'गुदड़ी के लाल' वाली कहावत झारखण्ड के बेड़ो इलाके में रहने वाली मुन्नावती पर बिलकुल फिट बैठती है. बेहद गरीब परिवार से ताल्लुक रखने वाली मुन्नावती देवी पर पढ़ने का ऐसा जुनून है कि गरीबी उसके आड़े नहीं आई.
जब परिवारवाले उसकी पढ़ाई का खर्च नहीं उठा पाए, तो वह खर्च उठाने के लिए दिहाड़ी मजदूरी करने लगी. दिन में मजदूरी और फिर रात में पढ़ाई. आप यह जानकार दंग रह जाएंगे कि इस बाला ने ऐसे विषय में एमए, एमफिल की, जिससे अच्छे-अच्छे दूर भागते हैं. जी हां, संस्कृत…एक ऐसा विषय, जो नाकों चने चबवाता है. इतना ही नहीं, मुन्नावती ने गोल्ड मेडल भी हासिल किया है. रांची यूनिवर्सिटी द्वारा आयोजित दीक्षांत समारोह में केंद्रीय गृहमंत्री ने गोल्ड मेडल देकर मुन्नावती को सम्मानित किया.
रांची यूनिवर्सिटी के कन्वोकेशन प्रोग्राम में काले गाउन और लाल स्कार्फ में देश के गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे के हाथों गोल्ड मेडल पाकर मुन्नावती खुशी से चहक रही थी. कभी ऐसा भी लगा था कि इनकी नियति गांव में काम के बोझ में दबे दिहाड़ी मजदूरी करना है. रांची के एक सुदूर नक्सल प्रभावित बेड़ो गांव की रहने वाली मुन्नावती की मजदूरी से लेकर मेडल हासिल करने तक की कहानी अपने-आप में एक मिसाल है. इसे जिसने भी सुनी, उसके आंखों में आंसू आ गए.
एक बेहद ही गरीब परिवार से ताल्लुक रखने वाली मुन्नावती ने लाख अड़चनों के होते हुए भी कभी पढा़ई का दामन नहीं छोड़ा. बचपन में ही पिता का साया सर से हट गया. एक भाई है, जो बेरोजगार है. दूसरी तरफ मां को किडनी की बीमारी. ऐसे में जब घर में खाने के लाले पड़े हों, तो पढ़ाई तो दूर की बात थी. लेकिन मुन्नावती ने हार नहीं मानी. उसने मजदूरी शुरू की, जिसमें उसे दिनभर हाड़तोड़ मेहनत के पांच रुपये मिलते थे. दिन में मजदूरी करती और रात में पढा़ई करती रही. फिर ऐसा दिन भी आया, जब सत्र 2010-12 में उन्होंने कुल 1600 अंक में से 1046 यानी 65.35 फीसदी अंक लेकर संस्कृत विषय में रांची यूनिवर्सिटी में टॉप किया और गोल्ड मेडल पर कब्जा जमा लिया.
बकौल मुन्नावती, घर में भोजन-पानी की स्थिति बहुत ही नाजुक है. सुबह खाने के बाद शाम के खाने को सोचना पड़ता है. हालांकि आज वो गोल्ड मेडल पाकर निहाल है. वहीं मुन्नावती की मां की तमन्ना है कि वह गांव की सेवा करे.
मुन्नावती कुमारी शुरू से ही मेघावी छात्रा रही है. प्राथमिक शिक्षा से लेकर हायर एजुकेशन तक, हर जगह उन्होंने अपनी सफलता का परचम लहराया है. एकीकृत बिहार के समय 1998 में उसने बिहार विद्यालय परीक्षा बोर्ड से प्रथम श्रेणी में मैट्रिकुलेशन किया था. फिर वह मजदूरी के साथ एक स्कूल में मैट्रिक के ही छात्रों को पढ़ाने लगी. गरीबी के कारण पांच साल बाद बेड़ो से इंटर और ग्रेजुएशन की डिग्री हासिल की. इसके बाद एमए करने के लिए रांची पहुंची. लेकिन जब भी छुट्टी मिलती, वह मजदूरी कर आर्थिक जरूरतें पूरी करती. मेहनत रंग लाई और उन्होंने यूनिवर्सिटी में टॉप किया और गोल्ड मेडल की हक़दार बनी.
मुन्नावती मिसाल है उनके लिए, जो गरीबी से घबराकर शिक्षा से दूर हो जाते हैं. हालांकि गोल्ड मेडल लेने के बाद भी उसका संघर्ष अभी जारी रहेगा. मुन्नावती आगे जाकर प्रोफेसर बनना चाहती है और उन लोगों को शिक्षित करना चाहती है, जो पैसे के अभाव में पढा़ई नहीं कर पाते.