कंपकंपाती सर्दी हो या मूसलाधार बारिश. बुखार से तपता देह हो या फिर सूर्य की जला देने वाली किरणें. झारखंड के बहामनी एक्का के साइकिल की रफ्तार कभी थमती नहीं है. थकना उसे रास नहीं आता, क्योंकि वह एक मां है और अपने बच्चों को ऊंचाइयों पर देखना चाहती है. 48 साल की बहामनी हर दिन 10 से 15 किमी साइकिल चलाकर लोगों के घरों में दूध पहुंचाती है. आज उसी की मेहनत का नतीजा है कि उसकी दोनों बेटियां सुनहरे भविष्य की ओर अग्रसर है. उसकी 23 साल की बड़ी बेटी आईआईटी रुड़की से एमसीए कर रही है तो 21 साल की छोटी बेटी रांची के एक निजी नर्सिंग होम में मरीजों की सेवा करती है.
झारखंड में आमतौर पर यह माना जाता है कि आदिवासी महिलओं के कदम सिर्फ घर तक सीमित रहते हैं. लेकिन रांची में रहने वाली बहामनी ने इन वरजनाओं को तोड़ा है. वह मिसाल है उन माताओं के लिए जो संघर्ष के पथ पर बढ़ते हुए अपने जिगर के टुकड़ों को सींचती है, सवारती है और उनके भविष्य में निखार लाती है.
दरअसल, बहामनी का पति फौज में है और वह अक्सर घर से बाहर ही रहता है. जाहिर है ऐसे में परिवार की परवरिश से लेकर सारी जिम्मेदारी उस मां के कंधे पर टिकी है जो न सिर्फ अपने बच्चों बल्कि अपने भतीजे की भी जिम्मेदारी उठाए हुए है. शिक्षा को प्रमुखता देने वाली बहामनी ने खुद एक सरकारी शिक्षिका की नौकरी छोड़ दी और दूध बेचने के काम में जुट गई. अपनी मेहनत के बल पर उसने बेटी का दाखिला आईआईटी में करवाया.
सुबह चार बजे शुरू होती है दिनचर्या
बहामनी की दिनचर्या सुबह चार बजे से शुरू होती है. वह दूध बेचती है, रांची के एजी चर्च स्कूल में पढ़ाती है और घर के बाकी कार्य भी करती है. उसके पास छह जर्सी गाय हैं, जिसे तीनों पहर चारा खिलाने और रोज 80 लीटर दूध निकालने का जिम्मा भी बहामनी का ही है.
फिलहाल वह 52 घरों में दूध पहुंचाने का काम करती है. बहामनी अपनी दोनों बेटियों के लिए आइडल है और वे अपनी मां की मेहनत पर गर्व महसूस करती हैं. बहामनी कहती हैं, 'पति फौज में हैं और घर की सारी जिम्मेवारी मुझ पर है. ऐसे में सरकारी स्कूल में टीचर रहते हुए बच्चियों की परवरिश पर पूरा ध्यान नहीं दे पा रही थी. इस वजह से नौकरी छोड़ने का फैसला लिया.'