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सुप्रीम कोर्ट में 35A पर टली सुनवाई, केंद्र सरकार ने मांगी 8 हफ्ते की मोहलत

अनुच्छेद 35ए भारतीय संविधान में एक 'प्रेंसीडेशियल आर्डर' के जरिये 1954 में जोड़ा गया था. यह राज्य विधानमंडल को कानून बनाने की कुछ विशेष शक्तियां देता है. इसमें वहां की विधानसभा को स्थायी निवासियों की परिभाषा तय करने का अधिकार मिलता है, जिससे अन्य राज्यों के लोगों को कश्मीर में जमीन खरीदने, सरकारी नौकरी करने या विधानसभा चुनाव में वोट करने पर रोक है.

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अलगाववादी नेताओं ने दी थी कश्मीर में जनआंदोलन की चेतावनी
अलगाववादी नेताओं ने दी थी कश्मीर में जनआंदोलन की चेतावनी

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जम्मू कश्मीर को प्राप्त विशेषाधिकार अनुच्छेद 35ए पर सुप्रीम कोर्ट में तीन जजों की  विशेष बेंच ने सोमवार को सुनवाई की. इस दौरान केंद्र सरकार की तरफ से पेश अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल ने हलफनामा देकर नोटिस पर जवाब देने के लिए आठ हफ्ते का वक्त मांगा है. जिसके बाद कोर्ट ने मामले की सुनवाई टाल दी है.

अटॉर्नी जनरल ने नोटिस का जवाब देने की मोहलत मांगते हुए कश्मीर समस्या के लिए नियुक्त मध्यस्थ की तैनाती का हवाला दिया. साथ ही उन्होंने कहा कि वो इस मामले से जुड़े तमाम पक्षकारों से बात कर रहे हैं.

इस पीठ में प्रधान न्यायाधीश जस्टिस दीपक मिश्रा के अलावा जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ और जस्टिस अजय माणिकराव खानविलकर शामिल हैं.

क्या है अनुच्छेद 35ए

दरअसल अनुच्छेद 35ए भारतीय संविधान में एक 'प्रेंसीडेशियल आर्डर' के जरिये 1954 में जोड़ा गया था. यह राज्य विधानमंडल को कानून बनाने की कुछ विशेष शक्तियां देता है. इसमें वहां की विधानसभा को स्थायी निवासियों की परिभाषा तय करने का अधिकार मिलता है, जिससे अन्य राज्यों के लोगों को कश्मीर में जमीन खरीदने, सरकारी नौकरी करने या विधानसभा चुनाव में वोट करने पर रोक है.

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इस कानून के खिलाफ दिल्ली स्थित एनजीओ 'वी द सिटीजन' ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर इसे खत्म करने की अपील की थी. इस याचिका में कहा गया कि अनुच्छेद 35ए के कारण संविधान प्रदत्त नागरिकों के मूल अधिकार जम्मू-कश्मीर में छीन लिए गए हैं, लिहाजा राष्ट्रपति के आदेश से लागू इस धारा को केंद्र सरकार फौरन रद्द करे.

समानता के अधिकार का हनन

याचिककर्ता ने इसे संविधान के अनुच्छेद 14 यानी समानता के अधिकार का हनन बताया. ऐसा इसलिए क्योंकि 35A के तहत गैर कश्मीरी से शादी करने वाले कश्मीरी पुरुष के बच्चों को स्थायी नागरिक का दर्जा और तमाम अधिकार मिलते हैं, लेकिन राज्य के बाहर रहने वाले यानी गैर कश्मीरी पुरुष शादी करने वाली महिलाओं पर संपत्ति में हिस्सा न देने की पाबंदी लगाई गई है.

इस मामले पर 17 जुलाई को हुई सुनवाई में अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल ने तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश जेएस खेहर और जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की बेंच को बताया कि इस याचिका ने संवैधानिक मुद्दा उठाया है, जिस पर कोर्ट ने इस तीन जजों की बेंच के पास भेज कर मामले के हल के छह हफ्तों का समय निर्धारित किया था. तब कोर्ट ने कहा था कि बेंच अनुच्छेद 35ए और अनुच्छेद 370 की सैंविधानिकता की जांच करेगी और इसके तहत मिलने वाला स्पेशल स्टेटस का दर्जा का भी रिव्यू होगा. वहीं जम्मू-कश्मीर सरकार ने कोर्ट में कहा है कि 2002 में इस मुद्दे पर हाईकोर्ट ने फैसला सुनाया था, जिससे यह मामला सेटल हो गया था.

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अलगाववादियों ने दी जन आंदोलन की चेतावनी

इस मामले की सुनवाई शुरू होने से पहले राज्य में हालात तनावपूर्ण होते दिख रहे हैं, जहां तीन अलगाववादी नेताओं सैयद अली शाह गिलानी, मीरवाइज उमर फारूक और मोहम्मद यासिन मलिक ने एक संयुक्त बयान जारी कर लोगों से अनुरोध किया कि अगर सुप्रीम कोर्ट राज्य के लोगों के हितों और आकांक्षा के खिलाफ कोई फैसला देता है, तो वे लोग एक जनआंदोलन शुरू करें .

अलगाववादी नेताओं ने कहा कि राज्य सूची के कानून से छेड़छाड़ का कोई कदम फलस्तीन जैसी स्थिति पैदा करेगा. उन्होंने दावा किया कि मुस्लिम बहुल राज्य की जनसांख्यिकी को बदलने के लिए एक साजिश रची जा रही है. अनुच्छेद 35 ए में संशोधन की किसी कोशिश के खिलाफ राज्य के हर तबके के लोग सड़कों पर उतरेंगे. अलगाववादी नेताओं ने कहा, 'हम घटनाक्रमों को देख रहे हैं और जल्द ही कार्रवाई की रूपरेखा और कार्यक्रम की घोषणा की जाएगी.' इन नेताओं ने आरोप लगाया कि बीजेपी राज्य में जनमत संग्रह की प्रक्रिया को नाकाम करने की कोशिश कर रही है। साथ ही पीडीपी को आरएसएस का सहयोगी बताया.

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