झारखंड में सरकारी पैसों की बर्बादी कैसे की जाती है वो यहां आकर जाना जा सकता है. सूबे में ऐसे दर्जनों वाकये हैं जिनमें विकास योजनाओं का हवाला देकर डीपीआर तो बनवाए गए. लेकिन ये सभी तकनीकी या दूसरे वजहों से या तो रद्द हो गए या इन्हे ठंडे बस्तों में डाल दिया गया. आरोप है कि इनमें कमीशन का खेल हुआ है. इस खेल में मंत्री से लेकर शीर्ष स्तर के बड़े अधिकारी तक के शामिल होने का आरोप है.
कैसे होता है खेल
इसमें सूबे में शुरू की जानेवाली विकास योजनाओं का डीपीआर ( डिटेल प्रोजेक्ट रिपोर्ट) बनाने के लिए पहले भारी-भरकम पैसा देकर कंसल्टेंट कंपनियों को नियुक्त किया जाता है. शर्त के मुताबिक इन कंपनियों को कुल योजना राशि की दो से तीन प्रतिशत फीस कंसल्टेंसी में दी जाती है. शर्त के मुताबिक कंपनियां डीपीआर विभाग को सौंप देती हैं और अपनी फीस लेकर चली जाती हैं. बाद में ये डीपीआर कई कारणों से बेकार घोषित हो जाते हैं और कंसल्टेंसी फीस के रूप में दी गई राशि बेकार चली जाती हैं. आरोप है कि विभाग ऐसी योजनाओं की डीपीआर बनाने में जरूरत से ज्यादा तेजी दिखाते हैं. जिनमें आगे चलकर विवाद की सम्भावना हो, बाद में अधिकारी इन कंसल्टिंग कंपनियों से अपना हिस्सा वसूल लेते हैं. ऐसे में ऊपरी तौर पर सारा कुछ होता है लीगल तरीके से लेकिन अंदर का खेल कुछ और होता है.
कई ऐसे मामले सामने आये हैं जो विवादित
हाल ही में रांची के ब्रांबे इलाके में बनने वाले कैंसर अस्पताल का डीपीआर रद्द हो गया. दरअसल सरकार ने हॉस्पिटल के निर्माण के लिए नई दिल्ली की हॉस्पिटेक प्राइवेट लि. को 34 लाख रुपये का भुगतान कर दिया. जिसके बाद तकनीकी कारणों से इस अस्पताल की स्थापना का प्रस्ताव ही खारिज हो गया. इस तरह बिना कोई काम सरकार के 34 लाख रुपये बेकार हो गए. इसी तरह का खेल ग्रेटर रांची, सिवरेज ड्रेनेज सिस्टम के डीपीआर बनाने में भी किया गया है. जिसमें करोड़ों के वारे-न्यारे किये जाने का आरोप है.