया. ऊंटनी रंगोली से चिंकू और टिंकू नाम के दो बच्चे पैदा हुए. डिफेंस इंस्टीट्यूट के ब्रीडिंग प्रोग्राम के तहत इनका पालन-पोषण किया गया. इस इंस्टीट्यूट ने राजस्थान से लाए गए एक कुबड़ वाले ऊंट पर भी अध्ययन किया था लेकिन बाद में यह जानकारी सामने आई कि सेना के काम के लिए दो कुबड़ वाले बैक्ट्रियन ऊंट ज्यादा कारगर हैं. लेह में इनकी ब्रीडिंग चल रही है ताकि सेना को जरूरत के हिसाब से ऐसे ऊंटों की सप्लाई की जा सके. सूत्रों के मुताबिक, फिलहाल सेना के 50 बैक्ट्रियन कैमल की जरूरत है.

170 किलो वजन और 17 हजार फीट की ऊंचाई
सेना के वेटनरी ऑफिसर कर्नल मनोज बात्रा ने इस बारे में कहा, ऐसी परिस्थिति (लेह-लद्दाख में मौसम के लिहाज से) के लिए बैक्ट्रियन कैमल ज्यादा कारगर हैं. ये ऊंट 170 किलो तक वजन लेकर 17 हजार फीट की ऊंचाई तक चढ़ सकते हैं. ये ऊंट बिना पानी के भी 72 घंटे तक जीवित रह सकते हैं. कर्नल मनोज बात्रा ने कहा कि अगले 5-6 महीने में ये ऊंट सेना को सौंप दिए जाएंगे. सेना इनका इस्तेमाल माल ढुलाई और पैट्रोलिंग में करेगी. अधिकारियों ने बताया कि बैक्ट्रियन कैमल का ट्रायल दौलत बेग ओल्डी में पहले ही किया जा चुका है.

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ऊंटों की संख्या बढ़ाने पर जोर
बता दें, बैक्ट्रियन कैमल का इस्तेमाल सिल्क रूट पर तिब्बत और लद्दाख के बीच सामान ढोने के लिए किया जाता था. अब तक इनके एक ब्रीड जंसकर का इस्तेमाल होता था लेकिन ऐसे ऊंटों के पैरों की बनावट ऐसी है कि वे रेगिस्तानी इलाकों के लिए ज्यादा अनुकूल हैं. हालांकि जंसकर पहाड़ी पर आसानी से चढ़ सकते हैं लेकिन माल ढोने की इनकी क्षमता केवल 40-50 किलो की है, जबकि बैक्ट्रियन कैमल 170 किलो तक सामान ढो सकते हैं.

दिक्कत यह है कि लद्दाख में बैक्ट्रियन कैमल की संख्या काफी कम है. इनकी पूरी आबादी 350-400 तक है. इसे देखते हुए सेना इनकी ब्रीडिंग पर खास ध्यान रख रही है, ताकि जरूरत के हिसाब से इनकी तादाद बढ़ाई जा सके. उम्रदराज ऊंटों को सेना के काम से बाहर किया जा सके और उनकी जगह पर नए ऊंटों की भर्ती हो सके, इसके लिए भी ब्रीडिंग पर जोर है.   
 

गश्त में काम आएंगे बैक्ट्रियन कैमल
पूर्वी लद्दाख में डीबीओ और देप्सांग में तनाव का माहौल है. भारत और चीन की सेनाएं कई महीने से अग्रिम मोर्चे पर डटी हैं. कभी-कभार हिंसक झड़प की भी खबरें आ रही हैं. कुछ दिन पहले ऐसी ही एक झड़प में देश के कई जवान शहीद हो गए. तनाव के बीच सेना अपनी गश्त कैसे तेज करे, इसमें बैक्ट्रियन कैमल अहम भूमिका निभा सकते हैं.

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ब्रैक्ट्रियन कैमल को सेना में शामिल करने का प्रोजेक्ट 2016 में डोकलाम घटना के बाद विचार के लिए आगे बढ़ाया गया था.सिक्किम में भारत-तिब्बत-भूटान के एक ट्राई जंक्शन पर दोनों देशों की सेना कई दिनों तक एक दूसरे के सामने डटी रह गई थी. बाद में बातचीत के जरिये इस मुद्दे का हल निकाला गया और चीनी सेना वापस हो गई.

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