पाकिस्तान के सैनिकों द्वारा भारतीय जवानों की नृशंस हत्या और पिछले कुछ दिनों से लगातार संघर्षविराम का उल्लंघन किए जाने के बाद नियंत्रण रेखा (एलओसी) पर दोनों देशों के बीच संबंध काफी तनावपूर्ण हो गए हैं. युद्ध के इस खतरे के बीच एलओसी पर स्थित 'मैदान गली' नामक गांव अपना पल-पल मौत के साये में बिताने के लिए मजबूर है.
दरअसल एलओसी पर स्थित यह गांव इतनी खतरनाक जगह पर है कि अगर युद्ध होता है तो इसका सबसे पहले और सबसे बुरा खामियाजा इसी गांव को भुगतना पड़ेगा.
संघर्षविराम समझौते से पहले इस जगह मोर्टार और गोलियों के शेल्स (कारतूस के खोखे) की बरसात अकसर हुआ करती थी. और जहां तक मेल टुडे की ग्राउंड रिपोर्ट का सवाल है, उसके मुताबिक भी ये जगह बेहद ही खतरनाक है जहां हमेशा डर पसरा रहता है.
एलओसी पर हिंसा के शिकार सैंकड़ों लोगों में से एक 65 वर्षीय गुलाम मोहम्मद कहते हैं, 'यहां स्थित पाकिस्तान चौकी हमेशा तलवार की तरह हमारे सिर पर लटकी रहती है. अगर युद्ध होता है तो हमारी मौत निश्चित है.' करीब दस साल पहले हुई फायरिंग में गुलाम मोहम्मद ने अपना बेटा खो दिया. इतना ही नहीं अपना एक हाथ और पैर भी उसने खो दिया. कुछेक हजार लोगों के इस गांव में करीब 17 लोग अपनी जान गंवा चुके हैं.
स्थानीय आंकड़ों के मुताबिक मैदान गली उन 82 घुसपैठियों की मौत का भी गवाह है जो कि चोरी-छिपे गांव में घुसने की कोशिश कर रहे थे. ये गांव पाकिस्तान की टॉप पोस्ट 'कोपरा' में पड़ते हैं.
मैदान गली में रहने वाले गुलाम मोहिद्दुदिन ने बताया कि मारे गए इन घुसपैठियों को बेनाम कब्रों में दफना दिया गया. गुलाम मोहिद्दुदिन वो शख्स है जिसने अपनी आंखों से 1965, 1971 और कारगिल युद्द देखे हैं.
2004 में पहले तो हालात इतने बुरे थे कि दो या दो से अधिक लोगों को समूह दिन में सड़क पर चल नहीं सकता था. उन पर फायरिंग कर दी जाती थी. आज भी ऐसा अकसर होता है और बेकसूर लोग दोनों देशों के बीच विश्वास की कमी का शिकार बनते हैं.
पुंछ सिटी से 45 किलोमीटर दूर स्थित इस गांव में मोबाइल नेटवर्क नहीं आता. नजदीकी हेल्थ सेंटर करीब 8 किलोमीटर दूर है. सर्दियों में बर्फबारी के चलते सड़कें बंद हो जाती हैं और लोगों को करीब 6 किलोमीटर चलकर सामान खरीदने जाना पड़ता है.
मैदान गली के बाशिर अहमद ने बताया कि वह कई बार एलएमजी की गोलियों से बचे हैं.
संघर्षविराम के बाद भारत सरकार ने इस गांव से लेकर गुलमर्ग तक 40 किलोमीटर लंबी सड़क बनाने का फैसला किया था. सड़क का निर्माण शुरू भी हुआ. लेकिन दो साल बाद भी निर्माणाधीन है और वो भी खतरे के बीच.
'भाई-भाई' पोस्ट
गांव वालों ने कहा, 'धन्ना और पूरा गांवों के बाद भारत और पाकिस्तान की दो पोस्ट ऐसी हैं जो कि एक दूसरे के काफी करीब है. दोनों सेनाओं ने इन पोस्टों के नाम भाई-भाई रखे हैं. अब अगर ये दोनों मुल्कों की सेनायें इस तरह के नाम रखती हैं तो फिर युद्ध का कोई मतलब नहीं है.'
यहां रहने वालों का कहना है कि अगर युद्ध होता है तो सबसे पहले इसके शिकार वही लोग बनेंगे. कई बार इन्हीं निहत्थे और सुरक्षित लोगों को सेना का गोला-बारूद एक जगह से दूसरी जगह लेकर जाने को कह दिया जाता है.
इतना ही नहीं इस गांव के लोगों को इस असुरक्षित माहौल में रोजी-रोटी कमान के लिए भी काफी संघर्ष करना पड़ता है. यहां रहने वाले सादिक ने बताया कि वह काफी मेहनत करके कुछ सब्जियां उगाते हैं और उन्हें बेहद कम कीमत पर बेचने के लिए मजूबर है. इन सब्जियों को बाजार तक लेकर जाने में काफी पैसा खर्च हो जाता है. ऐसे में बचत बहुत कम होती है. बहुत से लोग यहां नरेगा (राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना) के जरिए अपना पेट भरते हैं. इस योजना में भी उन्हें 100 दिन की बजाय महज 70 से 80 दिन की ही मजदूरी मिल पाती है.
मैदान गली को जाने वाली सड़क परिवहन परिचालन के दृष्टि से आखिर सड़क है. इस सड़क को अगर कुछ नुकसान पहुंचता है तो यहां हफ्तों तक न तो खाना आता है और ना ही गर्म कपड़े. पिछले कई सालों से इस गांव में विकास का नामोनिशान नहीं है.